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विध्वंस की आशंका से
आज ही
नवनिर्माण में जुटे हैं
इसलिए
अपने-आप ही
तोड़- फ़ोड़ में लगे है।
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दिन सभी मुट्ठियों से फ़िसल जायेंगे
किसी ने मुझे कह दिया
दिन
सभी मुट्ठियों से
फ़िसल जायेंगे,
इस डर से
न जाने कब से मैंने
हाथों को समेटना
बन्द कर दिया है
मुट्ठियों को
बांधने से डरने लगी हूँ।
रेखाएँ पढ़ती हूँ
चिन्ह परखती हूँ
अंगुलियों की लम्बाई
जांचती हूँ,
हाथों को
पलट-पलटकर देखती हूँ
पर मुट्ठियाँ बांधने से
डरने लगी हूँ।
इन छोटी -छोटी
दो मुट्ठियों में
कितने समेट लूँगी
जिन्दगी के बेहिसाब पल।
अब डर नहीं लगता
खुली मुट्ठियों में
जीवन को
शुद्ध आचमन-सा
अनुभव करने लगी हूँ,
जीवन जीने लगी हूँ।
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सखियाँ झूला झूलें
हिलमिल सखियाँ झूला झूलें
कभी धरा, कभी गगन छू लें
फुहारें मन मुदित कर रहीं
खुशियों के भर-भर घूंट पी लें
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मां तो बस मां होती है
मां का कोई नाम नहीं होता,
मां का कोई दाम नहीं होता
मां तो बस मां होती है
उसका कोई अलग पता नहीं होता ।
मेरे संग पढ़ती,
खेल खिलौने देती,
रातों की नींदों में,
सपनों में,
लोरी में,
परियों की कथा कहानी में,
कपड़े लत्ते में,
रोटी टिफिन में ,
सब जगह रहती है मां ।
कब सोती है
कब उठती,
पता नहीं होता ।
जो चाहिए वो देती है मां।
मेरे अन्दर बाहर है मां,
मां तो बस मां होती है ।
कोई मुझसे पूछे ,
कहां कहां होती है मां।
क्या होती है मां।
मां तो बस मां होती है ।
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त्रिवेणी विधा में रचना
दर्पण में अपने ही चेहरे को देखकर मुस्कुरा देती हूं
फिर उसी मुस्कान को तुम्हारे चेहरे पर लगा देती हूं
पर तुम कहां समझते हो मैंने क्या कहा है तुमसे
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नहीं चाहते हम हमारी अमरता से कोई घटना घटे
कहीं नोट पर चित्र छपेगा, कहीं सड़क, पुल पर नाम होगा
कोई कहेगा अवकाश कीजिए, कहीं पुस्तकों में एक पाठ होगा
नहीं चाहते हम हमारी अमरता से कोई घटना घटे, दुर्घटना घटे
कहीं झण्डे उठेंगे,डण्डें भिड़ेगें, कहीं बन्द का आह्वान होगा
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कड़वा-कड़वा देते रहना
नीम करेले का रस पी ले
हंस-बोलकर जीवन जी ले
कड़वा-कड़वा देते रहना
खट्टे की खुद चटनी पी ले
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अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता
मां का कोई नाम नहीं होता, मां का कोई दाम नहीं होता
मां तो बस मां होती है उसका कोई अलग पता नहीं होता
घर के कण-कण में, सहज-सहज अनदेखी-अनबोली मां
अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता
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औरत की दुश्मन औरत
एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है कि औरत औरत की दुश्मन होती है। बड़ी सरलता से हमारे समाज में, व्यवहार में, परिवारों में, महिलाओं का उपहास करने के लिए इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है।
कारण प्रायः केवल सास-बहू के बनते-बिगड़ते सम्बन्धों के आधार पर सत्यापित किया जाता है। अथवा कभी-कभी ननद-भाभी की परस्पर अनबन को लेकर।
किन्तु जितनी कहानियाँ हमारे समाज में इस तरह की बुनी जाती रही हैं और महिलाओं को इन कहानियों द्वारा अपमानित किया जाता है वे सत्य में कितनी हैं? क्या हम ही अपने परिवारों में देखें तो कितनी महिलाएँ परिवारों में दुश्मनों की तरह रह रही हैं। और केवल परिवारों में ही नहीं, समाज में, कार्यस्थलों में, राहों में , कहीं भी इस वाक्य को सुनाकर महिलाओं का अपमान कर दिया जाता है।
अनबन पिता-पुत्र में भी होती है, भाईयों में भी होती है, विशेषकर कार्यस्थलों में तो बहुत ही गहन ईर्ष्या-द्वेष भाव होता है किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन है।
ऐसा क्यों ? क्यों महिलाओं के विरुद्ध इस तरह की कहावतें, मुहावरे बने हैं?
