साथी तेरा प्यार

साथी तेरा प्यार

जैसे खट्टा-मीठा

मिर्ची का अचार।

कभी पतझड़

तो कभी बहार,

कभी कण्टक चुभते

कभी फूल खिलें।

कभी कड़क-कड़क

बिजली कड़के

कभी बिन बादल बरसात।

कभी नदियां उफ़ने

कभी तलछट बनते

कभी लहर-लहर

कभी भंवर-भंवर।

कभी राग बने

सुर-साज सजे

जीवन की हर तान बजे।

लुक-छिप, लुक-छिप

खेल चला

जीवन का यूं ही

मेल चला।

साथी तेरा प्यार

जैसे खट्टा-मीठा अचार।

 

मौत कब आयेगी

कहते हैं

मौत कब आयेगी

कोई नहीं जानता

किन्तु

रावण जानता था

कि उसकी मौत कब आयेगी

और कौन होगा उसका हंता।

 

प्रश्न यह नहीं

कि उद्देश्य क्या रहा होगा,

चिन्तन यह कि

जब संधान होगा

तब कुछ तो घटेगा ही।

और यूंही तो

नहीं साधा होगा निशाना

कुछ तो मन में रहा होगा ही।

जब तीर छूटेगा

तो निशाने पर लगे

या न लगे

कहीं तो लगेगा ही

फिर वह

मछली की आंख हो अथवा

पिता-पुत्र की देह।

 

चालें चलते

भेड़ें अब दिखती नहीं

भेड़-चाल रह गई है।

किसके पीछे

किसके आगे

कौन चल रहा

देखने की बात

रह गई है।

भेड़ों के अब रंग बदल गये

ऊन उतर गई

चाल बदल गई

पहचान कहां रह गई है।

किसके भीतर कौन सी चाल

कहां समझ रह गई है।

चालें चलते, बस चालें चलते

समझ-बूझ कहां रह गई है।

 

किससे बात करुं मैं

चारों ओर खलबली है।

समाचारों में सनसनी है।

सड़कों पर हंगामा है।

आन्दोलन-उपद्रव चल रहे हैं

और हम

सास-बहू के मुद्दों पर लिख रहे हैं।

गढ़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं।

पुरानी सीवनें उधेड़ रहे हैं।

खिड़की से बाहर का अंधेरा नहीं दिखता

दूर देश में रोशनियां खोज रहे हैं।

हज़ार साल पुरानी बातों का

पिष्ट-पेषण करने में लगे हैं,

और अपने घर में लगी आग से

हाथ सेंकने में लगे हैं।

 

और यदि और कुछ न हो पाये

तो हमारे पास

ऊपर वाले बहुत हैं,

उनका नाम जपकर

मुंह ढककर सो रहे हैं।

 

कितना भी मुंह मोड़ लें,

हाथों को जोड़ लें,

शोर को रोक लें,

कानों में रुईं ठूंस लें,

किसी दिन तो

अपने घाव भी रिसेंगे ही।

वैसे भी मुंह मोड़ने

या छुपाने से

कान बन्द नहीं होते,

बस मुंह चुराते हैं हम।

सच लिखने से घबराते हैं हम।

और यदि

औन कुछ न दिखे

तो करताल बजाते हैं हम।

खड़ताल खड़काते हैं हम।

 

रोज़, हर रोज़

बेवजह

मरने वालों का

हिसाब नहीं मांगती मैं।

किन्तु हमारे भाव मर रहे हैं,

सोच मर रही है,

बेबाक बोलने की आवाज़ डर रही है।

किससे बात करुं मैं ?

 

आया कोरोना

घर में कहां से घुस आया कोरोना

हम जानते नहीं।

दूरियां थीं, द्वार बन्द थे,

 डाक्टर मानते नहीं।

कहां हुई लापरवाही,

 कहां से कौन लाया,

पता नहीं।

एक-एक कर पांचों विकेट गिरे,

अस्पताल के चक्कर काटे,

जूझ रहे,

फिर हुए खड़े,

हार हम मानते नहीं।

अनूठी है यह दुनिया

 अनूठी है यह दुनिया, अनोखे यहां के लोग।

पहचान नहीं हो पाई कौन हैं  अपने लोग।

कष्टों में दिखते नहीं, वैसे संसार भरा-पूरा,

कहने को अनुपम, अप्रतिम, सर्वोत्तम हैं ये लोग।

पीतल है या सोना

 सोना वही सोना है, जिस पर अब हाॅलमार्क होगा।

मां, दादी से मिले आभूषण, मिट्टी का मोल होगा।

वैसे भी लाॅकर में बन्द पड़े हैं, पीतल है या सोना,

सोने के भाव राशन मिले, तब सोने का क्या होगा।

सावन नया

 

रात -दिन अंखियों में बसता दर्द का सावन नया

बाहर बरसे, भीतर बरसे, मन भरमाता सावन नया

कभी मिलते, कभी बिछुड़ते, दर्द का सागर मिला

भावों की नदिया सूखी, कहने को है सावन नया

 

 

स्वाधीनता या  स्वच्छन्दता

स्वाधीनता अब स्वच्छन्दता बनती जा रही है।

विनम्रता अब आक्रोश में बदलती जा रही है।

सत्य से कब तक मुंह मोड़कर बैठे रहेंगे हम

कर्तव्यों से विमुखता अब बढ़ती जा रही है।

 

आज़ादी की क्या कीमत

कहां समझे हम आज़ादी की क्या कीमत होती है।

कहां समझे हम बलिदानों की क्या कीमत होती है।

मिली हमें बन्द आंखों में आज़ादी, झोली में पाई हमने

कहां समझे हम राष्ट््भक्ति की क्या कीमत होती है।

 

