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ये धुएँ का गुबार
और चमकती रोशनियाँ
पीढ़ियों को लील जाती हैं
अपना-पराया नहीं पहचानतीं
बस विध्वंस को जानती हैं।
किसी गोलमेज़ पर
चर्चा अधूरी रह जाती है
और परिणामस्वरूप
धमाके होने लगते हैं
बम फटने लगते हैं
लोग सड़कों-राहों पर
मरने लगते हैं।
क्यों, कैसे, किसलिए
कुछ नहीं होता।
शताब्दियाँ लग जाती हैं
एक मानवता को बसाने में
और पल लगता है
उसको उजाड़ कर चले जाने में।
फिर मलबों के ढेर में
खोजते हैं
इंसान और इंसानियत,
कुछ रुपये फेंकते हैं
उनके मुँह पर
ज़हरीले आंसुओं से सींचते हैं
उनके घावों को
बदले की आग में झोंकते हैं
उनकी मानसिकता को
और फिर एक
गोलमेज़ सजाने लगते हैं।
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चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे
चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे
पर स्वतन्त्र नहीं हैं ये कपाट
चिटखनियों, कुण्डों
और कब्ज़ों में जकड़े ये कपाट।
जंग खाया हुआ सब।
पुराना और अर्थहीन।
कहीं से टेढ़े, टूटे, उलझे
ये पुरातात्विक पहरेदार।
चाहती हूं
उखाड़ फेंकूं इन सबको।
बदल देना चाहती हूं
सब पल भर में ।
औज़ार भी जुटाये हैं मैंने।
पर मैं ! विवश !
कपाट को कपाट के रूप में
प्रयोग करने में असमर्थ।
मेरे औज़ार छोटे
पहरेदार बड़े, मंजे हुए।
फिर इन्हें जंग भी पसन्द है
और अपना टेढ़ा टूटापन भी।
मेरे औज़ार इन्हें
विपक्ष का समझौता लगते हैं।
ताज़ी हवा को ये
घुसपैठिया समझते हैं।
और फूलों की गंध से इन्हें
विदेशी हस्तक्षेप की बू आती है।
इनका कहना है
कि कपाट खोल का प्रयास
हमारा षड्यन्त्र है।
पुरातात्विक अवशेषों,
इतिहास और संस्कृति को
नष्ट कर देने का।
पर अद्भुत तो यह
कि ये पुरातात्विक अवशेष
इतिहास और संस्कृति के ये जड़ प्रतीक
बन्द कपाटों के भीतर भी
बढ़ते ही जा रहे हैं दिन प्रति दिन।
ज़मीन के भीतर भी
और ज़मीन के बाहर भी।
वैसे, इतना स्वयं भी नहीं जानते वे
कि यदि उनका जंग घिसा नहीं गया
तेल नहीं दिया गया इनमें
तो स्वयं ही काट डालेगा
इन्हें एक दिन।
और अनजाने में ही
बन्द कपाटों पर
इनकी पकड़ कमज़ोर हो जायेगी।
कपाट खोलने
बहुत ज़रूरी हो गये हैं।
क्योंकि, हम सब
बाहर होकर भी कहीं न कहीं
कपाटों के भीतर जकड़े गये हैं।
अत: मैंने सोच लिया है
कि यदि औज़ार काम नहीं आये
तो मैं दीमक बनकर
कपाटों पर लग जाउंगी।
न सही तत्काल, धीरे धीरे ही सही
कपाट अन्दर ही अन्दर मिट्टी होने लगेंगे।
पहरेदार समझेंगे
उनके हाथ मज़बूत हो रहे हैं।
फिर एक दिन
पहरेदार, खड़े के खड़े रह जायेंगे
और बन्द दरवाज़े, टूटी खिड़कियां
पुरानी दीवारें
सब भरभराकर
गिर जायेंगे
कपाट स्वयंमेव खुल जायेंगे।
