गीत मधुर हम गायेंगे

गीत मधुर हम गायेंगे 

गई थी मैं दाना लाने

क्यों बैठी है मुख को ताने।

दो चींटी, दो पतंगे,

तितली तीन लाई हूं।

अच्छे से खाकर

फिर तुझको उड़ना

सिखलाउंगी।

पानी पीकर

फिर सो जाना,

इधर-उधर नहीं है जाना।

आंधी-बारिश आती है,

सब उजाड़ ले जाती है।

नीड़ से बाहर नहीं है आना।

मैं अम्मां के घर लेकर जाउंगी।

देती है वो चावल-रोटी

कभी-कभी देर तक सोती।

कई दिन से देखा न उसको,

द्वार उसका खटखटाउंगी,

हाल-चाल पूछकर उसका

जल्दी ही लौटकर आउंगी।

फिर मिलकर खिचड़ी खायेंगे,

गीत मधुर हम गायेंगे।

    

 

 

ये चिड़िया

मां मुझको बतलाना

ये चिड़िया

क्या स्कूल नहीं जाती ?

सारा दिन  बैठी-बैठी,

दाना खाती, पानी पीती,

चीं-चीं करती शोर मचाती।

क्या इसकी टीचर

इसको नहीं डराती।

इसकी मम्मी कहां जाती ,

होमवर्क नहीं करवाती।

सारा दिन गाना गाती,

जब देखो तब उड़ती फिरती।

कब पढ़ती है,

कब लिखती है,

कब करती है पाठ याद

इसको क्यों नहीं कुछ भी कहती।

 

अपने-आप से मिलना

 

मन के भीतर

एक संसार है

जो केवल मेरा है।

उससे मिलने के लिए

मुझे

अपने-आप से मिलना होता है

बुरा मत मानना

तुमसे विलग होना होता है।

 

एक नाम और एक रूप हो

एक नाम और एक रूप हो

मन्दिर-मन्दिर घूम रही मैं।

भगवानों को ढूंढ रही मैं।

इसको, उसको, पूछ रही मैं।

कहां-कहां नहीं घूम रही मैं।

तू पालक, तू जगत-नियन्ता

तेरा राज्य ढूंढ रही मैं।

तू ही कर्ता, तू ही नियामक,

उलट-फेर न समझ रही मैं।

नामों की सूची है लम्बी,

किसको पूछूं, किसको पकड़ूं

दिन-भर कितना सोच रही मैं।

रूप हैं इतने, भाव हैं इतने,

किसको पूजूं, परख रही मैं।

सुनती हूं मैं, तू सुनता सबकी,

मेरी भी इक ले सुन,

एक नाम और एक रूप हो,

सबके मन में एक भाव हो,

दुनिया सारी तुझको पूजे,

न हो झगड़ा, न हो दंगा,

अपनी छोटी बुद्धि से

बस इतना ही सोच रही मैं।

 

 

