हां हुआ था भारत आज़ाद

कभी लगा ही नहीं

कि हमें आज़ाद हुए इतने वर्ष हो गये।

लगता है अभी कल ही की तो बात है।

हमारे हाथों में सौंप गये थे

एक आज़ाद भारत

कुछ आज़ादी के दीवाने, परवाने।

फ़ांसी चढ़े, शहीद हुए।

और न जाने क्या क्या सहन किया था

उन लोगों ने जो हम जानते ही नहीं।

जानते हैं तो बस एक आधा अधूरा सच

जो हमने पढ़ा है पुस्तकों में।

और ये सब भी याद आता है हमें

बस साल के गिने चुने चार दिन।

हां हुआ था भारत आज़ाद।

कुछ लोगों की दीवानगी, बलिदान और हिम्मत से।

 

और हम ! क्या कर रहे हैं हम ?

कैसे सहेज रहे हैं आज़ादी के इस उपहार को।

हम जानते ही नहीं

कि मिली हुई आजादी का अर्थ क्या होता है।

कैसे सम्हाला, सहेजा जाता है इसे।

दुश्मन आज भी हैं देश के

जिन्हें मारने की बजाय

पाल पोस रहे हैं हम उन्हें अपने ही भीतर।

झूठ, अन्नाय के विरूद्ध

एक छोटी सी आवाज़ उठाने से तो डरते हैं हम।

और आज़ादी के दीवानों की बात करते हैं।

बड़ी बात यह

कि आज देश के दुश्मनों के विरूद्ध खड़े होने के लिए

हमें पहले अपने विरूद्ध हथियार उठाने पड़ेंगे।

शायद इसलिए

अधिकार नहीं है हमें

शहीदों को नमन का

नहीं है अधिकार हमें तिरंगे को सलामी का

नहीं है अधिकार

किसी और पर उंगली उठाने का।

पहले अपने आप को तो पहचान लें

देश के दुश्मनों को अपने भीतर तो मार लें

फिर साथ साथ चलेंगे

न्याय, सत्य, त्याग की राह पर

शहीदों को नमन करेंगे

और तिरंगा फहरायेंगे अपनी धरती पर

और अपने भीतर।

 

 

 

एकान्त की ध्वनि

एकान्त काटता है,

एकान्त कचोटता है

किन्तु अपने भीतर के

एकान्त की ध्वनि

बहुत मुखर होती है।

बहुत कुछ बोलती है।

जब सन्नाटा टूटता है

तब कई भेद खोलती है।

भीतर ही भीतर

अपने आप को तलाशती है।

किन्तु हम

अपने आपसे ही डरे हुए

दीवार पार की आवाज़ें तो सुनते हैं

किन्तु अपने भीतर की आवाज़ों को

नकारते हैं

इसीलिए जीवन भर

हारते है।

 

समझाती हैं ये सीढ़ियां

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

जीवन में

कुछ गहराते अंधेरे होते हैं

और कुछ होती हैं रोशनियां

हिम्मत करें

तो अंधेरे को बेधकर

रोशनी का मार्ग

दिखाती हैं ये सीढ़ियां

जो बीत गया

सो बीत गया

पीछे मुड़कर क्या देखना

आगे की राह

दिखाती हैं ये सीढि़यां

 

आज़ादी की कीमत

कौन थे वे लोग !

गोलियों से जूझते, फांसी पर झूलते

अंग्रज़ों को ललकारते, भूख प्यास नकारते

देश के लिए जन जन जागते

बस एक सपना लेकर स्वतन्त्र भारत का।

 

हम कहानियों में पढ़ते हैं, इतिहास में रटते हैं

और उकताकर जल्दी ही भूल जाते हैं।

उनका जुनून, उनका त्याग, और उनका बलिदान।

उनका संघर्ष

हमारी समझ में नहीं आता।

 

नहीं समझ पाते कि

आ़ज़ादी मिलती नहीं

लेनी पड़ती है

अपने प्राण देकर।

 

बस कुछ दिन और कुछ तारीखें

याद कर ली हैं हमने।

झंडे उठा लेते हैं, नारे लगा लेते हैं

प्रभात फेरियां निकालते हैं

फूल मालाएं चढ़ाते हैं

और देश भक्ति के कुछ पुराने गीत गा लेते हैं।

श्रद्धांजलि के नाम पर नौटंकी कर जाते हैं।

फिर छुट्टी मनाते हैं।

 

