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जीवन में
एक समय आता है
जब भीड़ चुभने लगती है।
बस
अपने लिए
अपनी राहों पर
अपने साथ
चलने की चाहत होती है।
बात
रोशनी-अंधेरे की नहीं
बस
अपने-आप से बात होती है।
जीवन की लम्बी राहों पर
कुछ छूट गया
कुछ छोड़ दिया
किसी से नहीं कोई आस होती है।
न किसी मंज़िल की चाहत है
न किसी से नाराज़गी-खुशी
बस अपने अनुसार
जीने की चाहत होती है।
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जीवन की गति एक चक्रव्यूह
जीवन की गति
जब किसी चक्रव्यूह में
अटकती है
तभी
अपने-पराये का एहसास होता है।
रक्त-सम्बन्ध सब गौण हो जाते हैं।
पता भी नहीं लगता
कौन पीठ में खंजर भोंक गया ,
और किस-किस ने सामने से
घेर लिया।
व्यूह और चक्रव्यूह
के बीच दौड़ती ज़िन्दगी,
अधूरे प्रश्र और अधूरे उत्तर के बीच
धंसकर रह जाती है।
अधसुनी, अनसुनी कहानियां
लौट-लौटकर सचेत करती हैं,
किन्तु हम अपनी रौ में
चेतावनी समझ ही नहीं पाते,
और अपनी आेर से
एक अधबुनी कहानी छोड़कर
चले जाते हैं।
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समानता का भाव
बस एक इंसानियत का भाव जगाना होगा।
समानता का भाव सबके मन में लाना होगा।
मानवता को बांटकर देश प्रगति नहीं करते,
हर तरह का भेद-भाव अब मिटाना होगा।
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मुझको मेरी नज़रों से परखो
मन विचलित होता है।
मन आतंकित होता है।
भूख मरती है।
दीवारें रिसती हैं।
न भावुक होता है।
न रोता है।
आग जलती भी है।
आग बुझती भी है।
कब तक दर्शाओगे
मुझको ऐसे।
कब तक बहाओगे
घड़ियाली आंसू।
बेचारी, अबला, निरीह
कहकर
कब तक मुझ पर
दया दिखलाओगे।
मां मां मां मां कहकर
कब तक
झूठे भाव जताओगे।
बदल गई है दुनिया सारी,
बदल गये हो तुम।
प्यार, नेह, त्याग का अर्थ
पिछड़ापन,
थोथी भावुकता नहीं होता।
यथार्थ, की पटरी पर
चाहे मिले कुछ कटुता,
या फिर कुछ अनचाहापन,
मुझको, मेरी नज़रों से देखो,
मुझको मेरी नज़रों से परखो,
तुम बदले हो
मुझको भी बदली नज़रों से देखो।
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नयनों में घिर आये बादल
धूप खिली, मौसम खुशनुमा, घूम रहे बादल
हवाएं चलीं-चलीं, गगन पर छितराए बादल
कुछ बूंदें बरसी, मन महका-बहका-पगला
तुम रूठे, नयनों में गहरे घिर आये बादल
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अंधेरे का सहारा
ज़्यादा रोशनी की चाहत में
सूरज को
सीधे सीधे
आंख उठाकर मत देखना
आंखें चौंधिया जायेंगी।
अंधेरे का अनुभव होगा।
बस ज़रा सहज सहज
अंधेरे का सहारा लेकर
आगे बढ़ना।
भूलना मत
अंधेरे के बाद की
रोशनी तो सहज होती है
पर रोशनी के बाद का
अंधेरा हम सह नहीं पाते
बस इतना ध्यान रखना।
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मेरी आंखों में आँसू देख
मुझसे
प्याज न कटवाया करो।
मुझे
प्याज के आँसू न रुलाया करो।
मेरी आंखों में आँसू देख
न मुस्कुराया करो।
खाना बनाने की
रोज़-रोज़
नई-नई
फ़रमाईशें न बताया करो।
रोज़-रोज़ मुझसे खाना बनवाते हो
कभी तो बनाकर खिलाया करो।
चलो, न बनाओ
तो बस
कभी तो हाथ बंटाया करो।
श्रृंगार किये बैठी थी मैं
कुछ तो
मुझ पर तरस खाया करो।
श्रृंगार का सामान मांगती हूँ
तब मँहगाई का राग न गाया करो।
मेरी आँसू देखकर
न जाने कितनी कहानियाँ बनेंगीं,
हँस-हँसकर मुझे न चिड़ाया करो।
शब्दों से न सही
भावों से ही
कभी तो प्रेम-भाव जतलाया करो।
रूठकर बैठती हूँ
कभी तो मनाने आ जाया करो।
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कैसी कैसी है ज़िन्दगी
कभी-कभी ठहरी-सी लगती है, भागती-दौड़ती ज़िन्दगी ।
कभी-कभी हवाएँ महकी-सी लगती हैं, सुहानी ज़िन्दगी।
गरजते हैं बादल, कड़कती हैं बिजलियाँ, मन यूँ ही डरता है,
कभी-कभी पतझड़-सी लगती है, मायूस डराती ज़िन्दगी।
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सुन्दर है संसार
जीवन में
बहुत कुछ अच्छा मिलता है,
तो बुरा भी।
आह्लादकारी पल मिलते हैं,
तो कष्टों को भी झेलना पड़ता है।
सफ़लता आंगन में
कुलांचे भरती है,
तो कभी असफ़लताएं
देहरी के भीतर पसरी रहती हैं।
छल और प्रेम
दोनों जीवन साथी हैं।
कभी मन में
डर-डर कर जीता है,
तो कभी साहस की सीढ़ियां
हिमालय लांघ जाती हैं।
जीवन में खट्टा-मीठा सब मिलता है,
बस चुनना पड़ता है।
और प्रकृति के अद्भुत रूप तो
पल-पल जीने का
संदेश दे जाते हैं,
बस समझने पड़ते हैं।
एक सौन्दर्य
हमारे भीतर है,
एक सौन्दर्य बाहर।
दोनों को एक साथ जीने में
सुन्दर है संसार।
कामना मेरी
और सुन्दर हो संसार।
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यह भावुकता
कहां है अपना वश !
कब के रूके
कहां बह निकलेगें
पता नहीं।
चोट कहीं खाई थी,
जख्म कहीं था,
और किसी और के आगे
बिखर गये।
सबने अपना अपना
अर्थ निकाल लिया।
अब
क्या समझाएं
किस-किसको
क्या-क्या बताएं।
तह-दर-तह
बूंद-बूंद
बनती रहती हैं गांठें
काल की गति में
कुछ उलझी, कुछ सुलझी
और कुछ रिसती
बस यूं ही कह बैठी,
जानती हूं वैसे
तुम्हारी समझ से बाहर है
यह भावुकता !!!
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इरादे नेक हों तो
सिर उठाकर जीने का
मज़ा ही कुछ और है।
बाधाओं को तोड़कर
राहें बनाने का
मज़ा ही कुछ और है।
इरादे नेक हों तो
बड़े-बड़े पर्वत ढह जाते हैं
इस धरा और पाषाणों को भेदकर
गगन को देखने का
मज़ा ही कुछ और है।
बहुत कुछ सिखा जाता है यह अंकुरण
सुविधाओं में तो
सभी पनप लेते हैं
अपनी हिम्मत से
अपनी राहें बनाने मज़ा ही कुछ और है।