फिर रोशनी ही रोशनी
नयापन, ताज़ी हवा और ज़िन्दगी
सब मिलेगा एक दिन
सब बदलेगा एक दिन।
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हमारा हिन्दी दिवस
वर्ष 1975 में पहली बार किसी राज्य स्तरीय कवि सम्मेलन में हिस्सा लिया और उसके बाद मेरी प्रतिक्रिया ।
उस समय कवि सम्मेलन में कवियों को सौ रूपये मानदेय मिलता था
**************
हमारा हिन्दी दिवस।
14 सितम्बर हमारा हिन्दी दिवस।
भाषण माला हमारा हिन्दी दिवस।
कवि गोष्ठी हमारा हिन्दी दिवस।
कवि कवि, कवि श्रोता, श्रोता कवि
सारे कवि सारे श्रोता , बस कवि कवि,
सारे श्रोता सारे कवि हमारा हिन्दी दिवस।
-
कुछ नेता कुछ नेता वेत,्ता
कुछ मंत्री, मंत्री के साथ संतरी
हल्ला गुल्ला, तालियां हार मालाएं, उद्घाटन,
फ़ोटो, कैमरा, रेडियो, टी.वी. हमारा हिन्दी दिवस।
वादा है सौ रूपये का, कुछ पुरस्कारों,
मान चिन्हों का, सम्मान पदकों का। मिलेंगे।
कविता, भाषण, साहित्य, सम्मान भाड़ में।
सौ रूपया है, किराया, नई जगह घूमना।
रसद पानी, वाह वाही,
कुछ उखड़ी बिखरी कुछ टूटी फूटी हिन्दी।
हमारा हिन्दी दिवस सम्पन्न।
फिर वर्ष भर का अवकाश।
न हिन्दी न दिवस। न गोष्ठी न रूपये।
वर्ष भर की बेकारी।
मुझे लगता है
हमारा हिन्दी दिवस
सरकार का एक दत्तक पुत्र है
14 सितम्बर 1949 को गोद लिया
और उसी दिन उसकी हत्या कर दी।
अब सरकार हर 14 सितम्बर को
उसकी पुण्य तिथि धूमधाम से मनाती है
उनके नाम पर वर्ष भर से रूके
अपने कई काम पूरे करवाती है
वर्ष भर बाद
कुछ दक्षिणा मिल पाती है।
-
आह ! एक वर्ष !
फिर हिन्दी दिवस ! फिर सौ रूपये
फिर एक वर्ष ! फिर हिन्दी दिवस !
फिर ! फिर ! शायद अब तक
हिन्दी का रेट कुछ बढ़ गया हो।
अच्छा ! अगले वर्ष फिर मिलेंगे
हर वर्ष मिलेंगे।
हम हिन्दी के चौधरी हैं
हिन्दी सिर्फ हमारी बपौती है।
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सुन्दर है संसार
जीवन में
बहुत कुछ अच्छा मिलता है,
तो बुरा भी।
आह्लादकारी पल मिलते हैं,
तो कष्टों को भी झेलना पड़ता है।
सफ़लता आंगन में
कुलांचे भरती है,
तो कभी असफ़लताएं
देहरी के भीतर पसरी रहती हैं।
छल और प्रेम
दोनों जीवन साथी हैं।
कभी मन में
डर-डर कर जीता है,
तो कभी साहस की सीढ़ियां
हिमालय लांघ जाती हैं।
जीवन में खट्टा-मीठा सब मिलता है,
बस चुनना पड़ता है।
और प्रकृति के अद्भुत रूप तो
पल-पल जीने का
संदेश दे जाते हैं,
बस समझने पड़ते हैं।
एक सौन्दर्य
हमारे भीतर है,
एक सौन्दर्य बाहर।
दोनों को एक साथ जीने में
सुन्दर है संसार।
कामना मेरी
और सुन्दर हो संसार।
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सीधी राहों की तलाश में जीवन
अपने दायरे आप खींच
न तकलीफ़ों से आंखें मींच
.