दुनिया मेरी मुट्ठी में

बहुत बड़ा है जगत,

फिर भी कुछ सीढ़ियां चढ़कर

एक गुरूर में

अक्सर कह बैठते हैं हम

दुनिया मेरी मुट्ठी में।

सम्बन्ध रिस रहे हैं,

भाव बिखर रहे हैं,

सांसे थम रही हैं,

दूरियां बढ़ रही हैं।

अक्सर विपदाओं में

साथ खड़े होते हैं,

किन्तु यहां सब मुंह फेर पड़े हैं।

सच कहें तो लगता है,

न तेरे वश में, न मेरे वश में,

समझ से बाहर की बात हो गई है।

समय पर चेतते नहीं।

अब हाथ जोड़ें,

या प्रार्थनाएं करें,

बस देखते रहने भर की बात हो गई है।

एक किरण लेकर चला हूँ

रोशनियों को चुराकर चला हूँ,

सिर पर उठाकर चला हूँ

जब जहां अवसर मिलेगा

रोश्नियां बिखेरने का

वादा करके चला हूँ

अंधेरों की आदत बनने लगी है,

उनसे दो-दो हाथ करने चला हूँ

जानता हूं, है कठिन मार्ग

पर अकेल ही अकेले चला हूँ

दूर-दूर तक

न राहें हैं, न आसमां, न जमीं,

सब तलाशने चला हूं।

ठोकरों की तो आदत हो गई है,

राहों को समतल बनाने चला हूँ

कोई तो मिलेगा राहों में,

जो संग-संग चलेगा,

साथ उम्मीद की, हौंसलों की भी

एक किरण लेकर चला हूँ

ताउते एवं यास तूफ़ान के दृष्टिगत रचना

अपनी सीमाओं का

अतिक्रमण करते हुए

लहरें आज शहरों में प्रवेश कर गईं।

उठते बवंडर ने

सागर में कश्तियों से

अपनी नाराज़गी जताई।

हवाओं की गति ने

सब उलट-पलट दिया।

घटाएं यूं घिरीं, बरस रहीं

मानों कोई आतप दिया।

प्रकृति के सौन्दर्य से

मोहित इंसान

इस रौद्र रूप के सामने

बौना दिखाई दिया।

 

प्रकृति संकेत देती है,

आदेश देती है, निर्देश देती है।

अक्सर

सम्हलने का समय भी देती है।

किन्तु हम

सदा की तरह

आग लगने पर

कुंआ खोदने निकलते हैं।

दादाजी से  गुड़िया बोली

दादाजी से  गुड़िया बोली,

स्कूल चलो न, स्कूल चलो न।

दादाजी को गुड़िया बोली

मेरे संग पढ़ो न, मेरे संग पढ़ो न।

मां हंस हंस होती लोट-पोट,

भैया देखे मुझको।

दादाजी बोले,

स्कूल चलूंगा, स्कूल चलूंगा।

मुझको एक ड्र्ैस सिलवा दे न।

सुन्दर सा बस्ता,

काॅपी-पैन ला दे न।

अपनी क्लास में

मेरा नाम लिखवा दे न।

तू मुझको ए बी सी सिखलाना,

मैं तुझको अ आ इ ई सिखलाउंगा।

मेरी काम करेगी तू,

मैं तुझको टाॅफ़ी दिलवाउंगा।

मेरी रोटी भी बंधवा लेना

नहीं तो मैं तेरी खा जाउंगा।

गुड़िया बोली,

न न न न, दादाजी,

मैं अपनी रोटी न दूंगी,

आप अभी बहुत छोटे हैं,

थोड़े बड़े हो जाओ न।

अभी तो तुम

मेरे घोड़े ही बन जाओ न।

नया सूर्य उदित होगा ही

 

आजकल रोशनियां

डराने लगी हैं,

अंधेरे गहराने लगे हैं।

विपदाओं की कड़ी

लम्बी हो रही है।

इंसान से इंसान

डरने लगा है।

ख़ौफ़ भीतर तक

पसरने लगा है।

राहें पथरीली होने लगी हैं,

पहचान मिटने लगी है।

ज़िन्दगी

बेनाम दिखने लगी है।

 

पर कब चला है इस तरह जीवन।

कब तक चलेगा इस तरह जीवन।

 

जानते हैं हम,

बादल घिरते हैं

तो बरस कर छंटते भी हैं।

बिजली चमकती है

तो रोशनी भी देती है।

 

अंधेरों को

परखने का समय आ गया है।

ख़ौफ़ के साये को

तोड़ने का समय आ गया है।

जीवन बस डर से नहीं चलता,

आशाओं को फिर से

सहेजने का समय आ गया है।

नया सूर्य उदित होने को है,

हाथ बढ़ाओ ज़रा,

हाथ से हाथ मिलाओ ज़रा,

सबको अपना बनाने का

समय आ गया है।

नया सूर्य उदित होगा ही,

अपने लिए तो सब जीते हैं,

औरों के दुख को

अपना बनाने का समय आ गया है।

सब ठीक है

ये आकाश

आज छोटा कैसे हो गया।

तारों का झुरमुट

क्यों आज द्युतिहीन हो गया।

चंदा की चांदना

धूमिल-सी दिखती है,

सूरज आज कैसे

थका-थका-सा हो गया।

.

