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नदियों के अब नाम रह गये
नदियों के अब कहाँ धाम रह गये।
गंगा, यमुना हो या सरस्वती
बातों की ही बात रह गये।
कभी पूजा करते थे
नदी-नीर को
अब कहते हैं
गंदे नाले के ये धाम रह गये।
कृष्ण से जुड़ी कथाएँ
मन मोहती हैं
किन्तु जब देखें
यमुना का दूषित जल
तो मन में कहाँ वे भाव रह गये।
पहले मैली कर लेते
कचरा भर-भरकर,
फिर अरबों-खरबों की
साफ़-सफ़ाई पर करते
बात रह गये।
कहते-कहते दिल दुखता है
पर
सदानीरा अमृत-जल-नदियों के तो
अब बस नाम ही नाम रह गये।
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जीवन महकता है
जीवन महकता है
गुलाब-सा
जब मनमीत मिलता है
अपने ख्वाब-सा
रंग भरे
महकते फूल
जीवन में आस देते हैं
एक विश्वास देते हैं
अपनेपन का आभास देते हैं।
सूखेंगे कभी ज़रूर
सूखने देना।
पत्ती –पत्ती सहेजना
यादों की, वादों की
मधुर-मधुर भावों से
जीवन-भर यूं ही मन हेलना ।
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एकान्त के स्वर
मन के भाव रेखाओं में ढलते हैं।
कलश को नेह-नीर से भरते हैं।
रंगों में जीवन की गति रहती है,
एकान्त के स्वर गीत मधुर रचते हैं।
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अवसान एवं उदित
यह कैसा समय है,
अंधेरे उजालों को
डराने में लगे हैं,
अपने पंख फैलाने में लगे हैं।
दूर जा रही रोशनियां,
अंधेरे निकट आने में लगे हैं।
अक्सर मैंने पाया है,
अवसान एवं उदित में
ज़्यादा अन्तर नहीं होता।
दोनों ही तम-प्रकाश से
जूझते प्रतीत होते हैं मुझे।
एक रोशनी-रंगीनियां समेटकर
निकल लेता है,
किसी पथ पर,
किसी और को
रोशनी बांटने के लिए।
और दूसरा
बिखरी रोशनी-रंगीनियों को
एक धुरी में बांधकर
फिर बिखेरता है
धरा पर।
चलो, आज एक नई कोशिश करें,
दोनों में ही रंगीनियां-रोशनी ढूंढे।
अंधेरे सिमटने लगेंगें
रोशनियां बिखरने लगेंगी।
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चेहरा गुलाल हुआ
यादों में उनकी चेहरा गुलाल हुआ
मन की बात कही नहीं, मलाल हुआ
राग बेसुरे हो गये, साज़ बजे नहीं
प्यार करना ही जी का जंजाल हुआ
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चिराग जलायें बैठे हैं
घनघोर अंधेरे में
जुगनुओं को जूझते देखा।
गहरे सागर में
दीपक को राह ढूंढते
तिरते देखा।
गहन अंधेरी रातों में
चांद-तारे भी
भटकते देखे मैंने,
रातों की आहट से
सूरज को भी डूबते देखा।
और हमारी
हिम्मत देखो
चिराग जलायें बैठे हैं
चलो, राह दिखाएं तुमको।
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कोई तो आयेगा
भावनाओं का वेग
किसी त्वरित नदी की तरह
अविरल गति से
सीमाओं को तोड़ता
तीर से टकराता
कंकड़-पत्थर से जूझता
इक आस में
कोई तो आयेगा
थाम लेगा गति
सहज-सहज।
.
जीवन बीता जाता है
इसी प्रतीक्षा में
और कितनी प्रतीक्षा
और कितना धैर्य !!!!
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मुस्कानों की भाषा लिखूं
छलक-छलक-छलकती बूंदें,
मन में रस भरती बूंदें
लहर-लहर लहराता आंचल
मन हरषे जब घन बरसे
मुस्कानों की भाषा लिखूं
हवाओं संग उड़ान भरूं मैं
राग बजे और साज बजे
मन ही मन संगीत सजे
धारा संग बहती जाती
अपने में ही उड़ती जाती
कोई न रोके कोई न टोके
जीवन-भर ये हास सजे।
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पर उपदेश कुशल बहुतेरे
यह मुहावरा सुना तो बहुत बार था किन्तु कभी इसकी गुणवत्ता की ओर ध्यान ही नहीं गया। धन्यवाद इस मंच का जिसने इस मुहावरे की महत्ता एवं विशेषताओं पर चिन्तन करने का अवसर प्रदान किया।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे!!
वाह!!
