ईर्ष्या होती है चाँद से
ईर्ष्या होती है चाँद से
जब देखो
मनचाहा घूमता है
इधर-उधर डोलता
घर-घर झांकता
साथ चाँदनी लिए।
चांँदनी को देखो
निरखती है दूर गगन से
धरा तक आते-आते
बिखर-बिखर जाती है।
हाथ बढ़ाकर
थामना चाहती हूँ
चाँदनी या चाँद को।
दोनों ही चंचल
अपना रूप बदल
इधर-उधर हो जाते हैं
झुरमुट में उलझे
झांक-झांक मुस्काते हैं
मुझको पास बुलाते हैं
और फिर
यहीं-कहीं छिप जाते हैं।
अब शब्दों के अर्थ व्यर्थ हो गये हैं
शब्दकोष में अब शब्दों के अर्थ
व्यर्थ हो गये हैं।
हर शब्द
एक नई अभिव्यक्ति लेकर आया है।
जब कोई कहना है अब चारों ओर शांति है
तो मन डरता है
कोई उपद्रव हुआ होगा, कोई दंगा या मारपीट।
और जब समाचार गूंजता है
पुलिस गश्त कर रही है, स्थिति नियन्त्रण में है
तो स्पष्ट जान जाते हैं हम
कि बाहर कर्फ्यू है, कुछ घर जले हैं
कुछ लोग मरे हैं, सड़कों पर घायल पड़े हैं।
शायद, सेना का फ्लैग मार्च हुआ होगा
और हमें अब अपने आपको
घर में बन्द करना होगा ।
अहिंसा के उद्घोष से
घटित हिंसा का बोध होता है।
26 जनवरी, 15 अगस्त जैसे दिन
और बुद्ध, नानक, कबीर, गांधी, महावीर के नाम पर
मात्र एक अवकाश का एहसास होता है
न कि किसी की स्मृति, ज्ञान, शिक्षा, बलिदान का।
धर्म-जाति, धर्मनिरप्रेक्षता, असाम्प्रदायिकता,
सद्भाव, मानवता, समानता, मिलन-समारोह
जैसे शब्द डराते हैं अब।
वहीं, आरोपी, अपराधी, लुटेरे,
स्कैम, घोटाले जैसे शब्द
अब बेमानी हो गये हैं
जो हमें न डराते हैं, और न ही झिंझोड़ते हैं।
“वन्दे मातरम्” अथवा “भारत माता की जय”
के उद्घोष से हमारे भीतर
देश-भक्ति की लहर नहीं दौड़ती
अपितु अपने आस-पास
किसी दल का एहसास खटकता है
और प्राचीन भारतीय योग पद्धति के नाम पर
हमारा मन गर्वोन्नत नहीं होता
अपितु एक अर्धनग्न पुरूष गेरूआ कपड़ा ओढ़े
घनी दाढ़ी और बालों के साथ
कूदता-फांदता दिखाई देता है
जिसने कभी महिला वस्त्र धारण कर
पलायन किया था।
कोई मुझे “बहनजी” पुकारता है
तो मायावती होने का एहसास होता है
और “पप्पू” का अर्थ तो आप जानते ही हैं।
कुछ ज़्यादा तो नहीं हो गया।
कहीं आप उब तो नहीं गये
चलो आज यहीं समाप्त करती हूं
बदले अर्थों वाले शब्दकोष के कुछ नये शब्द लेकर
फिर कभी आउंगी
अभी आप इन्हें तो आत्मसात कर लें
और अन्त में, मैं अब
बुद्धिजीवी, साहित्यकार, कलाकार और
सम्मान शब्दों के
नये अर्थों की खोज करने जा रही हूं।
ज्ञात होते ही आपसे फिर मिलूंगी
या फिर उनमें जा मिलूंगी
फिर कहां मिलूंगी ।।।।।।।
कुहुक-कुहुक करती
चीं चीं चीं चीं करती दिन भर, चुपकर दाना पानी लाई हूं, ले खा
निकलेंगे तेरे भी पंख सुनहरे लम्बी कलगी, चल अब खोखर में जा
उड़ना सिखलाउंगी, झूमेंगे फिर डाली-डाली, नीड़ नया बनायेंगे