मौका मिलते ही भ्रष्टाचार को कोसते हैं

नेताओं के नाम पर रोते हैं

झूठ, पाखण्ड , धोखे के साथ जीते हैं

सत्य को नकारते हैं, दूसरों को कोसते हैं

आज़ादी को रोते हैं

लेकिन जब कर्त्तव्य निर्वाह की बात आती है

तो मुंह ढककर सो जाते हैं।

फिर कहते हैं

किस काम की ऐसी आज़ादी

इससे तो अंग्रेज़ों का समय ही अच्छा था।

 

काश ! हम समझ पाते

घर बैठे मिली आज़ादी के पीछे

कितनी खून की नदियां बही हैं।

सैंकड़ों वर्षों के संघर्ष का अभिमान है ये।

देश के गौरव की रक्षा के लिए

तन मन धन के बलिदान की

एक लम्बी गाथा है ये।

सत्य, निष्ठा और प्रेम की परिभाषा है ये।

सहेजना है हमें इसे।

और यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी

उन वीरों के प्रति

जो जीवन से पहले ही मृत्यु को चुनकर चले गये

हमारे आज के लिए।

 

 

 

क्या था मेरा सपना

हा हा !!

वे सपने ही क्या

जो पूरे हो जायें।

कुछ सपने हम

जागते में देखते हैं

और कुछ सोते हुए।

जागते हुए देखे सपने

सुबह-शाम

अपना रूप बदलते रहते हैं

और हम उलझ कर रह जाते हैं

क्या यही था मेरा सपना 

और जब तक उस राह पर

बढ़ने लगते हैं

सपना फिर बदल जाता है।

सोचती हूं

इससे तो

न ही देखा होता सपना।

सच्चाई की कंकरीट पर

चल लेती चाहे नंगे पांव ही]

पर बार-बार

सपने बदलने की

तकलीफ़ से तो न गुज़रना पड़ता।

 

और सोते हुए देखे सपने !!

यूं ही आधे-अधूरे होते हैं

कभी नींद टूटती है,

कभी प्यास लगती है,

कभी डरकर उठ बैठते हैं,

फिर टुकड़ों में आती है नींद

और अपने साथ

सपनों के भी टुकड़े

करने लगती है,

दिन बिखर जाता है

उन अधूरे सपनों को जोड़ने की

नाकाम कोशिश में।

 

 

जूझना पड़ता है अकेलेपन से

कभी-कभी दूरियां

रिश्तों को पास ले आती है

उलझे रिश्तों को सुलझाती हैं

राहें बदलकर जीवन में

आस ले आती हैं

कभी तो चलें साथ-साथ

और कभी-कभी 

चुनकर चलें दो राहें,

जीवन आसान कर जाती हैं।

जीवन सदैव

सहारों से नहीं चलता

ये सीख दे जाती हैं

कदम-दर-कदम

जूझना पड़ता है

अकेलेपन से,

ढूंढनी पड़ती हैं

आप ही जीवन की राहें

अंधेरों और उजालों में

पहचान हो पाती है,

कठोर धरातल पर तब

ज़िन्दगी आसान हो जाती है।

फिर मुड़कर देखना एक बार

छूटे हाथ फिर जुड़ते हैं

और ज़िन्दगी

सहज-सहज हो जाती है।

 

 

उम्र का एक पल: और पूरी ज़िन्दगी

पता ही नहीं लगा

उम्र कैसे बीत गई

अरे !

पैंसठ की हो गई मैं।

अच्छा !!

कैसे बीत गये ये पैंसठ वर्ष,

मानों कल की ही घटना हो।

-

स्मृतियों की

छोटी-सी गठरी है

जानती हूं

यदि खोलूंगी, खंगालूंगी

इस तरह बिखरेगी

कि समझने-समेटने में

अगले पैंसठ वर्ष लग जायेंगे।

और यह भी नहीं जानती

हाथ आयेगी रिक्तता

या कोई रस।

-

और कभी-कभी

ऐसा क्यों होता है

कि उम्र का एक पल

पूरी ज़िन्दगी पर

भारी हो जाता है

और हम

दिन, महीने, साल,

गिनते रह जाते हैं

लगता है मानों

शताब्दियां बीत गईं

और हम

अपने-आपको वहीं खड़ा पाते हैं।

 