हाथों की लकीरें
अजब-सी
आड़ी-तिरछी होती हैं,
जीवन की राहें भी
शायद इसीलिए
इतनी घुमावदार होती हैं।
किन्तु इन
घुमावदार राहों
पर खिंची
आड़ी-तिरछी लकीरें
गोल दायरों में घुमाती रहती हैं
जीवन भर
और हम
इन राहों के आड़े-तिरछेपन,
और गोल दायरों के बीच
अपने लिए
सीधी राहों की तलाश में
घूमते रहते हैं जीवन भर।
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एक डर में जीते हैं हम
उन्नति के शिखर पर बैठकर भी
अक्सर एक अभाव-सा रह जाता है,
पता नहीं लगता
क्या खोया
और क्या, कैसे पाया।
एक डर में जीते हैं,
न जाने कहां
पांव फिसल जायें
और
आरम्भ करना पड़े
एक नया सफ़र।
अपनी ही सफ़लताओं का
आनन्द नहीं लेते हम।
एक डर में जीते हैं हम।
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पतझड़
हरे पत्ते अचानक
लाल-पीले होने लगते हैं।
नारंगी, भूरे,
और गाढ़े लाल रंग के।
हवाएं डालियों के साथ
मदमस्त खेलती हैं,
झुलाती हैं।
पत्ते आनन्द-मग्न
लहराते हैं अपने ही अंदाज़ में।
हवाओं के संग
उड़ते-फ़िरते, लहराते,
रंग बदलते,
छूटते सम्बन्ध डालियों से।
शुष्कता उन्हें धरा पर
ले आती है।
यहां भी खेलते हैं
हवाओं संग,
बच्चों की तरह उछलते-कूदते
उड़ते फिरते,
मानों छुपन-छुपाई खेलते।
लोग कहते हैं
पतझड़ आया।
लेकिन मुझे लगता है
यही जीवन है।
और डालियों पर
हरे पत्ते पुनः अंकुरण लेने लगते हैं।
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पंखों की उड़ान परख
पंखों की उड़ान परख
गगन परख, धरा निरख ।
तुझको उड़ना सिखलाती हूं,
आशाओं के गगन से
मिलवाना चाहती हूं,
साहस देती हूं,
राहें दिखलाती हूं।
जीवन में रोशनी
रंगीनियां दिखलाती हूं।
पर याद रहे,
किसी दिन
अनायास ही
एक उछाल देकर
हट जाउंगी
तेरी राहों से।
फिर अपनी राहें
आप तलाशना,
जीवन भर की उड़ान के लिए।
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औरत की दुश्मन औरत
एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है कि औरत औरत की दुश्मन होती है। बड़ी सरलता से हमारे समाज में, व्यवहार में, परिवारों में, महिलाओं का उपहास करने के लिए इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है।
कारण प्रायः केवल सास-बहू के बनते-बिगड़ते सम्बन्धों के आधार पर सत्यापित किया जाता है। अथवा कभी-कभी ननद-भाभी की परस्पर अनबन को लेकर।
किन्तु जितनी कहानियाँ हमारे समाज में इस तरह की बुनी जाती रही हैं और महिलाओं को इन कहानियों द्वारा अपमानित किया जाता है वे सत्य में कितनी हैं? क्या हम ही अपने परिवारों में देखें तो कितनी महिलाएँ परिवारों में दुश्मनों की तरह रह रही हैं। और केवल परिवारों में ही नहीं, समाज में, कार्यस्थलों में, राहों में , कहीं भी इस वाक्य को सुनाकर महिलाओं का अपमान कर दिया जाता है।
अनबन पिता-पुत्र में भी होती है, भाईयों में भी होती है, विशेषकर कार्यस्थलों में तो बहुत ही गहन ईर्ष्या-द्वेष भाव होता है किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन है।
ऐसा क्यों ? क्यों महिलाओं के विरुद्ध इस तरह की कहावतें, मुहावरे बने हैं?