शायद सब ठीक है,

मेरा ही मन व्यथित है।

 

खुशियों की कोई उम्र नहीं होती

उम्र का तकाज़ा मत देना मुझे,

कि जी चुके अपनी ज़िन्दगी,

अब भगवान-भजन के दिन हैं।

 

जीते तो हैं हम,

पर वास्तव में

ज़िन्दगी शुरु कब होती है,

कहां समझ पाते हैं हम।

कर्म किये जा, कर्म किये जा,

बस कर्म किये जा।

जीवन के आनन्द, खुशियों को

एक झोले में समेटते रहते हैं,

जब समय मिलेगा

भोग लेंगे।

और किसी खूंटी पर टांग कर

अक्सर भूल जाते हैं।

और जब-जब झोले को

पलटना चाहते हैं,

पता लगता है,

खुशियों की भी

एक्सपायरी डेट होती है।

 

या फिर,

फिर कर्मों की सूची

और उम्र का तकाज़ा मिलता है।

 

पर खुशियों की कोई उम्र

 नहीं होती,

बस जीने का सलीका आना चाहिए।

 

मौत की दस्तक

कितनी

सरल-सहज लगती थी ज़िन्दगी।

खुली हवाओं में सांस लेते,

जैसी भी मिली है

जी रहे थे ज़िन्दगी।

कभी ठहरी-सी,

कभी मदमाती, हंसाती,

छूकर, मस्ती में बहती,

कभी रुलाती,

हवाओं संग

लहराती, गाती, मुस्काती।

.

पर इधर

सांसें थमने लगी हैं।

हवाओं की

कीमत लगने लगी है।

आज हवाओं ने

सांसों की कीमत बताई है।

जिन्दगी पर

पहरा बैठा दिया है हवाओं ने।

मौत की दस्तक सुनाने लगी हैं।

रुकती हैं सांसें, बिंधती हैं सांसें,

कीमत मांगती हैं सांसें।

अपनों की सांसें  चलाने के लिए

हवाओं से जूझ रहे हैं अपने।

.

शायद हम ही

बदलती हवाओं का रुख

पहचान नहीं पाये,

इसीलिए हवाएं

आज

हमारी परीक्षा ले रही हैं।

 

युग प्रदर्शन का है

मैं आज तक

समझ नहीं पाई

कि मोर शहर में

क्यों नहीं नाचते।

जंगल में नाचते हैं

जहां कोई देखता नहीं।

 

सुना है

मोरनी को लुभाने के लिए

नृत्य करते हो तुम।

बादल-वर्षा की आहट से

इंसान का मन-मयूर नाच उठता है,

तो तुम्हारी तो बात ही क्या।

तुम्हारी पायल से मुग्ध यह संसार

वन-वन ढूंढता है तुम्हें।

अद्भुत सौन्दर्य का रूप हो तुम।

रंगों की निराली छटा

मनमोहक रूप हो तुम।

पर कहां

जंगल में छिपे बैठे तुम।

कृष्ण अपने मुकुट में

पंख तुम्हारा सजाये बैठे हैं,

और तुम वहां वन में

अपना सौन्दर्य छिपाये बैठे हो।

 

युग प्रदर्शन का है,

दिखावे और चढ़ावे का है,

काक और उलूव

मंचों पर कूकते हैं यहां,

गर्धभ और सियार

शहरों में घूमते हैं यहां।

मांग बड़ी है।

एक बार तो आओ,

एक सिंहासन तुम्हें भी

दिलवा देंगे।

राष्ट््र पक्षी तो हो

दो-चार पद और दिलवा देंगे।

 

बस जूझना पड़ता है

मछलियां गहरे पानी में मिलती हैं

किसी मछुआरे से पूछना।

माणिक-मोती पाने के लिए भी

गहरे सागर में

उतरना पड़ता है,

किसी ज्ञानी से बूझना।

किश्तियां भी

मझधार में ही डूबती हैं

किसी नाविक से पूछना।

तल-अतल की गहराईयों में

छिपा है ज्ञान का अपरिमित भंडार,

किसी वेद-ध्यानी से पूछना।

पाताल लोक से

चंद्र-मणि पाने के लिए

कौन-सी राह जाती है,

किसी अध्यवसायी से पूछना।

.

