पांच-सात क्या पी ली

जगती हूं,उठती हूं, फिर सोती हूं,मनमस्त हूं

घड़ी की सूईयों को रोक दिया है, अलमस्त हूं

पूरा दिन पड़ा है कर लेंगे सारे काम देर-सबेर

बस पांच-सात क्या पी ली,(चाय),मदमस्त हूं

प्यार का संदेश

कक्षा 4 का विद्यार्थी सहज, छोटा-सा, मात्र 7-8 वर्ष का। स्कूल से अनायास उसके माता-पिता को फोन जाता है, तत्काल स्कूल पहुंचने का। दोनों घबराये कहीं बच्चे के साथ कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई।

गेट से ही उन्हें लगा कोई गम्भीर घटना घटी है, प्रधानाचार्या के कार्यालय तक पहुंचते-पहुंचते पता नहीं कितने चेहरे क्या-क्या कह रहे थे। वहीं पर सहज खड़ा था रूंआसा-सा, उसकी दो-तीन अध्यापिकाएं पूरे गुस्से में।

सहज असमंसज-भाव में सबके चेहरे देख रहा था कि वह यहां क्यों खड़ा है और क्या हुआ है। उसे तो यही पता था कि प्रधानाचार्या के कमरे में तो बच्चों को पुरस्कार देने के लिए ही बुलाया जाता है।

“ देखिए , आपके आठ साल के बच्चे के हाल! क्या सिखाते हैं आप अपने बच्चे को। आज ही यह हाल है तो बड़ा होकर क्या करेगा? ऐेसे बच्चों को हम स्कूल में नहीं रख सकते।’’

लेकिन मैडम हुआ क्या’’

“ ये लीजिए, आपके होनहार बेटे ने अपनी क्लास की एक लड़की को ये प्यार का संदेश दिया। पढ़िए आप ही। और पूछिए इससे।’’

माता-पिता के हाथ में अपने बेटे सहज के हाथ की लिखी एक छोट-सी पर्ची थी जिस पर लिखा था ‘‘आई लव यू आभा’’।

‘‘आपने बात की क्या इससे।’’

“ जी, नहीं बात क्या करनी, दिखाई नहीं दे रहा कि आपके बच्चे की कैसी सोच है? “

माता-पिता हतप्रभ। कभी एक-दूसरे का चेहरा देखें तो कभी सहज का, जो उत्सुक-सा सबको देख रहा था।

‘‘पूछना चाहिए था आपको, इतनी-सी बात को इतना बड़ा बना देने से पहले। हम तो डर ही गये थे।’’

‘‘लीजिए, आपके सामने मैं ही पूछती हूं ।’’

‘‘सहज, तुम आभा से प्यार करते हो’’

यैस, मम्मी।

क्यों?

मम्मी, आभा बहुत अच्छी है, हर समय हंसती रहती है, अपना लंच भी मुझे देती है, हम साथ ही बैठते हैं, और आप और मैडम भी तो कहते हैं लव आॅल। आप मुझे कितनी बार कहती हैं लव यू बेटू। पापा भी कहते हैं। मेरी मैडम भी कहती है, आई लव यू आॅल।

स्कूल में और आप भी तो यही कहते हैं सबसे प्यार करो, आप मेरा बैग देखो, मैंने तो बहुत से दोस्तों के लिए भी लिख कर रखा है लव यू।

मम्मी मैंने कुछ गलत कर दिया क्या?