कहने को कुछ भी कह लें कि समाज बदल गया है, परिवारों में अब लड़का-लड़की समान हैं किन्तु कहीं एक क्षीण रेखा है जो भेद-भाव बताती है।
एक युवती अपना वह घर छोड़कर जाती है जहां उसने परायों की तरह बीस पच्चीस वर्ष बिताये हैं कि यह उसका घर नहीं है। और जिस घर में प्रवेश करती है वहां उसके लिए नये नियम.कानून पहले ही निर्धारित होते हैं जिनको उसे तत्काल भाव से स्वीकार करना होता है, मानों बिजली का बटन है वह, कि इस कमरे की बत्ती बुझाई और उस कमरे की जला दी। उसे अपने आपको नये वातावरण में स्थापित करने में जितना अधिक समय लगता है उतनी ही वह बुरी होती जाती है।
वास्तव में यदि सास-बहू अथवा ननद-भाभी की अनबन देखें तो वह वास्तव में अधिकार की लड़ाई है। एक युवती को मायके में अधिकार नहीं मिलते, वहाँ भाई और पिता ही सर्वोपरि होते हैं। ससुराल में वह इस आशा के साथ प्रवेश करती है कि यह उसका घर है और यहाँ उसके पास अधिकार होंगे। किन्तु उसके प्रवेश के साथ ही सास और ननद के मन में भय समा जाता है कि उनके अधिकार जाते रहेंगे। और उनकी इस मनोवैज्ञानिक समस्या में परिवार के पुरुषों का व्यवहार प्रायः आग में घी का काम करता है। वे न किसी का सहयोग देते हैं, न उचित पक्ष लेते हैं, न राह दिखाते हैं, बस औरतें तो होती ही ऐसी हैं कह कर पतली गली से निकल लेते हैं।
कभी आपने सुना कि माँ ने बेटी को घर से निकाल दिया अथवा इसके विपरीत। अथवा बेटी ने सम्पत्ति के लिए माँ के विरुद्ध कार्य किया। किन्तु पुरुषों में आप नित्य-प्रति कथाएँ सुनते हैं कि भाई भाई को मार डालता है, बेटा सम्पत्ति के लिए पिता की हत्या कर देता है। चाचे-भतीजे की लड़ाईयाँ। ज़रा-सा पढ़-लिख जाता है तो उसे अपने माता-पिता पिछड़े दिखाई देने लगते हैं ऐसी सत्य अनगिनत कथाएं हम जानते हैं, किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन होता है। आज भी नारी: पुरूष अथवा परिवार की पथगामिनी ही है, वह अपने चुने मार्ग पर कहां चल पाती है। हां, परिवार में कुछ भी गलत हो तो आरोपी वही होती है। मां-बेटे, पिता-पुत्र, अन्य सम्बन्धियों के साथ कुछ भी बिगड़े, दोषारोपण नारी पर ही आता है।
दुख इस बात का कि हम स्वयं ही अपने विरूद्ध सोचने लगे हैं क्योंकि हमारा समाज हमारे विरूद्ध सोचता है।
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उलझनों से भागकर सहज लगता है जीवन
तितलियों संग देखो उड़ता फिरता है मन
चांद-तारो संग देखो मुस्कुराता है गगन
चल कहीं आज किसी के संग बैठें यूं ही
उलझनों से भागकर सहज लगता है जीवन
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मन का दीप प्रज्वलित हो
अपनों का साथ हो
सपनों का राग हो
सम्बन्धों का उन्माद हो
सबसे संवाद हो
मन बाग बाग हो
जीवन में राग राग हो
मधुर मधुर तान हो
भावों में अनुराग हो
मलिनता मिट जाए
दूरियां सिमट जाएं
रिश्तों की गरिमा हो
अपनों की महिमा हो
विश्वास की दमक हो
अपनेपन की महक हो
सहज सहज जीवन हो
सरल पावन मन हो
मन से मन का मिलन हो
न द्वेष का राग हो,
न सत्य से विराग हो
जीवन की सुंदर कहानी हो
अपनों की जु़बानी हो
जगमग जगमग संसार हो
खुशियां अपार हों
पर्वों की सी हरदम आहट हो
बस मन का दीप प्रज्वलित हो।