जीवन-दर्शन

चांद-सूरज की रोशनी जीवन की राह दिखाती है।

रात-दिन में बंटे, जीवन का आवागमन समझाती है।

दोनों ही सामना करते हैं अंधेरों और रोशनी का,

यूं ही हमें जीवन-दर्शन समझा-समझा जाती है।

कण-कण नेह से भीगे

रंगों की रंगीनीयों से मन भरमाया।

अप्रतिम सौन्दर्य निरख मन हर्षाया।

घटाओं से देखो रोशनी है झांकती,

कण-कण नेह से भीगे, आनन्द छाया।

समय जब कटता नहीं

काम है नहीं कोई

इसलिए इधर की उधर

उधर की इधर

करने में लगे हैं हम आजकल ।

अपना नहीं,

औरों का चरित्र निहारने में

लगे हैं आजकल।

पांव धरा पर टिकते नहीं

आकाश को छूने की चाहत

करने लगे हैं हम आजकल।

समय जब कटता नहीं

हर किसी की बखिया उधेड़ने में
लगे रहते हैं हम आजकल।

और कुछ न हो तो

नई पीढ़ी को कोसने में

लगे हैं हम आजकल।

सुनाई देता नहीं, दिखाई देता नहीं

आवाज़ लड़खड़ाती है,

पर सारी दुनिया को

राह दिखाने में लगे हैं हम आजकल।

 

कांगड़ी बोली में छन्दमुक्त कविता

चल मनां अज्ज सिमले चलिए,

पहाड़ां दी रौनक निरखिए।

बसा‘च जाणा कि

छुक-छुक गड्डी करनी।

टेडे-फेटे मोड़़ा‘च न डरयां,

सिर खिड़किया ते बा‘र न कड्यां,

चल मनां अज्ज सिमले चलिए।

-

माल रोडे दे चक्कर कटणे

मुंडु-कुड़ियां सारे दिखणे।

भेडुआं साई फुदकदियां छोरियां,

चुक्की लैंदियां मणा दियां बोरियां।

बालज़ीस दा डोसा खादा

जे न खादे हिमानी दे छोले-भटूरे

तां सिमले दी सैर मनदे अधूरे।

रिज मदानां गांधी दा बुत

लकड़ियां दे बैंचां पर बैठी

खांदे मुंगफली खूब।

गोल चक्कर बणी गया हुण

गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।

लक्कड़ बजारा जाणा जरूर

लकड़िया दी सोटी लैणी हजूर।

जाखू जांगें तां लई जाणी सोटी,

चड़दे-चड़दे गोडे भजदे,

बणदी सा‘रा कन्ने

बांदरां जो नठाणे‘, कम्मे औंदी।

स्कैंडल पाईंट पर खड़े लालाजी

बोलदे इक ने इक चला जी।

मौसम कोई बी होये जी

करना नीं कदी परोसा जी।

सुएटर-छतरी लई ने चलना

नईं ता सीत लई ने हटणा।

यादां बड़ियां मेरे बाॅल

पर बोलदे लिखणा 26 लाईनां‘च हाल।

 

 

हिन्दी अनुवाद

चल मन आज शिमला चलें,

पहाडों की रौनक देखें।

बस में जाना या

छुक-छुक गाड़ी करनी।

टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से न डरना

सिर खिड़की से बाहर न निकालना

चल मन आज शिमला चलें।

 

माल रोड के चक्कर काटने

लड़के-लड़कियां सब देखने

भेड़ों की तरह फुदकती हैं लड़कियां

उठा लेती हैं मनों की बोरियां।

बालज़ीस का डोसा खाया

और यदि न खाये हिमानी के भटूरे

तो शिमले की सैर मानेंगे अधूरे।

रिज मैदान पर गांधी का बुत।

लकड़ियों के बैंचों पर बैठकर

खाई मूंगफ़ली खूब।

गोल चक्कर बन गया अब

गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।

लक्कड़ बाज़ार जाना ज़रूर।

लकड़ी की लाठी लेना  हज़ूर।

जाखू जायेंगे तो ले जाना लाठी,

चढ़ते-चढ़ते घुटने टूटते

साथ बनती है सहारा,

बंदरों को भगाने में आती काम।

स्कैंडल प्वाईंट पर खड़े लालाजी

कहते हैं एक के साथ एक चलो जी।

मौसम कोई भी हो

करना नहीं कभी भरोसा,

स्वैटर-छाता लेकर चलना,

नहीं तो शीत लेकर हटना।

यादें बहुत हैं मेरे पास

पर कहते हैं 26 पंक्तियों में लिखना है हाल।

 

