किससे क्या कहें हम
लाशों पर शहर नहीं बसते
बाले-बरछियों से घर नहीं बनते
फ़सलों में पानी की ही तरावट चाहिए
रक्त से बीज नहीं पनपते।
कब कौन किसको समझाये यह
हमें तो यह भी नहीं पता
कि कौन शत्रु
और कौन मित्र बनकर लड़ते।
जिनसे आज करते हैं मैत्री समझौता
वे ही कल शत्रु बन बरसते।
अस्त्रों-शस्त्रों से घरों की सजावट नहीं होती
और दूसरों के कंधों पर दुनिया नही चलती।
छाता लेकर निकले हम
छाता लेकर निकले हम
देखें बारिश में
कितना है दम।
भीगने से
न जाने क्यों
लोगों का निकलता है दम।
छाता कर देंगे बंद
जमकर भीगेंगे हम।
जब लग जायेगी ठण्डी
तब लौटेंगे घर को हम
मोटी मोटी डांट पड़ेगी
फिर हलवा-पूरी,
चाट पकौड़ी जी भर
खायेंगे हम।
समय के साथ
हवा आती है
और बन्द खिड़कियों से टकराकर
लौट जाती है।
हमें अब
खिड़कियां खोलने की
आदत नहीं रही।
ताज़ी हवा
और पहली बरसात से हमें
सर्दी लग जाती है।
मिट्टी से सौंधी-सौंधी गंध आने पर
हम नाक पर
रुमाल रख लेते हैं
और चढ़ते सूरज की धूप से
लूह लग जाने का
डर लगता है।
फिर खिड़कियां खोल देने पर
हो सकता है
ताज़ी हवा के साथ
कुछ मिट्टी, कुछ कंकड़
कुछ नया-पुराना, कुछ अच्छा-बुरा
भी चला आये।
अब हवा में ये सब
ज़्यादा हो गये हैं
और इन सबको
सहने की हमारी आदत कम।
हम आदी हो गये हैं
पंखे की हवा, बिजली की रोशनी
और फ्रिज के पानी के अपने-आप में बंद।
हवा की छुअन से
नहीं महसूस होती अब
वह मीठी-सी सिहरन
जो मन में उमंग जगाती थी
और अन्तर्मन के तारों को
कोई मीठा गीत गाने के लिए
झंकृत कर जाती थी।
हवा ने भी हमारी ही तरह
बच-बचकर निकलना सीख लिया है
न इस पर किसी का कोई रंग चढ़ता है
और न इसका रंग किसी पर चढ़ता है।
और कौन जीता है
कौन मरता है
किसी को क्या फ़र्क पड़ता है।
हमें भी अब
मौसम के अनुसार जीने की आदत नहीं रही।
इसलिए हमने
हवा को बाहर कर दिया हे
और अपने-आपको
कमरे में बन्द।
हवा के बदलते रुख पर
चर्चा करने के लिए
हमने अपने कमरों को
वातानुकूलित कर लिया है
सावन-भादों, ज्येष्ठ-पौष
सब वातानुकूलित होकर
हमारे कमरों में बन्द हो गये हैं
और हम
अपने-आपमें।
अपनी-अपनी कोशिश
हमने जब भी
उठकर
खड़े होने की कोशिश की
तुमने हमें
मिट्टी मे मिला देना चाहा।
लेकिन
तुम यह बात भूल गये
कि मिट्टी में मिल जाने पर ही
एक छोटा-सा बीज
विशाल वृक्ष का रूप
धारण कर लेता है।
प्रतिष्ठा
उस अधिकार को पाने के लिए
जो तुम्हारा नहीं है;
दूसरे का अधिकार छीनने के लिए
जो तुम्हारे वश में नहीं है
बोलते रहा, बोलते रहो।
बोलत-बोलते
जब ज़बान थक जाये
तो गाली देना शुरु कर दो।
गाली देते-देते
जब हिम्मत चुक जाये
तब हाथापाई पर उतर आओ।
और जब लगे
कि हाथापाई में
सामने वाला भारी पड़ गया है
तो दो कदम पीछे हटकर
हाथ झाड़ लो -
- लो छोड़ दिया मैंने तुम्हें
- आओ, समझौता कर लें
फिर समझौते की शतें
उसके सिर पर लाद दो।