सब निरूत्‍तर थे ।

 

मैं नहीं जानती कि उसके बाद सहज के साथ क्या हुआ, किन्तु इतना जानती हूं कि जब तक कोई नया गाॅसिप नहीं आ गया, दिनों तक स्कूल में इसी घटना की चर्चा रही कि आजकल इतने छोटे बच्चों के ये हाल हैं तो बड़े होकर क्या करेंगे।

एक संस्मरण  पर्पल पैन कवि सम्मेलन दिल्ली

कल का दिन बहुत अच्छा बीता। एक नया अनुभव, फ़ेसबुक के वे मित्र जिनसे वर्षों से कविताओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मिलते थे, ऑनलाईन कवि सम्मेलन में मिलते थे एवं कभी फ़ोन पर भी बात होती थी, उनसे मिलना और एक सुन्दर, भव्य कवि सम्मेलन का हिस्सा बनना।

फ़ेसबुक का पर्पल पैन साहित्यिक मंच एवं मंच की संस्थापक/संचालक वसुधा कनुप्रिया जी का दूर से ही मिलने वाला नेह मुझे कल दिल्ली ले गया।

इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनने के लिए मैंने कल पंचकूला से दिल्ली तक की आने-जाने की टैक्सी की और  लगभग दस घंटे की यात्रा की। प्रातः सात बजे जब घर से निकली तो मूसलाधार वर्षा, सड़कों पर बने तालाब, रुकता-चलता ट्रैफ़िक प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी अधिक यात्रा तो सोते ही बीतती है। करनाल से पहले से मौसम ठीक होने लगा था। वसुधा जी से और घर में भी निरन्तर बात अथवा वाट्सएप संदेश चल रहे थे। उन्होंने मुझे लोकेशन, निकटवर्ती स्थल आदि की सूचना भी भेज दी। करनाल में अल्पाहार कर जब दिल्ली की सीमा के निकट पहुँचे तो मोबाईल ने कुछ पूछा, हाँ अथवा कैंसल। मैं ऐसे मामलों में अपना दिमाग़ कदापि नहीं लगाती, बेटे से पूछा, शायद मैं उसे कुछ ठीक बता नहीं पाई और रोमिंग बंद। वाट्सएप बन्द। मैं समझाने पर भी नहीं समझ पाई। इस बीच हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँच चुके थे। फिर वसुधा जी का सहारा लिया। भाग्य रहा कि निकट ही एक छोटी सी दुकान मिल गई और उन्होंने रोमिंग चला दी। सांस में सांस आई।

वसुधा जी की चिन्ता मन को छू जाती है। उनका प्रातः भी फ़ोन आया कि मौसम देखकर निकलिएगा। वे इस बात की भी चिन्ता कर रही थीं कि मैं दोपहर में एक-दो बजे पहुँचूंगी तो भूख लगी होगी। वे मेरे लिए और मेरे टैक्सी चालक के लिए विशेष रूप ढोकला लेकर आईं। वसुधा जी एवं डॉ इन्दिरा शर्मा, मीनाक्षी भटनागर, रजनी रामदेव, गीता भाटिया, वंदना मोदी गोयल, वीणा तँवर, शारदा मदरा, रामकिशोर उपाध्याय, एवं एक-दो मित्र-परिचित और जिनके मैं नाम भूल रही हूँ, लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। एक अपनत्व की धारा थी। अन्य कवि भी प्रथम परिचय में आत्मीय भाव से मिले। वसुधा जी की मम्मी से मिलना भी बहुत सुखद रहा।

मधुश्री जी की पुस्तक का विमोचन भी हुआ।

 कवि सम्मेलन का अनुभव बहुत अच्छा रहा। एक नयापन, विविधात्मक रचनाएँ, एवं सहज वातावरण, सुव्यवस्थित कार्यक्रम एवं आयोजन मन आनन्दित कर गया।

आयोजन की अध्यक्षता मशहूर उस्ताद शायर श्री सीमाब सुल्तानपुरी ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में विधि भारती परिषद् की संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री संतोष खन्ना, विष्णु प्रभाकर संस्थान के संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार श्री अतुल प्रभाकर और विख्यात शायर श्री मलिकज़ादा जावेद की गरिमामयी उपस्थिति एवं उनका काव्य पाठ सुनना अत्यन्त सुखद अनुभव रहे।