 

 

 

 

अंधेरों से जूझता है मन

गगन की आस हो या चांद की,

धरा की नज़दीकियां छूटती नहीं।

मन उड़ता पखेरु-सा,

डालियों पर झूमता,

संजोता ख्वाब कोई।

अंधेरों से जूझता है मन,

संजोता है रोशनियां,

दूरियां कभी सिमटती नहीं,

आस कभी मिटती नहीं।

चांद है या ख्वाब कोई।

रोशनी है आस कोई।

 

कभी धरा कभी गगन को छू लें

चल री सखी

आज झूला झूलें,

कभी धरा

तो कभी

गगन को छू लें,

डोर हमारी अपने हाथ

जहां चाहे

वहां घूमें।

चिन्ताएं छूटीं

बाधाएं टूटीं

सखियों संग

हिल-मिल मन की

बातें हो लीं,

कुछ गीत रचें

कुछ नवगीत रचें,

मन के सब मेले खेंलें

अपने मन की खुशियां लें लें।

नव-श्रृंगार करें

मन से सज-संवर लें

कुछ हंसी-ठिठोली

कुछ रूसवाई

कभी मनवाई हो ली।

मेंहदी के रंग रचें

फूलों के संग चलें

कभी बरसे हैं घन

कभी तरसे है मन

आशाओं के दीप जलें

हर दिन यूं ही महक रहे

हर दिन यूं ही चहक रहे।

चल री सखी

आज झूला झूलें

कभी धरा

तो कभी

गगन को छू लें।

किससे क्या कहें हम

लाशों पर शहर नहीं बसते

बाले-बरछियों से घर नहीं बनते

फ़सलों में पानी की ही तरावट चाहिए

रक्त से बीज नहीं पनपते।

कब कौन किसको समझाये यह

हमें तो यह भी नहीं पता

कि कौन शत्रु

और कौन मित्र बनकर लड़ते।

जिनसे आज करते हैं मैत्री समझौता

वे ही कल शत्रु बन बरसते।

अस्त्रों-शस्त्रों से घरों की सजावट नहीं होती

और दूसरों के कंधों पर दुनिया नही चलती।

छाता लेकर निकले हम

छाता लेकर निकले हम

देखें बारिश में

कितना है दम।

भीगने से

न जाने क्यों

लोगों का निकलता है दम।

छाता कर देंगे बंद

जमकर भीगेंगे हम।

जब लग जायेगी ठण्डी

तब लौटेंगे घर को हम

मोटी मोटी डांट पड़ेगी

फिर हलवा-पूरी,

 चाट पकौड़ी जी भर

खायेंगे हम।

 

