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छोटा-सा मन इच्छाएँ हज़ार
पग-पग पर रुकावटें हज़ार
ठोकरों से हम घबराए नहीं
नहीं बदलते राहें हम बार-बार
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कुहुक-कुहुक करती
चीं चीं चीं चीं करती दिन भर, चुपकर दाना पानी लाई हूं, ले खा
निकलेंगे तेरे भी पंख सुनहरे लम्बी कलगी, चल अब खोखर में जा
उड़ना सिखलाउंगी, झूमेंगे फिर डाली-डाली, नीड़ नया बनायेंगे
कुहुक-कुहुक करती, फुदक-फुदक घूमेगी, अब मेरी जान न खा
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चोट दिल पर लगती है
चोट दिल पर लगती है
आंसू आंख से बहते हैं
दर्द जिगर में होता है
बात चेहरा बोलता है
आघात कहीं पर होता है
घाव कहीं पर बनता है
जख्म शब्दों के होते हैं
बदला कलम ले लेती है
दूर रहना ज़रा मुझसे
चोट गहरी हो तो
प्रतिघात घातक होता है।
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तुम मेरी छाया हो
तुम मेरी छाया हो, प्रतिच्छाया हो
पर तुम्हें
अपने कदमों के निशान नहीं दे रहा हूं।
हर छपक-छपाक के साथ
मिट जाते हैं पिछले निशान
और नये बनते हैं
जो आप ही सिमट जाते हैं
जल की गहराईयों में।
इस छपाछप-छपाछप से देखो तो
बूंदें कैसे मोतियों-सी खिलती हैं।
फिर गगन, हवाओं और सागर के बीच
कहीं छूट जाती हैं,
सतरंगी आभा बिखेरकर
अन्तर्मन को छू जाती हैं।
यह जीवन का आनन्द है।
पर याद रखना
गगन की नीलाभा में
पवन के वेग में
और जल की लहरों पर
कभी कोई छाप नहीं छूटती।
इसके लिए कठोर तपती धरा पर
छोड़ने पड़ते हैं
अपने कदमों के निशान
जो सदियों-सदियों तक
ध्वनित होते हैं
गगन की उंचाईयों में
पवन के वेग में
और जल की लहरों में।
पर यह भी याद रखना
छपक-छपाक, छपाछप-छपाछप
जीवन का उतना ही हिस्सा है
जितना गगन, पवन और जल में
नाम अंकित कर सकना।
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विश्वास का एहसास
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
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अंदाज़ उनका
उलझा कर गया अंदाज़ उनका
बहका कर गया अंदाज़ उनका
अंधेरे में रोशनियाँ हैं चमक रही
पराया कर गया अंदाज़ उनका
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यह कैसी विडम्बना है
सुना है,
मानव
चांद तक हो आया।
वहां जल की
खोज कर लाया।
ताकती हूं
अक्सर, चांद की ओर
काश !
मेरा घर चांद पर होता
तो मानव
इस रेगिस्तान में भी
जल की खोज कर लेता।
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कृष्ण की पुकार
न कर वन्दन मेंरा
न कर चन्दन मेरा
अपने भीतर खोज
देख क्रंदन मेरा।
हर युग में
हर मानव के भीतर जन्मा हूं।
न महाभारत रचा
न गीता पढ़ी मैंने
सब तेरे ही भीतर हैं
तू ही रचता है।
ग्वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया
तेरी अभिलाषाएं
नाम मेरे मढ़ता है।
बस राह दिखाई थी मैंने
न आयुध बांटे
न चक्रव्यूह रचे मैंने
लाक्षाग्रह, चीर-वीर,
भीष्म-प्रतिज्ञाएं
सब तू ही करता है
और अपराध छुपाने को अपना
नाम मेरा रटता है।
पर इस धोखे में मत रहना
तेरी यह चतुराई
कभी तुझे बचा पायेगी।
कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है
देख ज़रा जाकर
तू भी वहीं कहीं पड़ा है।
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ईश्वर के रूप में चिकित्सक
कहते हैं
जीवन में निरोगी काया से
बड़ा कोई सुख नहीं
और रोग से बड़ा
कोई दुख नहीं।
जीवन का भी तो
कोई भरोसा नहीं
आज है कल नहीं।
किन्तु
जब जीवन है
तब रोग और मौत
दोनों के ही दुख से
कहाँ बच पाया है कोई।
किन्तु
कहते हैं
ईश्वर के रूप में
चिकित्सक आते हैं
भाग्य-लेख तो वे भी
नहीं मिटा पाते हैं
किन्तु
अपने जीवन को
दांव पर लगाकर
हमें जीने की आस,
एक विश्वास
और साहस का
डोज़ दे जाते हैं
और हम
यूँ ही मुस्कुरा जाते हैं।
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स्मृतियों के खण्डहर
कुछ
अनचाही स्मृतियाँ
कब खंडहर बन जाती हैं
पता ही नहीं लग पाता
और हम
उन्हीं खंडहरों पर
साल-दर-साल
लीपा-पोती
करते रहते हैं
अन्दर-ही-अन्दर
दीमक पालते रहते हैं
देखने में लगती हैं
ऊँची मीनारें
किन्तु एक हाथ से
ढह जाती हैं।
प्रसन्न रहते हैं हम
इन खंडहरों के बारे में
बात करते हुए
सुनहरे अतीत के साक्षी
और इस अतीत को लेकर
हम इतने
भ्रमित रहते हैं
कि वर्तमान की
रोशनियों को
नकार बैठते हैं।
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छटा निखर कर आई
शीत ऋतृ ने पंख समेटे धूप निखरकर आई
तितली ने मकरन्द चुना,फूलों ने ली अंगड़ाई
बासन्ती चूनर ओढ़े उपवन ने देखो रंग बदले,
पल्लव निखरे,पुष्प खिले,छटा निखर कर आई