दोपहर में दिल्ली में वर्षा के कारण कार्यक्रम कुछ विलम्ब से आरम्भ हो पाया और समाप्त होते-होते साढ़े सात बज गये। अब भूख तो लग ही रही थी। रात्रि किसी ढाबे में भोजन के लिए रुकना बनता ही नहीं था। इस कारण विलम्ब होते हुए भी मैं समोसे और चने खाने से अपने-आपको रोक नहीं पाई।

रात्रि आठ बजकर दस मिनट में दिल्ली से निकले और रात्रि 12.15 पर पंचकूला पहुंची। इस बीच घर तो बात चल ही रही थी, वसुधा जी का भी दो बार कुशलता जानने के लिए फ़ोन आया। अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच वे सबकी जानकारी ले रही थीं। ऐसे मित्र और ऐसा नेह कठिनाई से मिलता है, नेह बना रहे।

  

नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे

किसी मित्र ने मुझसे कहा कि आपकी सोच यानी मेरी यानी कविता की सोच बहुत नकारात्मक है। यदि मैं अच्छा सोचूँगी, सकारात्मक रहूँगी तो सब अच्छा ही होगा। इस बात पर उन्होंने एक मुहावरा पढ़ डाला ‘‘नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे’’ किन्तु कैसे उन्होने नहीं बताया।

तो इस मुहावरे पर मेरा एक सरल सा हास्य-व्यंग्य

*-*-*-*-*-*-*

आप अवश्य ही सोचेंगे इसकी तो बुद्धि ही उलट-पुलट है। किन्तु जैसी है, वैसी ही है, मैं क्या कर सकती हूँ। आप सब हर विषय पर गम्भीरता का ताना-बाना क्यों ओढ़ लेते हैं?

अब आप कह रहे हैं, नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे। कैसे भई, किस तरह?

अब इस आयु में मैं तो बदलने से रही। कोई भी योगी-महायोगी कहेगा, बदलने, सीखने की कोई उम्र नहीं होती। बस प्रयास करना पड़ता है। अब सारा जीवन प्रयास करते ही निकल गया, कभी किसी के लिए बदले, तो कभी किसी के लिए। बचपन में माँ-पिता, बड़े भाई-बहनों के आदेश-निर्देश बदलने के लिए, फिर ससुराल पक्ष के, उपरान्त बच्चों के और अब आप शुरु हो गये। अब तो थोड़ा मनमर्ज़ी से आराम करने दीजिए।

चलिए, कुछ गम्भीर बात कर लेते हैं। क्या मात्र नज़रिया बदलने से नज़ारे बदल जाते हैं? पता नहीं, चलिए विचार करने का प्रयास करते हैं। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि नज़ारे बदलें तो नज़रिया अवश्य बदलता है।

मन उदास है और बाहर खिली-खिली धूप है, गुंजन करते भंवरे, हवाओं से लहलहाते पुष्प, पंछियों की चहक, दूर तक फैली हरियाली, देखिए कैसे नज़रिया बदलता है। आप ही चेहरे पर मुस्कुराहट खिल आती है, मन आनन्दमय होने लगता है और चाय पीने का मन हो आता है जिसे हम गुस्से में अन्दर छोड़ आये थे।

कोई यदि हमारे सामने अपशब्दों का प्रयोग करता है तो हम नज़रिया कैसे बदल लें? किन्तु मन खिन्न होने पर हमें कोई सान्त्वना के दो मधुर शब्द बोल देता है, हमारे हित में बात करता है, तो नज़रिया बदल जाता है।

*

किन्तु मैं आपको पहले ही बता चुकी हूँ कि बु़िद्ध उलट-पुलट है। अब आपके पक्ष से विचार करते हैं। नज़रिया बदलें, नज़ारे बदलेंगे।

मैंने नज़रिया बदल लिया।

करेला कड़वा नहीं है, नीम मीठी है। मिर्च तीखी नहीं है, कौआ कितना मीठा गाता है, गोभी का फूल कितना सुन्दर है किसी को भेंट करने के लिए।