समय के साथ

हवा आती है

और बन्द खिड़कियों से टकराकर

लौट जाती है।

हमें अब

खिड़कियां खोलने की

आदत नहीं रही।

ताज़ी हवा

और पहली बरसात से हमें

सर्दी लग जाती है।

मिट्टी से सौंधी-सौंधी गंध आने पर

हम नाक पर

रुमाल रख लेते हैं

और चढ़ते सूरज की धूप से

लूह लग जाने का

डर लगता है।

फिर खिड़कियां खोल देने पर

हो सकता है

ताज़ी हवा के साथ

कुछ मिट्टी, कुछ कंकड़

कुछ नया-पुराना, कुछ अच्छा-बुरा

भी चला आये।

अब हवा में ये सब

ज़्यादा हो गये हैं

और इन सबको

सहने की हमारी आदत कम।

हम आदी हो गये हैं

पंखे की हवा, बिजली की रोशनी 

और फ्रिज के पानी के अपने-आप में बंद।

हवा की छुअन से

नहीं महसूस होती अब

वह मीठी-सी सिहरन

जो मन में उमंग जगाती थी

और अन्तर्मन के तारों को

कोई मीठा गीत गाने के लिए

झंकृत कर जाती थी।

हवा ने भी हमारी ही तरह

बच-बचकर निकलना सीख लिया है

न इस पर किसी का कोई रंग चढ़ता है

और न इसका रंग किसी पर चढ़ता है।

और कौन जीता है

कौन मरता है

किसी को क्या फ़र्क पड़ता है।

हमें भी अब

मौसम के अनुसार जीने की आदत नहीं रही।

इसलिए हमने

हवा को बाहर कर दिया हे

और अपने-आपको

कमरे में बन्द।

हवा के बदलते रुख पर

चर्चा करने के लिए

हमने अपने कमरों को

वातानुकूलित कर लिया है

सावन-भादों, ज्येष्ठ-पौष

सब वातानुकूलित होकर

हमारे कमरों में बन्द हो गये हैं

और हम

अपने-आपमें।

 

अपनी-अपनी कोशिश

हमने जब भी

उठकर

खड़े होने की कोशिश की

तुमने हमें

मिट्टी मे मिला देना चाहा।

लेकिन

तुम यह बात भूल गये

कि मिट्टी में मिल जाने पर ही

एक छोटा-सा बीज

विशाल वृक्ष का रूप

धारण कर लेता है।

 

प्रतिष्ठा

उस अधिकार को पाने के लिए

जो तुम्हारा नहीं है;

दूसरे का अधिकार छीनने के लिए

जो तुम्हारे वश में नहीं है

बोलते रहा, बोलते रहो।

बोलत-बोलते

जब ज़बान थक जाये

तो गाली देना शुरु कर दो।

गाली देते-देते

जब हिम्मत चुक जाये

तब हाथापाई पर उतर आओ।

और जब लगे

कि हाथापाई में

सामने वाला भारी पड़ गया है

तो दो कदम पीछे हटकर

हाथ झाड़ लो -

- लो छोड़ दिया मैंने तुम्हें

- आओ, समझौता कर लें

फिर समझौते की शतें

उसके सिर पर लाद दो।

 

तीन शब्द

ज़िन्दगियां

कुछ शब्दों में बंधकर

रह जाती हैं,

बंधक बन जाती हैं,

फिर वे तीन हो

या तेरह

कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

बात कानून की नहीं

मन की है, और शायद सोच की।

कानून

कहां-कहां, किस-किसके

घर जायेगा

देखने के लिए

कि कुछ और शब्दों से

या फिर बिना शब्दों के भी

आहत होती हैं, घातक होती हैं।

परदे

आज भी पड़े हैं

चेहरों पर, सोच पर, नज़र पर

कब उतरेंगे, कैसे उतरेंगे

कितनी सदियां लग जाती हैं,

केवल एक भाव बदलने के लिए।

और जब तक वह बदलता है

टूटता है,

कुछ नया जुड़ जाता है

और हमें फिर खड़ा होना पड़ता है

एक नई लड़ाई के लिए

सदियों-सदियों तक।

 

बहती धारा

दूर कहीं

अनजान नगर से

बहती धारा आती है

कब छलकी, कहां चली

नहीं हमें बताती है

पथ दुर्गम, राहें अनजानी

पथरीली राहों पर

कहीं रूकती

कहीं लहर-लहर लहराती है।

झुक-झुक कर देख रहे तरू

रूक-रूक कर कहां जाती है

कभी सूखी कभी नम धरा से

मानों पूछ रहे

कभी रौद्र रूप दिखलाती

लुप्‍त कभी क्‍यों हो जाती है।

 

 

अनछुए शब्द

 कुछ भाव

चेहरों पर लिखे जाते हैं

और कुछ को शब्द दिये जाते हैं

शब्द कभी अनछुए

एहसास दे जाते हैं ,

कभी बस

शब्द बनकर रह जाते हैं।

किन्तु चेहरे चाहकर भी

झूठ नहीं बोल पाते।

चेहरों पर लिखे भाव

कभी कभी

एक पूरा इतिहास रच डालते हैं।

और यही

भावों का स्पर्श

जीवन में इन्द्र्धनुषी रंग भर देता है।

 

मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है

बड़ी देर से निहार रही हूं

इस चित्र को]

और सोच रही हूं

क्या ये सास-बहू हैं

टैग ढूंढ रही हूं

कहां लिखा है

कि ये सास-बहू हैं।

क्यों सबको

सास-बहू ही दिखाई दे रही हैं।

मां-बेटी क्यों नहीं हो सकती

या दादी-पोती।

 