तीन शब्द
ज़िन्दगियां
कुछ शब्दों में बंधकर
रह जाती हैं,
बंधक बन जाती हैं,
फिर वे तीन हो
या तेरह
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
बात कानून की नहीं
मन की है, और शायद सोच की।
कानून
कहां-कहां, किस-किसके
घर जायेगा
देखने के लिए
कि कुछ और शब्दों से
या फिर बिना शब्दों के भी
आहत होती हैं, घातक होती हैं।
परदे
आज भी पड़े हैं
चेहरों पर, सोच पर, नज़र पर
कब उतरेंगे, कैसे उतरेंगे
कितनी सदियां लग जाती हैं,
केवल एक भाव बदलने के लिए।
और जब तक वह बदलता है
टूटता है,
कुछ नया जुड़ जाता है
और हमें फिर खड़ा होना पड़ता है
एक नई लड़ाई के लिए
सदियों-सदियों तक।
बहती धारा
दूर कहीं
अनजान नगर से
बहती धारा आती है
कब छलकी, कहां चली
नहीं हमें बताती है
पथ दुर्गम, राहें अनजानी
पथरीली राहों पर
कहीं रूकती
कहीं लहर-लहर लहराती है।
झुक-झुक कर देख रहे तरू
रूक-रूक कर कहां जाती है
कभी सूखी कभी नम धरा से
मानों पूछ रहे
कभी रौद्र रूप दिखलाती
लुप्त कभी क्यों हो जाती है।
अनछुए शब्द
कुछ भाव
चेहरों पर लिखे जाते हैं
और कुछ को शब्द दिये जाते हैं
शब्द कभी अनछुए
एहसास दे जाते हैं ,
कभी बस
शब्द बनकर रह जाते हैं।
किन्तु चेहरे चाहकर भी
झूठ नहीं बोल पाते।
चेहरों पर लिखे भाव
कभी कभी
एक पूरा इतिहास रच डालते हैं।
और यही
भावों का स्पर्श
जीवन में इन्द्र्धनुषी रंग भर देता है।
मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है
बड़ी देर से निहार रही हूं
इस चित्र को]
और सोच रही हूं
क्या ये सास-बहू हैं
टैग ढूंढ रही हूं
कहां लिखा है
कि ये सास-बहू हैं।
क्यों सबको
सास-बहू ही दिखाई दे रही हैं।
मां-बेटी क्यों नहीं हो सकती
या दादी-पोती।
नाराज़ दादी अपनी पोती से
करती है इसरार
मैं भी चलूंगी साथ तेरे
मुझको भी ऐसा पहनावा ला दे
बहुत कर लिया चैका-बर्तन
मुझको भी माॅडल बनना है।
बूढ़ी हुई तो क्या
पढ़ा था मैंने अखबारों में
हर उमर में अब फैशन चलता है]
ले ले मुझसे चाबी-चैका]
मुझको
विश्व-सुन्दरी का फ़ारम भरना है।
चलना है तो चल साथ मेरे
तुझको भी सिखला दूंगी
कैसे करते कैट-वाक,
कैसे साड़ी में भी सब फबता है
दिखलाती हूं तुझको,
सिखलाती हूं तुझको
इन बालों का कैसे जूड़ा बनता है।
चल साथ मेरे
मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है।
दे देना दो लाईक
और देना मुझको वोट
प्रथम आने का जुगाड़ करना है,
अब तो मुझको ही विश्व-सुन्दरी बनना है।
गिरगिट की तरह
कितना अच्छा है
कि हम जानते हैं
कि गिरगिट रंग बदलते हैं।
इसलिए रंगों के बीच भी
उसे हम अक्सर पहचान लेते हैं।
आकर्षित करता है
उसका यह रंग बदलना,
क्योंकि प्रकृति से
सामंजस्य का भाव है उसमें।
पर उन लोगों का क्या करें
जो दिखते तो स्याह-सफ़ेद हैं
पर भीतर न जाने
कितने रंगों से सराबोर होते हैं
और अवसरानुकूल रंग बदलते रहते हैं।