हमने करेले-नीम की सब्जी बनाई और यह कहकर सबको खिलाई कि मेरे सकारात्मक विचारों से बनी देखिए कितनी मीठी सब्ज़ी है।

अब यह नज़रिया बदलने पर हमारे क्या नज़ारे बदले न ही पूछिए, क्योंकि हम जानते हैं आप अत्यधिक सकारात्मक विचारों के हैं हमारा दर्द क्या समझेंगे।

  

 

जीवन की लम्‍बी राहों में

 

जीवन की लम्‍बी राहों में उलझे-बिखरे रस्‍ते हैं यादों के

पीछे मुड़कर देखें तो कुछ मोती , कुछ कण्‍टक हैं वादों के

किसने साथ दिया, कौन संग चला जीवन भर,  क्‍या सोचना,

क्‍यों साथ लेकर चलें अकारण ही भरी  संवादों के विवादों के

भोर का सूरज

भोर का सूरज जीवन की आस देता है

भोर का सूरज रोशनी का भास देता है

सुबह से शाम तक ढलते हैं जीवन के रंग

भोर का सूरज नये दिन का विश्वास देता है

बूंदें कुछ कह जाती हैं

बूंदें कुछ कह जाती हैं

मुझको

सहला-सहला जाती हैं

हंस-हंस कह रहीं

जी ले, जी ले,

रंग-बिरंगी दुनिया

रंग-बिरंगी सोच

उड़ ले, उड़ ले

टप-टप गिरती बूंदें

छप-छपाक-छप

छप-छपाक-छप

खिल-खिल-खिल हंसती

इधर-उधर

मचल-मचलकर

उछल-उछलकर

हंस-हंस बतियाती

कुछ कहती मुझसे

लुढ़क-लुढ़क कर

मस्त-मस्त

पत्ता-पत्ता, डाली-डाली

घूम रहीं,

कानों में कुछ कह जातीं

मैं मुस्का कर रह जाती

हरियाली को छू रहीं

कहीं छुपन-छुपन खेल रहीं,

कब आईं

और कब जायेंगी

देखो-देखो धूप खिली

पकड़ो बूंदें

भागी-भागी

 

 

बेकरार दिल
दिल हो रहा बड़ा बेकरार

बारिश हो रही मूसलाधार

भीग लें जी भरकर आज

न रोक पाये हमें तेज़ बौछार

सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।

जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी।

कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे

आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।

तरल-तरल भाव सी

बहकती है ज़िन्दगी।

राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी।

चलें हिल-मिल

कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी।

किसी और से क्या लेना, 

जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी।

आज भीग ले अन्तर्मन,

कदम-दर-कदम

मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।

राहें सूनी हैं तो क्या,

तुम साथ हो

तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।

आगे बढ़ते रहें

तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी।

दिखाने को अक्सर मन हंसता है

चोट कहां लगी थी,

कब लगी थी,

कौन बतलाए किसको।

दिल छोटा-सा है

पर दर्द बड़ा है,

कौन बतलाए किसको।

गिरता है बार-बार,

और बार-बार सम्हलता है।

बहते रक्त को देखकर

दिखाने को अक्सर मन  हंसता है।

मन की बात कह ले पगले,

कौन समझाए उसको।

न डर कि कोई हंसेगा,

या साथ न देगा कोई।

ऐसे ही दुनिया चलती है,

जीवन ऐसे ही चलता है,

कौन समझाए उसको।

आंसू भीतर-भीतर तिरते हैं,

आंखों में मोती बनते हैं,

तिनका अटका है आंख में,

कहकर,

दिखाने को अक्सर मन हंसता है।

पहचान खोकर मिले हैं खुशियां

 