नाराज़ दादी अपनी पोती से

करती है इसरार

मैं भी चलूंगी साथ तेरे

मुझको भी ऐसा पहनावा ला दे

बहुत कर लिया चैका-बर्तन

मुझको भी माॅडल बनना है।

बूढ़ी हुई तो क्या

पढ़ा था मैंने अखबारों में

हर उमर में अब फैशन चलता है]

ले ले मुझसे चाबी-चैका]

मुझको

विश्व-सुन्दरी का फ़ारम भरना है।

चलना है तो चल साथ मेरे

तुझको भी सिखला दूंगी

कैसे करते कैट-वाक,

कैसे साड़ी में भी सब फबता है

दिखलाती हूं तुझको,

सिखलाती हूं तुझको

इन बालों का कैसे जूड़ा बनता है।

चल साथ मेरे

मुझको विश्व-सुन्दरी बनना है।

दे देना दो लाईक

और देना मुझको वोट

प्रथम आने का जुगाड़ करना है,

अब तो मुझको ही विश्व-सुन्दरी बनना है।

 

 

 

गिरगिट की तरह

कितना अच्छा है

कि हम जानते हैं

कि गिरगिट रंग बदलते हैं।

इसलिए रंगों के बीच भी

उसे हम अक्सर पहचान लेते हैं।

आकर्षित करता है

उसका यह रंग बदलना,

क्योंकि प्रकृति से

सामंजस्य का भाव है उसमें।

पर उन लोगों का क्या करें

जो दिखते तो स्याह-सफ़ेद हैं

पर भीतर न जाने

कितने रंगों से सराबोर होते हैं

और अवसरानुकूल रंग बदलते रहते हैं।

और हम भी कहां पीछे हैं

रंगों में रंग बदलने लगे हैं

स्याह को सफ़ेद और

सफ़ेद को स्याह करने में लगे हैं।

 

 

 

शिक्षा की यह राह देखकर

शिक्षा की कौन-सी राह है यह

मैं समझ नहीं पाई।

आजकल

बेटियां-बेटियां

सुनने में बहुत आ रहा है।

उनको ऐसी नई राहों पर

चलना सिखलाया जा रहा है।

सामान ढोने वाली

कुण्डियों पर लटकाया जा रहा है

और शायद

विद्यालय का मार्ग दिखलाया जा रहा है।

बच्चियां हैं ये अभी

नहीं जानती कि

राहें बड़ी लम्बी, गहरी

और दलदल भरी होती हैं।

न पैरों के नीचे धरा है

न सिर पर छाया,

बस दिवा- स्वप्न दिखा-दिखाकर

अधर में फ़ंसाया जा रहा है।

अवसर मिलते ही

डराने लगते हैं हम

धमकाने लगते हैं हम।

और कभी उनका

अति गुणगान कर

भटकाने लगते हैं हम।

ये राहें दिखाकर

उनके हौंसले

तोड़ने पर लगे हैं।

नौटंकियां करने में कुशल हैं।

चांद पर पहुंच गये,

आधुनिकता के चरम पर बैठे,

लेकिन

शिक्षा की यह राह देखकर

चुल्लू भर पानी में

डूब मरने को मन करता है।

किन्तु किससे कहें,

यहां तो सभी

गुणगान करने  में जुटे हैं।

 

कच्चे घड़े-सी युवतियां

कच्चे घड़े-सी होती हैं

ये युवतियां।

घड़ों पर रचती कलाकृति

न जाने क्या सोचती हैं

ये युवतियां।

रंग-बिरंगे वस्त्रों से सज्जित

श्रृंगार का रूप होती हैं

ये युवतियां।

रंग सदा रंगीन नहीं होते

ये बात जानती हैं

केवल, ये युवतियां।

हाट सजता है,

बाट लगता है,

ठोक-बजाकर बिकता है,

ये बात जानती हैं

केवल, ये युवतियां।

कला-संस्कृति के नाम पर

बैठक की सजावट बनते हैं]

सजते हैं घट

और चाहिए एक ओढ़नी

जानती हैं सब

केवल, ये युवतियां।

बातें आसमां की करते हैं

पर इनके जीवन में तो

ठीक से धरा भी नहीं है

ये बात जानती हैं

केवल, ये युवतियां।

कच्चे घड़ों की ज़िन्दगी

होती है छोटी

इस बात को

सबसे ज़्यादा जानती हैं

ये युवतियां।

चाहिए जल की तरलता, शीतलता

किन्तु आग पर सिंक कर

पकते हैं घट

ये बात जानती हैं

केवल, ये युवतियां।

 