उपलब्धियों को पाने के लिए

गहरे पानी में 

उतरना ही पड़ता है।

जूझना पड़ता है,

सागर की लहरों से,

सहना पड़ता है

मझधार के वेग को,

और आकाश से पाताल

तक का सफ़र तय करना पड़ता है।

और इन कोशिशों के बीच

जीवन में विष मिलेगा

या अमृत,

यह कोई नहीं जानता।

बस जूझना पड़ता है।

 

खामोशी बोलती है

शोर को चीरकर एक खामोशी बोलती है।

मन आहत, घुटता है, भावों को तोलती है।

चुप्पी में शब्दों की आहट गहरी होती है,

पकड़ सको तो मन के सारे घाव खोलती है।

आस जीवन की

रात गई, प्रात आई, लालिमा झिलमिल,

आते होंगे संगी-साथी, उड़ेंगे हिलमिल,

डाली पर फूल खिलेंगे, आस जीवन की,

तान छेड़ेंगे, राग नये गायेंगे, घुलमिल।

जीवन की यह भागम-भागी

सांझ है या सुबह की लाली, जीवन की यह भागम-भागी।

चलते जाना, कहां ठिकाना, कौन समझे कैसी पीर लागी।

रेतीली धरती पर पैर जमे हैं, रोज़ ठिकाना बदल रहा,

घन घिरते, अब बरसेंगे, कब बरसेंगे, चलते रहना रागी।

सब साथ चलें बात बने

भवन ढह गये, खंडहर देखो अभी भी खड़ा है।

लड़खड़ाते कदमों से कौन पर्वत तक चढ़ा है।

जीवन यूं चलता है, सब साथ चलें, बात बने,

कठिन समय सहायक बनें, इंसान वही बड़ा है।

समझाने की बात नहीं

आजकल न जाने क्यों

यूं ही 

आंख में पानी भर आता है।

कहीं कुछ रिसता है,

जो न दिखता है,

न मन टिकता है।

कहीं कुछ जैसे

छूटता जा रहा है पीछे कहीं।

कुछ दूरियों का एहसास,

कुछ शब्दों का अभाव।

न कोई चोट, न घाव।

जैसे मिट्टी दरकने लगी है।

नींव सरकने लगी है।

कहां कमी रह गई,

कहां नमी रह गई।

कई कुछ बदल गया।

सब अपना,

अब पराया-सा लगता है।

समझाने की बात नहीं,

जब भीतर ही भीतर

कुछ टूटता है,

जो न सिमटता है

न दिखता है,

बस यूं ही बिखरता है।

एक एहसास है

न शब्द हैं, न अर्थ, न ध्वनि।

बूंदे गिरतीं

बादल आये, वर्षा लाये।

बूंदे गिरतीं,

टप-टप-टप-टप।

बच्चे भागे ,

छप-छप-छप-छप।

मेंढक कूदे ,

ढप-ढप-ढप-ढप।

बकरी भागीकुत्ता भागा।

गाय बोली मुझे बचाओ

भीग गई मैं

छाता लाओ, छाता लाओ।

रोशनी की एक लकीर

राहें कितनी भी सूनी हों

अंधेरे कितने भी गहराते हों

वक्त के किसी कोने से

रोशनी की एक लकीर

कभी न कभी,

ज़रूर निकलती ही है।

फिर वह एक रेखा हो,

चांद का टुकड़ा

अथवा चमकता सूरज।

इसलिए कभी भी

निराश न होना

अपने जीवन के सूनेपन से

अथवा अंधेरों से

और साथ ही

ज़रूरत से ज़्यादा रोशनी से भी ।

लिखने के लिए

कविता लिखने के लिए

शब्दों की एक सीमा है

मेरे भीतर,

जो कट जाती है उस समय ,

जब मुझे कविता नहीं लिखनी होती

मरना बड़ा जरूरी है

जब-जब

जीने का प्रयास किया मैंने,

तब-तब

मुझे बता दिया गया,

कि ज़िन्दगी में

मरना बड़ा जरूरी है।

यह ज़रूरी नहीं कि

आप ज़िन्दगी में

एक ही बार मरें,

ज़िन्दा रहते हुए भी

बार-बार

मरने के अनेक रास्ते हैं ।

ज़िंदा रहते हुए भी 

मरना ही तो

असली मौत है ।

जिसे हम स्वयं भोगते हैं।

वह मौत क्या

जिसे और लोग भुगतें।

 