कल खेली थी छुपन-छुपाई आज रस्सी-टप्पा खेलेंगे।

मैं लाई हूं चावल-रोटी, हिल-मिलकर चल खालेंगे।

तू मेरी चूड़ी-चुनरी ले लेना, मैं तेरी ले लेती हूं,

मां कैसे पहचानेगी हमको, मज़े-मज़े से देखेंगे।

 

बारिश के मौसम में

बारिश के मौसम में मन देखो, है भीग रहा

तरल-तरल-सा मन-भाव यूं कुछ पूछ रहा

क्यों मन चंचल है आज यहां कौन आया है

कैसे कह दूं किसकी यादों में मन सीज रहा

धर्मगुरुओं के अधार्मिक आचरण

 

हमारे देश में धर्मगुरुओं की बहुत बात होती है और अनगिनत धर्मगुरु हमारे चारों ओर छाये हुए हैं।

किन्तु ये धर्मगुरु कौन हैं? हम किसे धर्मगुरु कह सकते हैं? वे कौन से धर्म के ज्ञाता हैं? किस धर्म की व्याख्या वे करते हैं, कौन से धर्म की चर्चा कर रहे हैं, समझ ही नहीं आ पाता। कौन से ग्रंथों का वाचन करते हैं अथवा कौन सी परम्पराओं, आचरण, व्यवहार, संस्कृति का विश्लेषण करते हैं सम्भवतः वे स्वयं ही नहीं जानते। उनके भाषण सुनने पर कई बार ऐसा प्रतीत होता है मानों वे पांचवी कक्षा की नैतिक शिक्षा की पुस्तक से पाठ सुना रहे हैं।

वास्तव में ये तथाकथित धर्मगुरु अपने समय के कथा-वाचक हैं। पहले समय में ये अपनी मंडलियों के साथ जीवन-यापन के लिए गांवों -शहरों में कथाएं सुनाते घूमते थे। लोगों की छोटी-छोटी दान-दक्षिणा से इनका जीवन-यापन होता था। ये बंजारों की तरह घुमंतू हुआ करते थे। किन्तु समय के साथ इनके श्रोता कम होने लगे और इन लोगों ने भी किसी मन्दिर, सामाजिक स्थानों के निकट  अपना एक निश्चित ठिकाना बनाना शुरू कर दिया। इन कथा-वाचकों के साथ अब निठल्लों, अपराधियों, बेरोज़गारों का भी साथ होने लगा। जीवन-यापन के लिए इन्होंने धर्म की आड़ लेनी शुरू कर दी। धर्म के साथ पाखंड जुड़ा, फिर राजनीति।

 ऐसे लोगों पर देश का प्रायः कोई कानून लागू नहीं होता। इस बात का ही फा़यदा उठाकर; देश में फैले अंधविश्वास, निर्धनता, निरक्षरता, और दूसरी ओर राजनीति, काली कमाई के चलते इन लोगों को हमने ही उच्च पदासीन कर दिया और अपनी गाढ़ी कमाई से इनके बड़े-बडे़ करोड़ों-अरबों के आश्रम, मन्दिर, मूर्तियां, सिंहासन रच दिये। जब ये धर्मगुरू ही नहीं तो धार्मिक आचरण की अपेक्षा ही कैसे?

 ऐसे तथाकथित गुरुओं, स्वामियांे के लिए कानून होना चाहिए कि वे एक सीमा से अधिक सम्पत्ति अर्जित न कर सकें, अपनी आय का सम्पूर्ण विवरण जनता को दें, इन्हें कर के दायरे में लिया जाना चाहिए एवं सरकारी सम्पत्ति अथवा भूमि पर कार्यक्रमों की अनुमति प्रदान नहीं की जानी चाहिए। सबसे बड़ी बात मीडिया को इनका प्रचारक नहीं बनना चाहिए फिर वे विज्ञापन हों अथवा धार्मिक प्रसारण।

 

  

 

