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बंसी बजाना ठीक था
रास रचाना ठीक था
गैया चराना ठीक था
माखन खाना,
ग्वाल-बाल संग
वन-वन जाना ठीक था।
यशोदा मैया
गूँथती थी केश मेरे
उसको सताना ठीक था।
कुरुक्षेत्र की यादें
अब तक मन को
मथती हैं
बड़े-बड़े महारथियों की
कथाएँ अब तक
मन में सजती हैं।
पर राधे !
अब मुझको यह भी करना होगा!!
अब मुझको
राजनीति छोड़
तुम्हारी लटों में उलझना होगा!!!
न न न, मैं नहीं अब आने वाला
तेरी उलझी लटें
मैं न सुलझाने वाला।
और काम भी करने हैं मुझको
चक्र चलाना, शंख बजाना,
मथुरा, गोकुल, द्वापर, हस्तिनापुर
कुरुक्षेत्र
न जाने कहाँ-कहाँ मुझको है जाना।
मेरे जाने के बाद
न जाने कितने नये-नये युग आये हैं
जिनका उलटा बजता ढोल
मुझे सताये है।
इन सबको भी ज़रा देख-परख लूँ
और समझ लूँ,
कैसे-कैसे इनको है निपटाना।
फिर अपने घर लौटूँगा
थक गया हूँ
अवतार ले-लेकर
अब मुझको अपने असली रूप में है आना
तुम्हें एक लिंक देता हूँ
पार्लर से किसी को बुलवा लेना
अपने केश संवरवा लेना।
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हाथ पर रखें लौ को
रोशनी के लिए दीप प्रज्वलित करते हैं
फिर दीप तले अंधेरे की बात करते हैं
तो हिम्मत करें, हाथ पर रखें लौ को
जो जग से तम मिटाने की बात करते है
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शिलालेख हैं मेरे भीतर
शिलालेख हैं मेरे भीतर कल की बीती बातों के
अपने ही जब चोट करें तब नासूर बने हैं घातों के
इन रिसते घावों की गांठे बनती हैं न खुलने वाली
अन्तिम यात्रा तक ढोते हैं हम खण्डहर इन आघातों के
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कौन है अपना कौन पराया कैसे जानें हम
अधिकार भी व्यापार हो गये हैं
तंग गलियों में हथियार हो गये हैं।
किसको मारें किसको काटें
कौन जलेगा, कहां मरेगा
अब क्या जानें हम।
अंधेरी राहों में भटक रहे हैं
अपने ही चेहरों से अनजाने हम।
दिन की भटकन छूट गई
रातें भीतर बिखर गईं
कौन है अपना कौन पराया
कैसे जानें हम।
अनजानी राहों पर
किसके पीछे
क्यों निकल पड़े हैं
इतना भी न जाने हम।
अपना ही घर फूंक रहे हैं,
राख में मोती ढूंढ रहे हैं,
श्मशानों में न घर बनते
इतना कब जानेंगे हम।
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नभ से झरते रंगों में
पत्तों पर बूंदें टिकती हैं कोने में रूकती हैं, फिर गिरती हैं
मानों रूक-रूक कर कुछ सोच रही, फिर आगे बढ़ती हैं
नभ से झरते रंगों की रंगीनियों में सज-धज कर बैठी हैं ज्यों
पल-भर में आती हैं, जाती हैं, मैं ढूंढ रही, कहां खो जाती हैं
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प्रकृति जब तेवर दिखाती है
जीवन-अंकुरण
प्रकृति का स्व-नियम है।
नई राहें
आप ढूंढती है प्रकृति।
जिजीविषा, न जाने
किसके भीतर कहां तक है,
इंसान कहां समझ पाया।
जीवन में हम
बनाते रह जाते हैं
नियम कानून,
बांधते हैं सरहदें,
कहां किसका अधिकार,
कौन अनधिकार।
प्रकृति
जब तेवर दिखाती है,
सब उलट-पुलट कर जाती है।
हालात तो यही कहते हैं,
किसी दिन रात में उगेगा सूरज
और दिन में दिखेंगें तारे।
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हर चीज़ मर गई अगर एहसास मर गया
मेरी आंखों के सामने
एक चिड़िया तार में फंसी,
उलझी-उलझी,
चीं-चीं करती