कुहुक-कुहुक करती, फुदक-फुदक घूमेगी, अब मेरी जान न खा
चूड़ियां: रूढ़ि या परम्परा
आज मैंने अपने हाथों की
सारी चूड़ियों उतार दी हैं
और उतार कर सहेज नहीं ली हैं
तोड़ दी हैं
और टुकड़े टुकड़े करके
उनका कण-कण
नाली में बहा दिया हैं।
इसे
कोई बचकानी हरकत न समझ लेना।
वास्तव में मैं डर गई थी।
चूड़ियों की खनक से,
उनकी मधुर आवाज़ से,
और उस आवाज़ के प्रति
तुम्हारे आकर्षण से।
और साथ ही चूड़ियों से जुड़े
शताब्दियों से बन रहे
अनेक मुहावरों और कहावतों से।
मैंने सुना है
चूड़ियों वाले हाथ कमज़ोर हुआ करते हैं।
निर्बलता का प्रतीक हैं ये।
और अबला तो मेरा पर्यायवाची
पहले से ही है।
फिर चूड़ी के कलाई में आते ही
सौर्न्दय और प्रदर्शन प्रमुख हो जाता है
और कर्म उपेक्षित।
और सबसे बड़ा खतरा यह
कि पता नहीं
कब, कौन, कहां,
परिचित-अपरिचित
अपना या पराया
दोस्त या दुश्मन
दुनिया के किसी
जाने या अनजाने कोने में
मर जाये
और तुम सब मिलकर
मेरी चूड़ियां तोड़ने लगो।
फ़िलहाल
मैंने इस खतरे को टाल दिया है।
जानती हूं
कि तुम जब यह सब जानेगे
तो बड़ा बुरा मानोगे।
क्योंकि, बड़ी मधुर लगती है
तुम्हें मेरी चूड़ियों की खनक।
तुम्हारे प्रेम और सौन्दर्य गीतों की
प्रेरणा स्त्रोत हैं ये।
फुलका बेलते समय
चूड़ियों से ध्वनित होते स्वर
तुम्हारे लिए अमर संगीत हैं
और तुम
मोहित हो इस सब पर।
पर मैं यह भी जानती हूं
कि इस सबके पीछे
तुम्हारा वह आदिम पुरूष है
जो स्वयं तो पहुंच जाना चाहता है
चांद के चांद पर।
पर मेरे लिए चाहता है
कि मैं,
रसोईघर में,
चकले बेलने की ताल पर,
तुम्हारे लिए,
संगीत के स्वर सर्जित करती रहूं,
तुम्हारी प्रतीक्षा में,
तुम्हारी प्रशंसा के
दो बोल मात्र सुनने के लिए।
पर मैं तुम्हें बता दूं
कि तुम्हारे भीतर का वह आदिम पुरूष
जीवित है अभी तो हो,
किन्तु,
मेरे भीतर की वह आदिम स्त्री
कब की मर चुकी है।
सबकी ही तो हार हुई है
जब भी तकरार हुई है
सबकी ही तो हार हुई है।
इन राहों पर अब जीत कहां
बस मार-मारकर ही तो बात हुई है।
हाथ मिलाने निकले थे,
क्यों मारा-मारी की बात हुई है।
बात-बात में हो गई हाथापाई,
न जाने क्यों
हाथ मिलाने की न बात हुई है।
समझ-बूझ से चले है दुनिया,
गोला-बारी से तो
इंसानियत बरबाद हुई है।
जब भी युद्धों का बिगुल बजा है,
पूरी दुनिया आक्रांत हुई है।
समझ सकें तो समझें हम,
आयुधों पर लगते हैं अरबों-खरबों,
और इधर अक्सर
भुखमरी-गरीबी पर बात हुई है।
महामारी से त्रस्त है दुनिया
औषधियां खोजने की बात हुई है।
चल मिल-जुलकर बात करें।
तुम भी जीओ, हम भी जी लें।
मार-काट से चले न दुनिया,
इतना जानें, तब आगे बढ़े है दुनिया।
अर्थ को अभिव्यक्ति
मौन को शब्द दूं