लक्ष्य संधान

पीछे लौटना तो नहीं चाहती

किन्तु कुछ लकीरें

रास्ता रोकती हैं।

कुछ हाथों में

कुछ कदमों के नीचे,

कुछ मेरे शुभचिन्तकों की

उकेरी हुई मेरी राहों में

मेरे मन-मस्तिष्क में

आन्दोलन करती हुईं।

हम ज्यों-ज्यों

बड़े होने लगते हैं

अच्छी लगती हैं

लक्ष्य की लकीरें बढ़ती हुईं।

किन्तु ऐसा क्यों

कि ज्यों-ज्यों लक्ष्यों के

दायरे बढ़ने लगे

राहें सिकुड़ने लगीं,

मंज़िल बंटने लगी

और लकीरें और गहराने लगीं।

 

फिर पड़ताल करने निकल पड़ती हूँ

आदत से मज़बूर

देखने की कोशिश करती हूँ पलटकर

जो लक्ष्य मैंने चुने थे

वे कहाँ पड़े हैं

जो अपेक्षाएं मुझसे की गईं थीं

मैं कहाँ तक पार पा सकी उनसे।

हम जीवन में

एक लक्ष्य चुनते हैं

किन्तु अपेक्षाओं की

दीवारें बन जाती हैं

और हम खड़े देखते रह जाते हैं।

-

कुछ लक्ष्य बड़े गहरे चलते हैं जीवन में।

-

अर्जुन ने एक लक्ष्य संधान किया था

चिड़िया की आंख का

और दूसरा किया था

मछली की आंख का

और इन लक्ष्यों से कितने लक्ष्य निकले

जो तीर की तरह

बिखर गये कुरूक्षेत्र में

रक्त-रंजित।

.

क्या हमारे, सबके जीवन में

ऐसा ही होता है?

 

 

 

सूर्यग्रहण के अवसर पर लिखी गई एक रचना

दूर कहीं गगन में

सूरज को मैंने देखा

चन्दा को मैंने देखा

तारे टिमटिम करते

जीवन में रंग भरते

लुका-छिपी ये खेला करते

कहते हैं दिन-रात हुई

कभी सूरज आता है

कभी चंदा जाता है

और तारे उनके आगे-पीछे

देखो कैसे भागा-भागी करते

कभी लाल-लाल

कभी काली रात डराती

फिर दिन आता

सूरज को ढूंढ रहे

कोहरे ने बाजी मारी

दिन में देखो रात हुई

चंदा ने बाजी मारी

तम की आहट से

दिन में देखो रात हुई

प्रकृति ने नवचित्र रचाया

रेखाओं की आभा ने मन मोहा

दिन-रात का यूं भाव टला

जीवन का यूं चक्र चला

कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे

कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते

बस, जीवन का यूं चक्र चला

कैसे समझा, किसने समझा

न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो

न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो

न तुम बोले न मैं, मुस्कानों में क्यों बातें करते हो

अनजाने-अनपहचाने रिश्ते अपनों से अच्छे लगते हैं

कदम ठिठकते, दहलीज रोकती, यूं ही मन चंचल करते हो

राजनीति अब बदल गई
राजनीति अब बदल गई, मानों दंगल हो रहे

देश-प्रेम की बात कहां, सब अपने सपने बो रहे

इसको काटो, उसको बांटों, बस सत्ता हथियानी है

धमा- चौकड़ी मची है मानों हथेली सरसों बो रहे

अजब-सी भटकन है

फ़िरकी की तरह

घूमती है ज़िन्दगी।

कभी इधर, कभी उधर।

दुनियादारी में उलझी

कभी सुलझी, कभी न सुलझी।

अपनी-सी न लगती

जैसे उधारी किसी की।

अजब-सी भटकन है

कामनाओं का पर्वत है

उम्र पूछती है नाम।

अक्सर मन करता है

चादर ले

सिर ढक और लम्बी तान।

किन्तु

उन सलवटों का क्या करुं

जिन्हें वर्षों से छुपाती आ रही हूँ,

उन धागों का क्या करुँ

जिन्हें दुनिया-भर में तानती आ रही हूँ।

.

