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कभी दुख हो तो बस साथ देना
दया मत दिखलाना बस हाथ देना
पीड़ा बढ़ जाती है जब दूरियाँ हों
आँसू मत बहाना बस विश्वास देना
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सागर की गहराईयों सा मन
सागर की गहराईयों सा मन।
सागर के सीने में
अनगिन मणि-रत्नम्
कौन ढूंढ पाया है आज तलक।
.
मन में रहते भाव-संगम
उलझे-उलझे, बिखरे-बिखरे,
कौन समझ पाया है
आज तलक।
.
लहरें आती हैं जाती हैं,
हिचकोले लेती नाव।
जग-जगत् में
मन भागम-भाग किया करता है,
कहां मिलता आराम।
.
खुले नयनों पर वश है अपना,
देखें या न देखें।
पर बन्द नयन
न जाने क्या-क्या दिखला जाते हैं,
अनजाने-अनचाहे भाव सुना जाते हैं,
जिनसे बचना चाहें,
वे सब रूप दिखा जाते हैं।
अगला-पिछला, अच्छा-बुरा
सब हाल बता जाते हैं,
अनचाहे मोड़ों पर खड़ा कर
कभी हंसी देकर,
तो कभी रूलाकर चले जाते हैं।
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मुझको मेरी नज़रों से परखो
मन विचलित होता है।
मन आतंकित होता है।
भूख मरती है।
दीवारें रिसती हैं।
न भावुक होता है।
न रोता है।
आग जलती भी है।
आग बुझती भी है।
कब तक दर्शाओगे
मुझको ऐसे।
कब तक बहाओगे
घड़ियाली आंसू।
बेचारी, अबला, निरीह
कहकर
कब तक मुझ पर
दया दिखलाओगे।
मां मां मां मां कहकर
कब तक
झूठे भाव जताओगे।
बदल गई है दुनिया सारी,
बदल गये हो तुम।
प्यार, नेह, त्याग का अर्थ
पिछड़ापन,
थोथी भावुकता नहीं होता।
यथार्थ, की पटरी पर
चाहे मिले कुछ कटुता,
या फिर कुछ अनचाहापन,
मुझको, मेरी नज़रों से देखो,
मुझको मेरी नज़रों से परखो,
तुम बदले हो
मुझको भी बदली नज़रों से देखो।
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भीड़-तन्त्र
आज दो किस्से हुए।
एक भीड़-तन्त्र स्वतन्त्र हुआ।
मीनारों पर चढ़ा आदमी
आज मस्त हुआ।
28 वर्ष में घुटनों पर चलता बच्चा
युवा हो जाता है,
अपने निर्णय आप लेने वाला।
लेकिन उस भीड़-तन्त्र को
कैसे समझें हम
जो 28 वर्ष पहले दोषी करार दी गई थी।
और आज पता लगा
कितनी निर्दोष थी वह।
हम हतप्रभ से
अभी समझने की कोशिश कर ही रहे थे,
कि ज्ञात हुआ
किसी खेत में
एक मीनार और तोड़ दी
किसी भीड़-तन्त्र ने।
जो एक लाश बनकर लौटी
और आधी रात को जला दी गई।
किसी और भीड़-तन्त्र से बचने के लिए।
28 वर्ष और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
यह जानने के लिए
कि अपराधी कौन था,
भीड़-तन्त्र तो आते-जाते रहते हैं,
परिणाम कहां दे पाते हैं।
दूध की तरह उफ़नते हैं ,
और बह जाते हैं।
लेकिन कभी-कभी
रौंद भी दिये जाते हैं।
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मैंने चिड़िया से पूछा
मैंने चिड़िया से पूछा
क्यों यूं ही दिन भर
चहक-चहक जाती हो
कुट-कुट, किट-किट करती
दिन-भर शोर मचाती हो ।
पलटकर बोली
तुमको क्या ?