शब्द को अर्थ
और अर्थ को अभिव्यक्ति
न जाने राह में
कब कौन समझदार मिल जाये।
रोशनियां अब उधार की बात हो गई हैं
रोशनियां
अब उधार की बात हो गई हैं।
कौन किसकी छीन रहा
यह तहकीकात की बात हो गई है।
गगन पर हो
या हो धरा पर
किसने किसका रूप लिया
यह पहचानने की बात हो गई है।
प्रकाश और तम के बीच
जैसे एक
प्रतियोगिता की बात हो गई है।
कौन किस पर कर रहा अधिकार
यह समझने-समझाने की बात हो गई है।
कौन लघु और कौन गुरू
नज़र-नज़र की बात हो गई है।
कौन जीता, कौन हारा
यह विवाद की बात हो गई है।
कौन पहले आया, कौन बाद में
किसने किसको हटाया
यह तकरार की बात हो गई है।
अब आप से क्या छुपाना
अपनी हद से बाहर की बात हो गई है।
अब मैं शर्मिंदा नहीं होता
अब मैं शर्मिंदा नहीं होता
जब कोई मेरी फ़ोटो खींचता है
मुझे ऐसे-वैसे बैठने
पोज़ बनाने के लिए कहता है।
हाँ, कार्य में व्यवधान आता है
मेरी रोज़ी-रोटी पर
सवाल आता है।
कैमरे के सामने पूछते हैं मुझसे
क्या तुम स्कूल नहीं जाते
तुम्हारे माँ-बाप तुम्हें नहीं पढ़ाते
क्या बाप तुम्हारा कमाता नहीं
अपनी कमाई घर लाता नहीं
कहीं शराब तो पीता-पिलाता नहीं
तुम्हारी माँ को मारता-वारता तो नहीं
अनाथ हो या सनाथ
और कितने भाई-बहन हो
ले जायेगी तुम्हें पुलिस पकड़कर
बाल-श्रम के बारे में क्या जानते हो
किसे अपना माई-बाप मानते हो
सरकारी योजनाओं को जानते हो
उनका लाभ उठाते हो
पूछते-पूछते
उनकी फ़ोटू पूरी हो जाती है
दस रुपये पकड़ाते हैं
और चले जाते हैं
मैं उजबुक-सा बना देखता रह जाता हूँ
और काम पर लौट आता हूँ।
सावन की बातें मनभावन की बातें
वो सावन की बातें, वो मनभावन की बातें, छूट गईं।
वो सावन की यादें, वो प्रेम-प्यार की बातें, भूल गईं।
मन डरता है, बरसेगा या होगा महाप्रलय कौन जाने,
वो रिमझिम की यादें, वो मिलने की बातें, छूट गईं ।
आस जीवन की
रात गई, प्रात आई, लालिमा झिलमिल,
आते होंगे संगी-साथी, उड़ेंगे हिलमिल,
डाली पर फूल खिलेंगे, आस जीवन की,
तान छेड़ेंगे, राग नये गायेंगे, घुलमिल।
कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल
कहीं अंग्रेज़ी के कहीं हिन्दी के फूल बना रहे हैं राजाजी
हरदम केतली चढ़ा अपनी वीरता दिखा रहे हैं राजाजी
पानी खौल गया, आग बुझी, कभी भड़क गई देखो ज़रा
फीकी, बासी चाय पिला-पिलाकर बहका रहे हैं राजाजी
यादें: शिमला की बारिश की
न जाने वे कैसे लोग हैं
जो बारिश की
सौंधी खुशबू से
मदहोश हो जाते हैं
प्रेम-प्यार के
किस्सों में खो जाते हैं।
विरह और श्रृंगार की
बातों में रो जाते हैं।
सर्द सांसों से
खुशियों में
आंसुओं के
बीज बो जाते हैं।
और कितने तो
भीग जाने के डर से,
घरों में छुपकर सो जाते हैं।
यह भी कोई ज़िन्दगी है भला !