और हम भी कहां पीछे हैं
रंगों में रंग बदलने लगे हैं
स्याह को सफ़ेद और
सफ़ेद को स्याह करने में लगे हैं।
शिक्षा की यह राह देखकर
शिक्षा की कौन-सी राह है यह
मैं समझ नहीं पाई।
आजकल
बेटियां-बेटियां
सुनने में बहुत आ रहा है।
उनको ऐसी नई राहों पर
चलना सिखलाया जा रहा है।
सामान ढोने वाली
कुण्डियों पर लटकाया जा रहा है
और शायद
विद्यालय का मार्ग दिखलाया जा रहा है।
बच्चियां हैं ये अभी
नहीं जानती कि
राहें बड़ी लम्बी, गहरी
और दलदल भरी होती हैं।
न पैरों के नीचे धरा है
न सिर पर छाया,
बस दिवा- स्वप्न दिखा-दिखाकर
अधर में फ़ंसाया जा रहा है।
अवसर मिलते ही
डराने लगते हैं हम
धमकाने लगते हैं हम।
और कभी उनका
अति गुणगान कर
भटकाने लगते हैं हम।
ये राहें दिखाकर
उनके हौंसले
तोड़ने पर लगे हैं।
नौटंकियां करने में कुशल हैं।
चांद पर पहुंच गये,
आधुनिकता के चरम पर बैठे,
लेकिन
शिक्षा की यह राह देखकर
चुल्लू भर पानी में
डूब मरने को मन करता है।
किन्तु किससे कहें,
यहां तो सभी
गुणगान करने में जुटे हैं।
कच्चे घड़े-सी युवतियां
कच्चे घड़े-सी होती हैं
ये युवतियां।
घड़ों पर रचती कलाकृति
न जाने क्या सोचती हैं
ये युवतियां।
रंग-बिरंगे वस्त्रों से सज्जित
श्रृंगार का रूप होती हैं
ये युवतियां।
रंग सदा रंगीन नहीं होते
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
हाट सजता है,
बाट लगता है,
ठोक-बजाकर बिकता है,
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
कला-संस्कृति के नाम पर
बैठक की सजावट बनते हैं]
सजते हैं घट
और चाहिए एक ओढ़नी
जानती हैं सब
केवल, ये युवतियां।
बातें आसमां की करते हैं
पर इनके जीवन में तो
ठीक से धरा भी नहीं है
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
कच्चे घड़ों की ज़िन्दगी
होती है छोटी
इस बात को
सबसे ज़्यादा जानती हैं
ये युवतियां।
चाहिए जल की तरलता, शीतलता
किन्तु आग पर सिंक कर
पकते हैं घट
ये बात जानती हैं
केवल, ये युवतियां।
जीवन का अर्थ
मैं अक्सर
बहुत-सी बातें
नहीं समझ पाती हूं।
और यह बात भी
कुछ ऐसी ही है
जिसे मैं नहीं समझ पाती हूं।
बड़े-बड़े
पण्डित-ज्ञानी कह गये
मोह-माया में मत पड़ो,
आसक्ति से दूर रहो,
न करो किसी से अनुराग।
विरक्ति बड़ी उपलब्धि है।
तो
इस जीवन का क्या अर्थ?
कोई बतायेगा मुझे !!!
रेखाएं बोलती हैं
घर की सारी
खिड़कियां-दरवाज़े
बन्द रखने पर भी
न जाने कहां से
धूल आ पसरती है
भीतर तक।
जाने-अनजाने
हाथ लग जाते हैं।
शीशों पर अंगुलियां घुमाती हूं,
रेखाएं खींचती हूं।
गर्द बोलने लगती है,
आकृतियों में, शब्दों में।
गर्द उड़ने लगती है
आकृतियां और शब्द
बदलने लगते हैं।
एक साफ़ कपड़े से
अच्छे से साफ़ करती हूं,
किन्तु जहां-तहां
कुछ लकीरें छूट जाती हैं
और फिर आकृतियां बनने लगती हैं,
शब्द घेरने लगते हैं मुझे।
अरे!
डरना क्या!