मैंने कभी पूछा तुमसे
दिन भर
तुम क्या करती रहती हो।
कभी इधर-उधर
कभी उधर-इधर
कभी ये दे-दे
कभी वो ले ले
कभी इसकी, कभी उसकी
ये सब क्यों करती रहती हो।
-
कभी मैं बोली सूरज से
कहां तुम्हारी धूप
क्यों चंदा नहीं आये आज
कभी मांगा चंदा से किसी
रोशनी का हिसाब
कहां गये टिम-टिम करते तारे
कभी पूछा मैंने पेड़ों से
पत्ते क्यों झर रहे
फूल क्यों न खिले।
कभी बोली फूलों से मैं
कहां गये वो फूल रंगीले
क्यों नहीं खिल रहे आज।
क्यों सूखी हरियाली
बादल क्यों बरसे
बिजली क्यों कड़की
कभी पूछा मैंने तुमसे
मेरा घर क्यों उजड़ा
न डाल रही, न रहा घरौंदा
कभी की शिकायत मैंने
कहाँ सोयेंगे मेरे बच्चे
कहाँ से लाऊँगी मैं दाना-पानी।
मैं खुश हूँ
तुम भी खुश रहना सीखो
मेरे जैसे बनना सीखो
इधर-उधर टाँग अड़ाना बन्द करो
अपने मतलब से मतलब रख आनन्द करो।
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शायद प्यार से मन मिला नहीं था
यूं तो उनसे कोई गिला नहीं था
यादों का कोई सिला नहीं था
कभी-कभी मिल लेते थे यूं ही
शायद प्यार से मन मिला नहीं था
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जब मन में कांटे उगते हैं
हमारी आदतें भी अजीब सी हैं
बस एक बार तय कर लेते हैं
तो कर लेते हैं।
नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।
वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं
किन्तु इस समय मेरी दृष्टि
इन कांटों पर है।
फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य
की तो हम बहुत चर्चा करते हैं
किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है
तो उन्हें बस फूलों के
परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।
पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं
अथवा कांटों के संग फूल।
लेकिन बात दाेनों की अक्सर
साथ साथ होती है।
बस इतना ही याद रखते हैं हम
कि कांटों से चुभन होती है।
हां, होती है कांटों से चुभन।
लेकिन कांटा भी तो
कांटे से ही निकलता है।
आैर कभी छीलकर देखा है कांटे को
भीतर से होता है रसपूर्ण।
यह कांटे की प्रवृत्ति है
कि बाहर से तीक्ष्ण है,
पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।
संजोकर देखना इन्हें,
जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।
और
जब मन में कांटे उगते हैं
तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।
जीवन रस
सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।
कोई जान न पाये इसे
इसलिए कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत
हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं
और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।
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वहीं के वहीं खड़े हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं
कदम ठहरे से
भाव सहमे से
प्रश्न झुंझलाते से
उत्तर नाकाम।
न लहरों में
लहरें
न हवाओं में
सिरहन
न बातों में
मिठास
न अपनों से
अपनापन
भावहीन-सा मन
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये
एक अर्थहीन
ठहराव में जी रहे हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं।
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कांटों की चुभन
बात पुरानी हो गई जब कांटों से हमें मुहब्बत न थी
एक कहानी हो गई जब फूलों की हमें चाहत तो थी
काल के साथ फूल खिल-खिल बिखर गये बदरंग
कांटों की चुभन आज भी हमारे दिल में बसी क्यों थी
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तीर खोज रही मैं
गहरे सागर के अंतस में
तीर खोज रही मैं।
ठहरा-ठहरा-सा सागर है,
ठिठका-ठिठका-सा जल।
कुछ परछाईयां झलक रहीं,
नीरवता में डूबा हर पल।
-
चकित हूं मैं,
कैसे द्युतिमान जल है,
लहरें आलोकित हो रहीं,
तुम संग हो मेरे
क्या यह तुम्हारा अक्स है?
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कितना मुश्किल होता है
कितना मुश्किल होता है
जब रोटी गोल न पकती है
दूध उफ़नकर बहता है
सब बिखरा-बिखरा रहता है।
तब बच्चा दिनभर रोता है
न खाता है न सोता है
मन उखड़ा-उखडा़ रहता है।
कितना मुश्किल होता है
जब पैसा पास न होता है
रोज़ नये तकाज़े सुनता
मन सहमा-सहमा रहता है।
तब आंखों में रातें कटती हैं
पल-भर काम न होता है
मन हारा-हारा रहता है।
कितना मुश्किल होता है,
जब वादा मिलने का करते हैं
पर कह देते हैं भूल गये,
मन तनहा-तनहा रहता है।
तब तपता है सावन में जेठ,
आंखों में सागर लहराता है
मन भीगा-भीगा रहता है ।
कितना मुश्किल होता है
जब बिजली गुल हो जाती है
रात अंधेरी घबराती है
मन डरा-डरा-सा रहता है।
तब तारे टिमटिम करते हैं
चांदी-सी रात चमकती है
मन हरषा-हरषा रहता है।