.
कभी तेज़, कभी धीमी
कभी मूसलाधार
बेपरवाह हम और बारिश !
पानी से भरी सड़क पर
छप-छपाक कर चलना
छींटे उछालना
तन-मन भीग-भीग जाना
चप्पल पानी में बहाना
कभी भागना-दौड़ना
कभी रुककर
पेड़ों से झरती बूँदों को
अंजुरी में सम्हालना
बरसती बूंदों से
सिहरती पत्तियों को
सहलाना
चीड़-देवदार की
नुकीली पत्तियों से
झरती एक-एक बूँद को
निरखना
उतराईयों पर
तेज़ दौड़ते पानी से
रेस लगाना।
और फिर
रुकती-रुकती बरसात,
बादलों के बीच से
रास्ता खोजता सूरज
रंगों की आभा बिखेरता
मानों प्रकृति
नये कलेवर में
अवतरित होती है
एक नवीन आभा लिए।
हरे-भरे वृक्ष
मानों नहा-धोकर
नये कपड़े पहन कर
धूप सेंकने आ खड़े हों।
नेह के मोती
अपने मन से,
अपने भाव से,
अपने वचनों से,
मज़बूत बांधी थी डोरी,
पिरोये थे
नेह के मोती,
रिश्तों की आस,
भावों का सागर,
अथाह विश्वास।
-
किन्तु
समय की धार
बहुत तीखी होती है।
-
अकेले
मेरे हाथ में नहीं थी
यह डोर।
हाथों-हाथ
घिसती रही
रगड़ खाती रही
गांठें पड़ती रहीं
और बिखरते रहे मोती।
और जब माला टूटती है
मोती बिखरते हैं
तो कुछ मोती तो
खो ही जाते हैं
कितना भी सम्हाल लें
बस यादें रह जाती हैं।
इंसानियत गमगीन हुई है
जबसे मुट्ठी रंगीन हुई हैं,
तब से भावना क्षीण हुई हैं।
बात करते इंसानियत की
पर इंसानियत
अब कहां मीत हुई है।
रंगों से पहचान रहे,
हम अपनों को
और परख रहे परायों को,
देखो यहां
इंसानियत गमगीन हुई है।
रंगों को बांधे मुट्ठी में
इनसे ही अब पहचान हुई है।
बाहर से कुछ और दिखें
भीतर रंगों में तकरार हुई है।
रंगों से मिलती रंगीनियां
ये पुरानी बात हुई है।
बन्द मुट्ठियों से अब मन डरता है
न जाने कहां क्या बात हुई है।
चल मुट्ठियों को खोलें
रंग बिखेरें,
तू मेरा रंग ले ले,
मैं तेरा रंग ले लूं
तब लगेगा, कोई बात हुई है।
मेरी समझ कुछ नहीं आता
मां,
मास्टर जी कहते हैं
धरती गोल घूमती।
चंदा-तारे सब घूमते
सूरज कैसे आता-जाता
बहुत कुछ बतलाते।
मेरी समझ नहीं कुछ आता
फिर हम क्यों नहीं गिरते।
पेड़-पौधे खड़े-खड़े
हम पर क्यों नहीं गिरते।
चंदा लटका आसमान में
कभी दिखता
कभी खो जाता।
कैसे कहां चला जाता है
पता नहीं क्या-क्या समझाते।
इतने सारे तारे
घूम-घूमकर
मेरे बस्ते में क्यों नहीं आ जाते।
कभी सूरज दिखता
कभी चंदा
कभी दोनों कहीं खो जाते।
मेरी समझ कुछ नहीं आता
मास्टर जी
न जाने क्या-क्या बतलाते।
मिर्ची व्यवहार
डाला मीठा अचार
खा रहे बार-बार
कहते मिर्ची लगी
कैसा यह व्यवहार
न छूट रहे लगाव थे
कुछ कहे-अनकहे भाव थे।
कुछ पंख लगे चाव थे।
कुछ शब्दों के साथ थे।
कुछ मिट गये लगाव थे।
कुछ को शब्द मिले थे।
कुछ सूख गये रिसाव थे।
आधी नींद में देखे
कुछ बिखरे-बिखरे ख्वाब थे।
नहीं पलटती अब मैं पन्ने,
नहीं संवारती पृष्ठ।
कहीं धूल जमी,
कहीं स्याही बिखरी।
किसी पुरानी-फ़टी किताब-से,
न छूट रहे लगाव थे।
सोचते हैं दिल बदल लें
मायूस दिल को मनाने अब किसे, क्यों यहां आना है
दिल की दर्दे-दवा लगाने अब किसे, क्यों यहां आना है
ज़माना बहुत निष्ठुर हो गया है, बस तमाशा देख रहा
सोचते हैं दिल बदल लें, देखें किसे यहां घर बसाने आना है।
कुछ तो मुंह भी खोल
बस !