इसका अर्थ यह है कि जो कुशल होगा वही तो पर को अर्थात अन्य को बहुत सारे उपदेश दे सकेगा। जो कुशल ही नहीं है वह किसी को क्या उपदेश देगा और क्या मार्ग-दर्शन करेगा।
हम जीवन में कोई भी कार्य करते हैं हमारी जवाबदेही तय होती है। घर-परिवार में, समाज में, नौकरी में, कार्यालय में, व्यवसाय में, सड़क पर चलते हुए, हर जगह, हर जगह। हानि-लाभ, अच्छा-बुरा, खरा-खोटा, उत्तर-प्रति-उत्तर, लिखित, मौखिक। हम बच नहीं पाते।
किन्तु उपदेश देने में किसी उत्तरदायित्व का वहन नहीं होता। आप उपदेश दीजिए, चाय-नाश्ता लीजिए और निकल लीजिए। किन्तु ध्यान रहे कि न तो अपने घर बुलाकर उपदेश दीजिए और न किसी उपवन-बात में। जिसे उपदेश देना हो सीधे उसके घर जाकर ही स्थापित रहिए। उपदेशात्मक संस्था खोल लीजिए, दान-दक्षिणा लीजिए, दिल खोलकर परामर्श दीजिए।
किन्तु बस पहले से ही बचने का उपाय बांधकर चलिए।
कुछ ऐसे ‘‘ देखिए मैं तो अपने मन से एक अच्छा परामर्श आपको दे रहा हूँ /दे रही हूँ, यह तो आप पर और परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि फ़लित हो। और आपकी मनोभावनाओं का भी इस पर प्रभाव रहेगा। बस कोई कमी नहीं रहनी चाहिए हमारे बताये उपाय में। ’’
और जब आपका बताया परामर्श फ़लित न हो तो आपके पास पहले से ही तैयार उत्तर होगा कि ‘‘देखिए मैंने तो पहले ही कहा था कि मन से कीजिएगा, अथवा आपने कोई न कोई विधि तो छोड़ दी होगी। ’’
और साथ ही कुछ अगली सलाहें परोस दीजिए।। और आप जब अपना समय दे रहे हैं, दिमाग़ दे रहे हैं तो कुछ न कुछ मूल्य तो लेंगे ही, चाहे अच्छा चाय-पानी ही।
किन्तु यह उपदेश मैं आप सब मित्रों को दे रही हूँ, मेरे अपने लिए नहीं है।
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मन चंचल करती तन्हाईयां
जीवन की धार में
कुछ चमकते पल हैं
कुछ झिलमिलाती रोशनियां
कुछ अवलम्ब हैं
तो कुछ
एकाकीपन की झलकियां
स्मृतियों को संजोये
मन लेता अंगड़ाईयां
मन को विह्वल करती
बहती हैं पुरवाईयां
कुछ ठिठके-ठिठके से पल हैं
कुछ मन चंचल करती तन्हाईयां
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भ्रष्टाचार पर चर्चा
जब हम भ्रष्टाचार की बात करते हैं और दूसरे की ओर अंगुली उठाते हैं तो चार अंगुलियाँ स्वयंमेव ही अपनी ओर उठती हैं जिन्हें हम स्वयं ही नहीं देखते। यह पुरानी कहावत है।
वास्तव में हम सब भ्रष्टाचारी हैं। बात बस इतनी है कि जिसकी जितनी औकात है उतना वह भ्रष्टाचार कर लेता है। किसी की औकात 100 रुपये की है तो किसी की 100 करोड़ की। किन्तु 100 रुपये वाला स्वयं को ईमानदार कहता है। हम मंहगाई की बात करते हैं किन्तु सुविधाभेागी हो गये हैं। बिना कष्ट उठाये धन से हर कार्य करवा लेना चाहते हैं। हमें दूसरे का भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार लगता है और अपना आवश्यकता, विवशता।
यदि हम अपनी ओर उठने वाली चार अंगुलियों के प्रश्न और उत्तर दे सकें तो शायद हम भ्रष्टाचार के विरूद्ध अपना योगदान दे सकते हैं:
पहली अंगुली मुझसे पूछती है: क्या मैं विश्वास से कह सकती हूँ कि मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूँ ।
दूसरी अंगुली कहती है: अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं तो क्या भ्रष्टाचार का विरोध करती हूँ ?
तीसरी अंगुली कहती है: कि अगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं हूं किन्तु भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करती तो मैं उनसे भी बड़े भ्रष्टाचारी हूँ ।
और अंत में चौथी अंगुली कहती है: अगर मैं भी भ्रष्टाचारी हूं तो सामने की अंगुली को भी अपनी ओर मोड़ लेना चाहिए और मुक्का बनाकर अपने पर वार करना चाहिए। दूसरों को दोष देने और सुधारने से पहले पहला कदम अपने प्रति उठाना होगा।