निर्दोष

तुमने,

मुझसे उम्मीदें की।

मैंने,

तुम्हारे लिए

उम्मीदों के बीज बोये।

फिर, उन पर

डाल दिया पानी।

अब,

बीज नहीं उगे,

तो, मेरा दोष कहां !

-

अपने-आपको परखना

कभी-कभी अच्छा लगता है,

अपने-आप से बतियाना,

अपने-आपको समझना-समझाना।

डांटना-फ़टकारना।

अपनी निगाहों से

अपने-आपको परखना।

अपने दिये गये उत्तर पर

प्रश्न तलाशना।

अपने आस-पास घूम रहे

प्रश्नों के उत्तर तलाशना।

मुर्झाए पौधों में

कलियों को तलाशना।

बिखरे कांच में

जानबूझकर अंगुली घुमाना।

उफ़नते दूध को

गैस पर गिरते देखना।

और

धार-धार बहते पानी को

एक अंगुली से

रोकने की कोशिश करना।

आस नहीं छोड़ी मैंने

प्रकृति के नियमों को

हम बदल नहीं सकते।

जीवन का आवागमन

तो जारी है।

मुझको जाना है,

नव-अंकुरण को आना है।

आस नहीं छोड़ी मैंने।

विश्वास नहीं छोड़ा मैंने।

धरा का आसरा लेकर,

आकाश ताकता हूं।

अपनी जड़ों को

फिर से आजमाता हूं।

अंकुरण तो होना ही है,

बनना और मिटना

नियम प्रकृति का,

मुझको भी जाना है।

न उदास हो,

नव-अंकुरण फूटेंगे,

यह क्रम जारी रहेगा,

 

कल किसने देखा है

इस सूनेपन में

मन बहक गया।

धुंधलेपन में

मन भटक गया।

छोटी-सी रोशनी

मन चहक गया।

गहन, बीहड़ वन में

मन अटक गया।

आकर्षित करती हैं,

लहकी-लहकी-सी डालियां

बुला रहीं,

चल आ झूम ले।

दुनियादारी भूल ले।

कल किसने देखा है

आजा,

आज जी भर घूम ले।

सांसों की गिनती कर पाते

सांसों की गिनती कर पाते तो कितना अच्छा होता।

इच्छाओं पर बांध बना पाते तो कितना अच्छा होता।

जीवन-भर यूं ही डूबते-तिरते समय निकला जाता है,

अपनी इच्छा से जीते-मरते, तो कितना अच्छा होता।

 

न होना

किसी का

न होना,

नहीं होता

इतना दुःखदायी,

जितना किसी के 

होते हुए भी,

न होने के

बराबर होना।

यह मेरा शिमला है

बस एक छोटी सी सूचना मात्र है

तुम्हारे लिए,

कि यह शहर

जहां तुम आये हो,

इंसानों का शहर है।

इसमें इतना चकित होने की

कौन बात है।

कि यह कैसा अद्भुत शहर है।

जहां अभी भी इंसान बसते हैं।

पर तुम्हारा चकित होना,

कहीं उचित भी लगता है ।

क्योंकि ,जिस शहर से तुम आये हो,

वहां सड़कों पर,

पत्थरों को चलते देखा है मैंने,

बातें गाड़ियां और मोटरें करती हैं हवा से।

हंसते और खिलखिलाते हैं

भोंपू और बाजे।

सिक्का रोटी बन गया है।

 पर यह शहर जहां तुम अब आये हो,

यहां अभी भी इंसान ही बसते हैं।

स्वागत है तुम्हारा।