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अपने दायरे आप खींच
न तकलीफ़ों से आंखें मींच
.
हाथों की लकीरें
अजब-सी
आड़ी-तिरछी होती हैं,
जीवन की राहें भी
शायद इसीलिए
इतनी घुमावदार होती हैं।
किन्तु इन
घुमावदार राहों
पर खिंची
आड़ी-तिरछी लकीरें
गोल दायरों में घुमाती रहती हैं
जीवन भर
और हम
इन राहों के आड़े-तिरछेपन,
और गोल दायरों के बीच
अपने लिए
सीधी राहों की तलाश में
घूमते रहते हैं जीवन भर।
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मन कुहुकने लगा है
इधर भीतर का मौसम
करवटें लेने लगा है
बाहर शिशिर है
पर मन बहकने लगा है
चली है बासंती बयार
मन कुहुकने लगा है
तुम्हारी बस याद ही आई
मन महकने लगा है
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वरदान और श्राप
किसी युग में
वरदान और श्राप
साथ-साथ चलते थे।
वरदान की आशा में
भक्ति
और कठोर तपस्या करते थे
किन्तु सदैव
कोई भूल
कोई चूक
ले डूबती थी
सब अच्छे कर्मों को
और वरदान से पहले
श्राप आ जाता था।
और कभी-कभी
इतनी बड़ी गठरी होती थी
भूल-चूक की
कि वरदान तक
बात पहुँच ही नहीं पाती थी
मानों कोई भारी
बैरीकेड लगा हो।
श्राप से वरदान टूटता था
और वरदान से श्राप,
काल की सीमा
अन्तहीन हुआ करती थी।
और एक खतरा
यह भी रहता था
कि पता नहीं कब वरदान
श्राप में परिवर्तित हो जाये
और श्राप वरदान में
और दोनों का घालमेल
समझ ही न आये।
-
बस
इसी डर से
मैं वरदान माँगने का
साहस ही नहीं करती
पता नहीं
भूल-चूक की
कितनी बड़ी गठरी खुल जाये
या श्राप की लम्बी सूची।
-
जो मिला है
उसमें जिये जा
मज़े की नींद लिए जा।
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परीलोक से आई है
चित्रलिखित सी प्रतीक्षारत ठहरी हो मुस्काई-सी
नभ की लाली मुख पर कुमकुम सी है छाई-सी
दीपों की आभा में आलोकित, घूंघट की ओट में
नयनाभिराम रूप लिए परीलोक से आई है सकुचाई-सी
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बेभाव अपनापन बांटते हैं
किसी को
अपना बना सकें तो क्या बात है।
जब रह रह कर
मन उदास होता है,
तब बिना वजह
खिलखिला सकें तो क्या बात है।
चलो आज
उड़ती चिड़िया के पंख गिने,
जो काम कोई न कर सकता
वही आज कर लें
तो क्या बात है।
किसी की
प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।
चलो,
आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,
किसी अपने को
सच में
अपना बना सकें तो क्या बात है।
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चल मन आज भीग लेते हैं ज़रा
चल मन आज भीग लेते हैं ज़रा
हवाओं का रूख देख लेते हैं ज़रा
धरा भी नम होकर स्वागत कर रही
हटा आवरण, हवाओं संग उड़ते हैं ज़रा
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त्रिवेणी विधा में रचना २
चेहरे अब अपने ही चेहरे पहचानते नहीं
मोहरे अब चालें चलना जानते ही नहीं
रीति बदल गई है यहां प्रहार करने की
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शुभकामना संदेश
एक समय था
जब हम
हाथों से कार्ड बनाया करते थे
रंगों और मन की
रंगीनियों से सजाया करते थे।
अच्छी-अच्छी शब्दावली चुनकर
मन के भाव बनाया करते थे।
लिफ़ाफ़ों पर
सुन्दर लिखावट से
पता लिखवाया करते थे।
और प्रतीक्षा भी रहती थी
ऐसे ही कार्ड की
मिलेंगे किसी के मन के भावों से
सजे शुभकामना संदेश।
फिर धन्यवाद का पत्र लिखवाया करते थे।
.
समय बदला
बना-बनाया कार्ड आया
मन के रंग
बनाये-बनाये शब्दों के संग
बाज़ार में मिलने लगे
और हम अपने भावों को
छपे कार्ड पर ही समझने लगे।
.
और अब
भाव नहीं
शब्द रह गये
बने-बनाये चित्र
और नाम रह गये।
न कलम है, न कार्ड है
न पत्र है, न तार है
न टिकट है न भार है
न व्यय है
न समय की मार है
पल भर का काम है
सैंकड़ों का आभार है
ज़रा-सी अंगुली चलाईये
एक नहीं,
बीसियों
शुभकामना संदेश पाईये
औपचारिकताएँ निभाईये
काॅपी-पेस्ट कीजिए
एक से संदेश भेजिए
और एक से संदेश पाईये
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गधा-पुराण
पता था मुझे पहले ही
गधों के सींग नहीं होते,
किन्तु शायद
आपको पता नहीं
कि गधों में ही अक्ल होती है।
गधे को गधा कह दिया
तो बुरा क्यों मानना।
दूसरों का बोझा ढोते हैं
इसीलिए,
खा-पीकर
आराम से सोते हैं।
मार का क्या।
वह तो सभी को पड़ती है
बस यह मत पूछना कैसे-कैसे,
बड़े-बड़ों की पोल खुल जायेगी
और यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा।
गधे को घास तो डालते हैं,
आपको क्या मिलता है।
और ज़रूरत पड़ने पर
इसी गधे को
बाप भी बना लेते हैं।
आज के लिए इतना ही बहुत है
गधा-पुराण।
बाकी फिर कभी सही।
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बचपन-बचपन खेलें
हमने फ़ोन बनाया
न बिल आया
न हैंग हुआ।
न पैसे लगे
न टैंग हुआ।
न टूटे-फ़ूटे,
न सिग्नल की चिन्ता
न चार्ज किया।
न लड़ाई
न बहस-बसाई।
जब तक
चाहे बात करो
कोई न रोके
कोई न टोके।
हम भी लें लें
तुम भी ले लो
आओ आओ
बचपन-बचपन खेलें।
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अपने भीतर झांक
नदी-तट पर बैठ
करें हम प्रलाप
हो रहा दूषित जल
क्या कर रही सरकार।
भूल गये हम
जब हमने
पिकनिक यहां मनाई थी
कुछ पन्नियां, कुछ बोतलें
यहीं जल में बहाईं थीं
कचरा-वचरा, बचा-खुचा
छोड़ वहीं पर
मस्ती में
हम घर लौटे थे।
साफ़-सफ़ाई पर
किश्तीवाले को
हमने खूब सुनाई थी।
फिर अगले दिन
नदियों की दुर्दशा पर
एक अच्छी कविता-कहानी
बनाई थी।