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सड़कों पर बाज़ार बिछा है
रोज़ सजाते, रोज़ हटाते।
आज हरी हैं
कल बासी हो जायेंगी।
आस लिए बैठे रहते हैं
देखें कब तक बिक जायेंगी
ग्राहक आते-जाते
कभी ख़रीदें, कभी सुनाते।
धरा से उगती
धरा पर सजती
धरा पर बिकती।
धूप-छांव में ढलता जीवन
सांझ-सवेरे कब हो जाती।
तोल-मोल से काम चले
और जीवन चलता तोल-मोल से
यूँ ही दिन ढलते रहते हैं
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बालपन को जी लें
अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें
यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें
कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते
वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें
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काश ! ऐसा हो जाये
सोचती हूं,
पर पहले ही बता दूं
कि जो मैं सोचती हूं
वह आपकी दृष्टि में
ठीक नहीं होगा,
किन्तु अपनी सोच को
रोक तो नहीं सकती,
और मेरी सोच पर
आप रोक लगा नहीं सकते,
और आपको बिना बताये
मैं रह भी नहीं सकती।
कितना अच्छा हो
कि संविधान में
नियम बन जाये
कि एक वेशभूषा
एक रंग और एक ही ढंग
जैसे विद्यालयों में बच्चों की
यूनिफ़ार्म।
फिर हाथ सामने जोड़ें
माथा टेकें
अथवा आकाश को पुकारें
कहीं कुछ अलग-सा
महसूस नहीं होगा,
चाहे तुम मुझे धूप से बचाओ
या मैं तुम्हें
वर्षा में भीगने के लिए खींच लूं
कोई गलत अर्थ नहीं निकालेगा,
कोई थोथी भावुकता नहीं परोसेगा
और शायद न ही कोई
आरोप जड़ेगा।
चलो,
आज बाज़ार चलकर
एक-सा पहनावा बनवा लें।
चलोगे क्या ??????
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काश! कह सकूं याद नहीं अब
मैंने कब चलना सीखा
किसने सिखलाया था मुझको,
किसने थामी थी अंगुली
किसने गिरते से उठाया था मुझको,
याद नहीं अब।
कब छूटा था हाथ मेरा,
कब नया हाथ थामा था,
संगी-साथी थे मेरे
या फ़िर चली
अकेली जीवन-पथ पर
किसने समझाया था मुझको,
याद नहीं अब।
कहीं सरल-सुगम राहें थीं
कहीं अनगढ़ दीवारें थीं।
कहीं कंकड़ -पत्थर थे
कहीं पर्वत-सी बाधाएं थीं
क्या चुना था मैंने
याद नहीं अब।
राहों से राहें निकली थीं,
इधर-उधर भटक रही थी
कब लौट-लौटकर
नई शुरूआत कर रही थी,
याद नहीं अब।
क्या पाना चाहा था मैंने,
क्या खोया मैंने ,
बहुत बड़ी गठरी है।
काश!
कह सकूं,
याद नहीं अब।
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तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा
तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा
तेरी मूंछे मेरी मूंछे
पग्गड़ बांध बने हम लाला
तू भी कालू मैं भी काला
चलता है या खींचू गाल
दो बीड़ी लाया हूं
गुमटी पर बैठेंगे
खायेंगे चाट-पकौड़ी
सब कहते बुड्ढा- बुड्ढा
चटोर कहीं का।
कहने दो हमको क्या ।
घर जाकर कह देंगे
पेट ठीक न है
फिर बीबी बोलेगी
बुड्ढा- बुड्ढा ।
बहू गैस की गोली लायेगी,
बेटा पानी देगा,
बीबी चिल्ला़येगी,
बुड्ढा- बुड्ढा ।
बड़ा मज़ा आयेगा।
तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा- बुड्ढा
चलता है या खींचू गाल
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देश और ध्वज
देश
केवल एक देश नहीं होता
देश होता है
एक भाव, पूजा, अर्चना,
और भक्ति का आधार।
-
ध्वज
केवल एक ध्वज नहीं होता
ध्वज होता है प्रतीक
देश की आन, बान,
सम्मान और शान का।
.
और यह देश भारत है
और है आकाश में लहराता
हमारा तिरंगा
और जब वह भारत हो
और हो हमारा तिरंगा
तब शीश स्वयं झुकता है
शीश मान से उठता है
जब आकाश में लहराता है तिरंगा।
.
रंगों की आभा बिखेरता
शक्ति, साहस
सत्य और शांति का संदेश देता
हमारे मन में
गौरव का भाव जगाता है तिरंगा।
.
जब हम
निरखते हैं तिरंगे की आभा,
गीत गाते हैं
भारत के गौरव के,
शस्य-श्यामला
धरा की बात करते हैं
तल से अतल तक विस्तार से
गर्वोन्नत होते हैं
तब हमारा शीश झुकता है
उन वीरों की स्मृति में
जिनके रक्त से सिंची थी यह धरा।
.
स्वर्णिम आज़ादी का
उपहार दे गये हमें।
आत्मसम्मान, स्वाभिमान
का भान दे गये हमें
देश के लिए जिएँ
देश के लिए मरें
यह ज्ञान दे गये हमें।
-
स्वर्णिम आज़ादी का
उपहार दे गये हमें।
आत्मसम्मान, स्वाभिमान
का भान दे गये हमें
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स्मृतियों के खण्डहर
कुछ
अनचाही स्मृतियाँ
कब खंडहर बन जाती हैं
पता ही नहीं लग पाता
और हम
उन्हीं खंडहरों पर
साल-दर-साल
लीपा-पोती
करते रहते हैं
अन्दर-ही-अन्दर
दीमक पालते रहते हैं
देखने में लगती हैं
ऊँची मीनारें
किन्तु एक हाथ से
ढह जाती हैं।
प्रसन्न रहते हैं हम
इन खंडहरों के बारे में
बात करते हुए
सुनहरे अतीत के साक्षी
और इस अतीत को लेकर
हम इतने
भ्रमित रहते हैं
कि वर्तमान की
रोशनियों को
नकार बैठते हैं।
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न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो
न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो
न तुम बोले न मैं, मुस्कानों में क्यों बातें करते हो
अनजाने-अनपहचाने रिश्ते अपनों से अच्छे लगते हैं
कदम ठिठकते, दहलीज रोकती, यूं ही मन चंचल करते हो
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नारी में भी चाहत होती है
ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है
कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी ही राहत होती है
पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है
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अवसर है अकेलापन अपनी तलाश का
एक सपने में जीती हूं,
अंधेरे में रोशनी ढूंढती हूं।
बहारों की आस में,
कुछ पुष्प लिए हाथ में,
दिन-रात को भूलती हूं।
काल-चक्र घूमता है,
मुझसे कुछ पूछता है,
मैं कहां समझ पाती हूं।
कुछ पाने की आस में
बढ़ती जाती हूं।
गगन-धरा पुकारते हैं,
कहते हैं
चलते जाना, चलते जाना
जीवन-गति कभी ठहर न पाये,
चंदा-सूरज से सीख लेना
तारों-सा टिमटिमाना,
अवसर है अकेलापन
अपनी तलाश का ,
अपने को पहचानने का,
अपने-आप में
अपने लिए जीने का।