इसी बात पर मुस्कुरा देने में क्या लगता है।
यादों पर दो क्षणिकाएं
तुम्हारी यादें
किसी सुगन्धित पुष्प-सी।
पहले कली-सी कोमल,
फिर फूल बन
मन-उपवन को महकातीं,
भंवरे गुनगुनाते।
हर पत्ती नये भाव में बहती।
और अन्त
एक मुर्झाए फूल-सा
डाली से टूटा,
कब कदमों तले रौंदा गया
पता ही न लगा।
*-*
यादों की गठरी
उलझे धागे,
टूटे बटन,
फ़टी गुदड़िया।
भारी-भरकम
मानों कई ज़िन्दगियों
के उधार का लेखा-जोखा।
मन की गुलामी से बड़ी कोई सफ़लता नहीं
ऐसा अक्सर क्यों होता है
कि हम
अपनी इच्छाओं,
आकांक्षाओं का
मान नहीं करते
और,
औरों के चेहरे निरखते हैं
कि उन्हें हमसे क्या चाहिए।
.
मेरी इच्छाओं का सागर
अपार है।
अनन्त हैं उसमें लहरें,
किलोल करती हैं
ज्वार-भाटा उठता है,
तट से टकरा-टकराकर
रोष प्रकट करती हैं,
सारी सीमाएं तोड़कर
पूर्णता की आकांक्षा लिए
बार-बार बढ़ती हैं
उठती हैं, गिरती हैं
फिर आगे बढ़ती हैं।
.
अपने मन के गुलाम नहीं बनेंगे
तो पूर्णता की आकांक्षा पूरी कैसे होगी ?
.
अपने मन की गुलामी से बड़ी
कोई सफ़लता नहीं जीवन में।
भोर में
भोर में
चिड़िया अब भी चहकती है
बस हमने सुनना छोड़ दिया है।
.
भोर में
रवि प्रतिदिन उदित होता है
बस हमने आंखें खोलकर
देखना छोड़ दिया है।
.
भोर में आकाश
रंगों से सराबोर
प्रतिदिन चमकता है
बस हमने
आनन्द लेना छोड़ दिया है।
.
भोर में पत्तों पर
बहकती है ओस
गाते हैं भंवरे
तितलियां उड़ती-फ़िरती है
बस हमने अनुभव करना छोड़ दिया है।
.
सुप्त होते तारागण
और सूरज को निरखता चांद
अब भी दिखता है
बस हमने समझना छोड़ दिया है।
.
रात जब डूबती है
तब भोर उदित होती है
सपनों के साथ,
.
बस हमने सपनों के साथ
जीना छोड़ दिया है।
ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी
सपनों से हम डरने लगे हैं।
दिल में भ्रम पलने लगे हैं ।
ठहरी-ठहरी-सी है ज़िन्दगी
अपने ही अब खलने लगे हैं।
शक्ल हमारी अच्छी है
शक्ल हमारी अच्छी है, बस अपनी नज़र बदल लो तुम।
अक्ल हमारी अच्छी है, बस अपनी समझ बदल लो तुम।
जानते हो, पर न जाने क्यों न मानते हो, हम अच्छे हैं,
मित्रता हमारी अच्छी है, बस अपनी अकड़ बदल लो तुम।
यह रिश्ते
माता-पिता के लिए बच्चे वरदान होते हैं।
बच्चों के लिए माता-पिता सरताज होते हैं।
इन रिश्तों में गंगा-यमुना-सी पवित्र धारा बहती है,
यह रिश्ते मानों जीवन का मधुर साज़ होते हैं।
रिश्तों में
माता-पिता न मांगें कभी बच्चों से प्रतिदान।
नेह, प्रेम, अपनापन, सुरक्षा, नहीं कोई एहसान।
इन रिश्तों में लेन-देन की तुला नहीं रहती,
बदले में न मांगें बच्चों से कभी बलिदान।
हारना नहीं है
चलो आज ज़िन्दगी को हम कुछ सिखाएं।
कैसा भी समय हो, मन में मलाल न लाएं।
मन पुलकित होता है जब आस जगती है,