अब बहुत हुआ।
केवल आंखों से न बोल।
कुछ तो मुंह भी खोल।
कोई बोले कजरारे नयना
कोई बोले मतवारे नयना।
कोई बोले अबला बेचारी,
किसी को दिखती सबला है।
तेरे बारे में,
तेरी बातें सब करते।
अवगुण्ठन के पीछे
कोई तेरा रूप निहारे
कोई प्रेम-प्याला पी रहे ।
किसी को
आंखों से उतरा पानी दिखता
कोई तेरी इन सुरमयी आंखों के
नशेमन में जी रहे।
कोई मर्यादा ढूंढ रहा
कोई तेरे सपने बुन रहा,
किसी-किसी को
तेरी आबरू लुटती दिखती
किसी को तू बस
सिसकती-सिसकती दिखती।
जिसका जो मन चाहे
बोले जाये।
पर तू क्या है
बस अपने मन से बोल।
बस ! अब बहुत हुआ।
केवल आंखों से न बोल।
कुछ तो मुंह भी खोल।
क्षणिक तृप्ति हेतु
घाट घाट का पानी पीकर पहुंचे हैं इस ठौर
राहों में रखते थे प्याउ, बीत गया वह दौर
नीर प्रवाह शुष्क पड़े, जल बिन तरसे प्राणी
क्षणिक तृप्ति हेतु कृत्रिम सज्जा का है दौर
विनम्रता कहां तक
आंधी आई घटा छाई विनम्र घास झुकी, मुस्काई
वृक्षों ने आंधी से लड़ने की आकांक्षा जतलाई
झुकी घास सदा ही तो पैरों तले रौंदी जाती रही
धराशायी वृक्षों ने अपनी जड़ों से फिर एक उंचाई पाई
चल मन आज भीग लेते हैं ज़रा
चल मन आज भीग लेते हैं ज़रा
हवाओं का रूख देख लेते हैं ज़रा
धरा भी नम होकर स्वागत कर रही
हटा आवरण, हवाओं संग उड़ते हैं ज़रा
कच्चे घड़े-सी युवतियां
कच्चे घड़े-सी होती हैं
ये युवतियां।
घड़ों पर रचती कलाकृति
न जाने क्या सोचती हैं
ये युवतियां।
रंग-बिरंगे वस्त्रों से सज्जित
श्रृंगार का रूप होती हैं
ये युवतियां।
रंग सदा रंगीन नहीं होते
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
हाट सजता है,
बाट लगता है,
ठोक-बजाकर बिकता है,
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
कला-संस्कृति के नाम पर
बैठक की सजावट बनते हैं]
सजते हैं घट
और चाहिए एक ओढ़नी
जानती हैं सब
केवल, ये युवतियां।
बातें आसमां की करते हैं
पर इनके जीवन में तो
ठीक से धरा भी नहीं है
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
कच्चे घड़ों की ज़िन्दगी
होती है छोटी
इस बात को
सबसे ज़्यादा जानती हैं
ये युवतियां।
चाहिए जल की तरलता, शीतलता
किन्तु आग पर सिंक कर
पकते हैं घट
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।