जीवन का  अर्थ

मैं अक्सर

बहुत-सी बातें

नहीं समझ पाती हूं।

और यह बात भी

कुछ ऐसी ही है

जिसे मैं नहीं समझ पाती हूं।

बड़े-बड़े

पण्डित-ज्ञानी कह गये

मोह-माया में मत पड़ो,

आसक्ति से दूर रहो,

न करो किसी से अनुराग।

विरक्ति बड़ी उपलब्धि है।

तो

इस जीवन का क्या अर्थ?

 

कोई बतायेगा मुझे !!!

 

रेखाएं बोलती हैं

घर की सारी

खिड़कियां-दरवाज़े

बन्द रखने पर भी

न जाने कहां से

धूल आ पसरती है

भीतर तक।

जाने-अनजाने

हाथ लग जाते हैं।

शीशों पर अंगुलियां घुमाती हूं,

रेखाएं खींचती हूं।

गर्द बोलने लगती है,

आकृतियों में, शब्दों में।

गर्द उड़ने लगती है

आकृतियां और शब्द

बदलने लगते हैं।

एक साफ़ कपड़े से

अच्छे से साफ़ करती हूं,

किन्तु जहां-तहां

कुछ लकीरें छूट जाती हैं

और फिर आकृतियां बनने लगती हैं,

शब्द घेरने लगते हैं मुझे।

अरे!

डरना क्या!

इसी बात पर मुस्कुरा देने में क्या लगता है।

 
 

यादों पर दो क्षणिकाएं

तुम्हारी यादें

किसी सुगन्धित पुष्प-सी।

पहले कली-सी कोमल,

फिर फूल बन

मन-उपवन को महकातीं,

भंवरे गुनगुनाते।

हर पत्ती नये भाव में बहती।

और अन्त

एक मुर्झाए फूल-सा

डाली से टूटा,

कब कदमों तले रौंदा गया

पता ही न लगा।

*-*

यादों की गठरी

उलझे धागे,

टूटे बटन,

फ़टी गुदड़िया।

भारी-भरकम

मानों कई ज़िन्दगियों

के उधार का लेखा-जोखा।

 

मन की गुलामी से बड़ी कोई सफ़लता नहीं

 

ऐसा अक्सर क्यों होता है

कि हम

अपनी इच्छाओं,

आकांक्षाओं का

मान नहीं करते

और,

औरों के चेहरे निरखते हैं

कि उन्हें हमसे क्या चाहिए।

.

मेरी इच्छाओं का सागर

अपार है।

अनन्त हैं उसमें लहरें,

किलोल करती हैं

ज्वार-भाटा उठता है,

तट से टकरा-टकराकर

रोष प्रकट करती हैं,

सारी सीमाएं तोड़कर

पूर्णता की आकांक्षा लिए

बार-बार बढ़ती हैं

उठती हैं, गिरती हैं

फिर आगे बढ़ती हैं।

.

अपने मन के गुलाम नहीं बनेंगे

तो पूर्णता की आकांक्षा पूरी कैसे होगी ?

.

अपने मन की गुलामी से बड़ी

कोई सफ़लता नहीं जीवन में।

 

भोर में

भोर में

चिड़िया अब भी चहकती है

बस हमने सुनना छोड़ दिया है।

.

भोर में

रवि प्रतिदिन उदित होता है

बस हमने आंखें खोलकर

देखना छोड़ दिया है।

.

भोर में आकाश

रंगों   से सराबोर

प्रतिदिन चमकता है

बस हमने

आनन्द लेना छोड़ दिया है।

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भोर में पत्तों पर

बहकती है ओस

गाते हैं भंवरे

तितलियां उड़ती-फ़िरती है

बस हमने अनुभव करना छोड़ दिया है।

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सुप्त होते तारागण

और सूरज को निरखता चांद

अब भी दिखता है

बस हमने समझना छोड़ दिया है।

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रात जब डूबती है

तब भोर उदित होती है

सपनों के साथ,

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बस हमने सपनों के साथ

जीना छोड़ दिया है।