हारना नहीं है, इसी बात पर खिलखिलाएं।
एक तृण छूता है
पर्वत को मैंने छेड़ा
ढह गया।
दूर कहीं से
एक तिनका आया
पथ बांध गया।
बड़ी-बड़ी बाधाओं को तो
हम
यूं ही झेल लिया करते हैं
पर कभी-कभी
एक तृण छूता है
तब
गहरा घाव कहीं बनता है
अनबोले संवादों का
संसार कहीं बनता है
भीतर ही भीतर
कुछ रिसता है
तब मन पर
पर्वत-सा भार कहीं बनता है।
हम किसे फूंकें
कहते हैं
दूध का जला
छाछ को भी
फूंक-फूंक कर पीता है
किन्तु हम तो छाछ के जले हैं
हम किसे फूंकें
बतायेगा कोई ।
रस और गंध और पराग
ज़्यादा उंची नहीं उड़ती तितली।
बस फूलों के आस पास
रस और गंध और पराग
बस इतना ही।
समेट लिया मैंने
अपनी हथेलियों में
दिल से।
उड़ान चाहतों की
दिल से भरें
उड़ान
चाहतों की
तो पर्वतों को चीर
रंगीनियों में
छू लेगें आकाश।
सत्य के भी पांव नहीं होते
कहते हैं
झूठ के पांव नहीं होते
किन्तु मैंने तो
कभी सत्य के पांव
भी नहीं देखे।
झूठ अक्सर सबका
एक-सा होता है
पर ऐसा क्यों होता है
कि सत्य
सबका अपना-अपना होता है।
किसी के लिए
रात के अंधेरे ही सत्य हैं
और कोई
चांद की चांदनी को ही
सत्य मानता है।
किसी का सच सावन की घटाएं हैं
तो किसी का सच
सावन का तूफ़ान
जो सब उजाड़ देता है।
किसी के जीवन का सत्य
खिलते पुष्प हैं
तो किसी के जीवन का सत्य
खिलकर मुर्झाते पुष्प ।
किन्तु झूठ
सबका एक-सा होता है,
इसलिए
आज झूठ ही वास्तविक सत्य है
और यही सत्य है।
संदेह की दीवारें
संदेह की दीवारें नहीं होतीं
जो दिखाई दें,
अदृश्य किरचें होती हैं
जो रोपने और काटने वाले
दोनों को ही चुभती हैं।
किन्तु जब दिल में, एक बार
किरचें लग जाती हैं
फिर वे दिखती नहीं,
आदत हो जाती है हमें
उस चुभन की,
आनन्द लेने लगते हैं हम
इस चुभन का।
धीरे-धीरे रिसता है रक्त
गांठ बनती है, मवाद बहता है
जीवन की लय
बाधित होने लगती है।
-
यह ठीक है कि किरचें दिखती नहीं
किन्तु जब कुछ टूटा होगा
तो एक बार तो आवाज़ हुई होगी
काश उसे सुना होता ।।।।
तो जीवन
कितना सहज-सरल-सरल होता।
आशाओं को रंगीन किया है
कुछ भाव नि:शब्द होते हैं
आकार देती हूं
उन्हें कागज़ पर।
दूरियां सिमटती हैं।
अबोल,
बोल होने लगते हैं।
तुम्हांरे नाम
कुछ शब्द लिखे हैं
भावों को रूप दिया है
आशाओं को रंगीन किया है
कुछ इन्द्रधनुष उकेरे हैं
कहीं कुछ बूंदों बहकी
कुछ शब्द् मिट से गये हैं
समझ सको तो समझ लेना
जोड़-जोड़कर पढ़ लेना।
अधूरे रंगों को पूरा कर लेना।
जीवन महकता है
जीवन महकता है
गुलाब-सा
जब मनमीत मिलता है
अपने ख्वाब-सा
रंग भरे
महकते फूल
जीवन में आस देते हैं
एक विश्वास देते हैं
अपनेपन का आभास देते हैं।
सूखेंगे कभी ज़रूर
सूखने देना।
पत्ती –पत्ती सहेजना
यादों की, वादों की
मधुर-मधुर भावों से
जीवन-भर यूं ही मन हेलना ।