कहने को कुछ भी कह लें कि समाज बदल गया है, परिवारों में अब लड़का-लड़की समान हैं किन्तु कहीं एक क्षीण रेखा है जो भेद-भाव बताती है।
एक युवती अपना वह घर छोड़कर जाती है जहां उसने परायों की तरह बीस पच्चीस वर्ष बिताये हैं कि यह उसका घर नहीं है। और जिस घर में प्रवेश करती है वहां उसके लिए नये नियम.कानून पहले ही निर्धारित होते हैं जिनको उसे तत्काल भाव से स्वीकार करना होता है, मानों बिजली का बटन है वह, कि इस कमरे की बत्ती बुझाई और उस कमरे की जला दी। उसे अपने आपको नये वातावरण में स्थापित करने में जितना अधिक समय लगता है उतनी ही वह बुरी होती जाती है।
वास्तव में यदि सास-बहू अथवा ननद-भाभी की अनबन देखें तो वह वास्तव में अधिकार की लड़ाई है। एक युवती को मायके में अधिकार नहीं मिलते, वहाँ भाई और पिता ही सर्वोपरि होते हैं। ससुराल में वह इस आशा के साथ प्रवेश करती है कि यह उसका घर है और यहाँ उसके पास अधिकार होंगे। किन्तु उसके प्रवेश के साथ ही सास और ननद के मन में भय समा जाता है कि उनके अधिकार जाते रहेंगे। और उनकी इस मनोवैज्ञानिक समस्या में परिवार के पुरुषों का व्यवहार प्रायः आग में घी का काम करता है। वे न किसी का सहयोग देते हैं, न उचित पक्ष लेते हैं, न राह दिखाते हैं, बस औरतें तो होती ही ऐसी हैं कह कर पतली गली से निकल लेते हैं।
कभी आपने सुना कि माँ ने बेटी को घर से निकाल दिया अथवा इसके विपरीत। अथवा बेटी ने सम्पत्ति के लिए माँ के विरुद्ध कार्य किया। किन्तु पुरुषों में आप नित्य-प्रति कथाएँ सुनते हैं कि भाई भाई को मार डालता है, बेटा सम्पत्ति के लिए पिता की हत्या कर देता है। चाचे-भतीजे की लड़ाईयाँ। ज़रा-सा पढ़-लिख जाता है तो उसे अपने माता-पिता पिछड़े दिखाई देने लगते हैं ऐसी सत्य अनगिनत कथाएं हम जानते हैं, किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन होता है। आज भी नारी: पुरूष अथवा परिवार की पथगामिनी ही है, वह अपने चुने मार्ग पर कहां चल पाती है। हां, परिवार में कुछ भी गलत हो तो आरोपी वही होती है। मां-बेटे, पिता-पुत्र, अन्य सम्बन्धियों के साथ कुछ भी बिगड़े, दोषारोपण नारी पर ही आता है।
दुख इस बात का कि हम स्वयं ही अपने विरूद्ध सोचने लगे हैं क्योंकि हमारा समाज हमारे विरूद्ध सोचता है।
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ज़्यादा मत उड़
कौन सी वास्तविकता है
और कौन सा छल,
अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।
रोज़ हर रोज़
समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं
देखो हमने
नारी को
कहां से कहां पहुंचा दिया।
किसी ने चूल्हा बांटा ,
किसी ने गैस,
किसी की सब्सिडी छीनी
तो किसी की आस।
नौकरियां बांट रहे।
घर संवार रहे।
मौज करवा रहे।
स्टेटस दिलवा रहे।
कभी चांद पर खड़ी दिखी।
कभी मंच पर अड़ी दिखी।
आधुनिकता की सीढ़ी पर
आगे और आगे बढ़ी।
अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।
अंधविश्वासों ,
कुरीतियों का विरोध कर
मदमाती रही।
प्रंशसा के अंबार लगने लगे।
तुम्हारे नाम के कसीदे
बनने लगे।
साथ ही सब कहने लगे
ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं
पर तुम अड़ी रही
ज़रा भी डिगी नहीं।
-
ज़्यादा मत उड़ ।
कहीं भी हो आओ
लौटकर यहीं,
यही चूल्हा-चौका करना है।
परम्पराओं के नाम पर
घूंघट की ओट में जीना है।
और ऐसे ही मरना है।।।
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सपनों की बात न करना यारो मुझसे
आंखों में तिरते हैं, पलकों में छिपते हैं
शब्दों में बंधते हैं, आहों में कटते हैं
सपनों की बात न करना यारो मुझसे
सांसों में बिंधते हैं, राहों में चुभते हैं।