यार ! छोड़ अब ये ढकोसले।

बस, अपनी छान।

चादर ले

सिर ढक और लम्बी तान।

 

एक उपहार है ज़िन्दगी

हर रोज़ एक नई कथा पढ़ाती है जिन्दगी

हर दिन एक नई आस लाती है ज़िन्दगी

कभी हंसाती-रूलाती-जताती है ज़िन्दगी

हर दिन एक नई राह दिखाती है ज़िन्दगी

कदम दर कदम नई आस दिलाती है जिन्दगी

घनघोर घटाओं में भी धूप दिखाती है जिन्दगी

कभी बादलों में कड़कती-चमकती-सी है ज़िन्दगी

कुछ पाने के लिए निरन्तर भगाती है जिन्दगी

भोर से शाम तक देखो जगमगाती है जिन्दगी

झड़ी में भी कभी-कभी धूप दिखाती है जिन्दगी

कभी आशाओं का सागर लहराती है जिन्दगी

और कभी कभी खूब धमकाती भी है जिन्दगी

तब दांव पर पूरी लगानी पड़ती है जिन्दगी

यूं ही तो नहीं  आकाश दिला देती है जिन्दगी

पर कुल मिलाकर देखें तो एक उपहार है ज़िन्दगी

 

पूछती है मुझसे मेरी कलम

राष्ट्र भक्ति के गीत लिखने के लिए कलम उठाती हूं जब जब

पूछती है मुझसे मेरी कलम, देश हित में तूने क्‍या किया अब तक

भ्रष्ट्राचार, झूठ, रिश्वतखोरी,अनैतकिता के विरूद्ध क्या लड़ी कभी

गीत लिखकर महान बनने की कोशिश करोगे कवि तुम कब तक

वक्त कब कहां मिटा देगा

वक्त कब क्यों बदलेगा कौन जाने

वक्त कब बदला लेगा कौन जाने

संभल संभल कर कदम रखना ज़रा

वक्त कब कहां मिटा देगा कौन जाने

मन हर्षित होता है

दूब पर चमकती ओस की बूंदें, मन हर्षित कर जाती हैं।

सिर झुकाई घास, देखो सदा पैरों तले रौंद दी जाती है।

कहते हैं डूबते को तृण का सहारा ही बहुत होता है,

पूजा-अर्चना में दूर्वा से ही आचमन विधि की जाती है।

 

शिक्षा की यह राह देखकर

शिक्षा की कौन-सी राह है यह

मैं समझ नहीं पाई।

आजकल

बेटियां-बेटियां

सुनने में बहुत आ रहा है।

उनको ऐसी नई राहों पर

चलना सिखलाया जा रहा है।

सामान ढोने वाली

कुण्डियों पर लटकाया जा रहा है

और शायद

विद्यालय का मार्ग दिखलाया जा रहा है।

बच्चियां हैं ये अभी

नहीं जानती कि

राहें बड़ी लम्बी, गहरी

और दलदल भरी होती हैं।

न पैरों के नीचे धरा है

न सिर पर छाया,

बस दिवा- स्वप्न दिखा-दिखाकर

अधर में फ़ंसाया जा रहा है।

अवसर मिलते ही

डराने लगते हैं हम

धमकाने लगते हैं हम।

और कभी उनका

अति गुणगान कर

भटकाने लगते हैं हम।

ये राहें दिखाकर

उनके हौंसले

तोड़ने पर लगे हैं।

नौटंकियां करने में कुशल हैं।

चांद पर पहुंच गये,

आधुनिकता के चरम पर बैठे,

लेकिन

शिक्षा की यह राह देखकर

चुल्लू भर पानी में

डूब मरने को मन करता है।

किन्तु किससे कहें,

यहां तो सभी

गुणगान करने  में जुटे हैं।