धीरे-धीरे मरती रही,
और हम दूर खड़े बेबस
शायद तमाशबीन से
देख रहे थे उसे
वैसे ही
धीरे-धीरे मरते।
तभी
चिड़ियों का एक दल
कहीं दूर से
उड़ता आया,
और उनकी चिड़चिडाहट से
गगन गूंज उठा,
रोंगटे खड़े हो गये हमारे,
और दिल दहल गया।
उनके प्रयास विफ़ल थे
किन्तु उनका दर्द
धरा और गगन को भेदकर
चीत्कार कर उठा था।
कुछ देर तक हम
देखते रहे, देखते रहे,
चिड़िया मरती रही,
चिड़ियां रूदन करती रहीं,
इतने में ही
कहीं से एक बाज आया,
चिड़ियों के दल को भेदता,
तार में फ़ंसी चिड़िया के पैर खींचे
और ले उड़ा,
कुछ देर चर्चा करते रहे हम।
फिर हम भीतर आकर
टी. वी. पर
दंगों के समाचारों का
आनन्द लेने लगे।
क्रूरता की कोई सीमा नहीं ।
हर चीज़ मर गई
अगर एहसास मर गया।
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कहां समझ पाते हैं हम
आंखें बोलती हैं
कहां पढ़ पाते हैं हम
कुछ किस्से खोलती हैं
कहां समझ पाते हैं हम
किसी की मानवता जागी
किसी की ममता उठ बैठी
पल भर के लिए
मन हुआ द्रवित
भूख से बिलखते बच्चे
बेसहारा अनाथ
चल आज इनको रोटी डालें
दो कपड़े पुराने साथ।
फिर भूल गये हम
इनका कोई सपना होगा
या इनका कोई अपना होगा,
कहां रहे, क्या कह रहे
क्यों ऐसे हाल में है
हमारी एक पीढ़ी
कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
किस पर डालें दोष
किस पर जड़ दें आरोप
इस चर्चा में दिन बीत गया !!
सांझ हुई
अपनी आंखों के सपने जागे
मित्रों की महफ़िल जमी
कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे
सौ-सौ पकवान सजे
जूठन से पंडाल भरा
अनायास मन भर आया
दया-भाव मन पर छाया
उन आंखों का सपना भागा आया
जूठन के ढेर बनाये
उन आंखों में सपने जगाये
भर-भर उनको खूब खिलाये
एक सुन्दर-सा चित्र बनाया
फे़सबुक पर खूब सजाया
चर्चा का माहौल बनाया
अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम
आप सबको अभी से करते हैं नमन
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कुछ मीठे बोल बोलकर तो देखते
कुछ मीठे बोल
बोलकर तो देखते
हम यूं ही
तुम्हारे लिए
दिल के दरवाज़े खोल देते।
क्या पाया तुमने
यूं हमारा दिल
लहू-लुहान करके।
रिक्त मिला !
कुछ सूखे रक्त कण !
न किसी का नाम
न कोई पहचान !
-
इतना भी न जान पाये हमें
कि हम कोई भी बात
दिल में नहीं रखते थे।
अब, इसमें
हमारा क्या दोष
कि
शब्दों पर तुम्हारी
पकड़ ही न थी।
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कौन पापी कौन भक्त कोई निष्कर्ष नहीं
कुछ कथाएं
जिस रूप में हमें
समझाई जाती हैं
उतना ही समझ पाते हैं हम।
ये कथाएं, हमारे भीतर
रस-बस गई हैं,
बस उतना ही
मान जाते हैं हम।
प्रश्न नहीं करते,
विवाद में नहीं पड़ते,
बस स्वीकार कर लेते हैं,
और सहज भाव से
इस परम्परा को आगे बढ़ाते हैं।
कौन पापी, कौन भक्त
कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पाते हैं हम।
अनगिन चरित्र और कथाओं में
उलझे पड़े रहते हैं हम।
विशेष पर्वों पर उनकी
महानता या दुष्कर्मों को
स्मरण करते हैं हम।
सत्य-असत्य को
कहां समझ पाये हम।
सत्य और कपोल-कल्पना के बीच,
कहीं पूजा-आराधना से,
कहीं दहन से, कहीं सज्जा से,
कहीं शक्ति का आह्वान,
तो कहीं राम का नाम,
उलझे मस्तिष्क को
शांत कर लेते हैं हम।
और जयकारा लगाते हुए
भीड़ का हिस्सा बनकर
आनन्द से प्रसाद खाते हैं हम।