नेह की पौध बीजिए

घृणा की खरपतवार से बचकर चलिए।

इस अनचाही खेती को उजाड़कर चलिए।

कब, कहां कैसे फैले, कहां समझें हैं हम,

नेह की पौध बीजिए, नेह से सींचते चलिए।

 

बस नेह मांगती है

कोई मांग नहीं करती बस नेह मांगती है बहन।

आशीष देती, सुख मांगती, भाई के लिए बहन।

दुख-सुख में साथी, पर जीवन अधूरा लगता है,

जब भाई भाव नहीं समझता, तब रोती है बहन।

 

परिवर्तन नियम है

 परिवर्तन नित्य है,

परिवर्तन नियम है

किन्तु कहां समझ पाते हैं हम।

रात-दिन,

दिन-रात में बदल जाते हैं

धूप छांव बन ढलती है

सुख-दुःख आते-जाते हैं

कभी कुहासा कभी झड़ी

और कभी तूफ़ान पलट जाते हैं।

हंसते-हंसते रो देता है मन

और रोते-रोते

होंठ मुस्का देते हैं

जैसे कभी बादलों से झांकता है चांद

और कभी अमावस्या छा जाती है।

सूरज तपता है,

आग उगलता है

पर रोशनी की आस देता है।

जैसे हवाओं के झोंकों से

कली कभी फूल बन जाती है

तो कभी झटक कर

मिट्टी में मिल जाती है।

बड़ा लम्बा उलट-फ़ेर है यह।

कौन समझा है यहां।

 

तेरी माया तू ही जाने

कभी तो चांद पलट न।

कभी तो सूरज अटक न।

रात-दिन का आभास देते,

तम-प्रकाश का भाव देते,

कभी तो दूर सटक न।

चांद को अक्सर

दिन में देखती हूं,

कभी तो सूरज

रात में निकल न।

तुम्हारा तो आवागमन है

प्रकृति का चलन है

हमने न जाने कितने

भाव बांध लिये हैं

रात-दिन का मतलब

सुख-दुख, अच्छा-बुरा

और न जाने क्या-क्या।

कभी तो इन सबसे

हो अलग न।

तेरी माया तू ही जाने

कभी तो रात-दिन से

भटक न।

 

जब एक तिनका फंसता है

दांत में

जब एक तिनका फंस जाता है

हम लगे रहते हैं

जिह्वा से, सूई से,

एक और तिनके से

उसे निकालने में।

 

किन्तु , इधर

कुछ ऐसा फंसने लगा है गले में

जिसे, आज हम

देख तो नहीं पा रहे हैं,

जो धीरे-धीरे, अदृश्य,

एक अभेद्य दीवार बनकर

घेर रहा है हमें चारों आेर से।

और हम नादान

उसे दांत का–सा तिनका समझकर

कुछ बड़े तिनकों को जोड़-जोड़कर

आनन्दित हो रहे हैं।

किन्तु बस

इतना ही समझना बाकी रह गया है

कि जो कृत्य हम कर रहे हैं

न तो तिनके से काम चलने वाला है

न सूई से और न ही जिह्वा से।

सीधे झाड़ू ही फ़िरेगा

हमारे जीवन के रंगों पर।

 

कुहासे में उलझी जि़न्दगी

कभी-कभी

छोटी-छोटी रोशनी भी

मन आलोकित कर जाती है।

कुहासे में उलझी जि़न्दगी

एक बेहिसाब पटरी पर

दौड़ती चली जाती है।

राहों में आती हैं

कितनी ही रोशनियां

कितने ठहराव

कुछ नये, कुछ पुराने,

जाने-अनजाने पड़ाव

कभी कोई अनायास बन्द कर देता है

और कभी उन्मुक्तु हो जाते हैं सब द्वार

बस मन आश्‍वस्‍त है

कि जो भी हो

देर-सवेर

अपने ठिकाने पहुंच ही जाती है।

 

प्रकृति मुस्काती है

मधुर शब्द

पहली बरसात की

मीठी फुहारों-से होते हैं

मानों हल्के-फुल्के छींटे,

अंजुरियों में

भरती-झरती बूंदें

चेहरे पर रुकती-बहतीं,

पत्तों को रुक-रुक छूतीं

फूलों पर खेलती,

धरा पर भागती-दौड़ती

यहां-वहां मस्ती से झूमती

प्रकृति मुस्काती है

मन आह्लादित होता है।

 

ले जीवन का आनन्द

सपनों की सीढ़ी तानी

चलें गगन की ओर

लहराती बदरियां

सागर की लहरियां

चंदा की चांदनी

करती उच्छृंखल मन।

लरजती डालियों से

झांकती हैं रोशनियां

कहती हैं

ले जीवन का आनन्द।

 

पुतले बनकर रह गये हैं हम

हां , जी हां

पुतले बनकर रह गये हैं हम।

मतदाता तो कभी थे ही नहीं,

कल भी कठपुतलियां थे

आज भी हैं

और शायद कल भी रहेंगे।

कौन नचा रहा है

और कौन भुना रहा है

सब जानते हैं।

स्वार्थान्धता की कोई सीमा नहीं।

बुद्धि कुण्ठित हो चुकी है

जिह्वा को लकवा मार गया है

और श्रवण-शक्ति क्षीण हो चुकी है।

फिर भी आरोप-प्रत्यारोप की एक

लम्बी सूची है

और यहां जिह्वा खूब चलती है।

किन्तु जब

निर्णय की बात आती है

तब हम कठपुतलियां ही ठीक हैं।

 

 

 

 

​​​​​​​ससम्मान बात करनी पड़ती है

पता नहीं वह धोबी कहां है

जिस पर यह मुहावरा बना था

घर का न घाट का।

वैसे इस मुहावरे में

दो जीव भी हुआ करते थे।

जब से समझ आई है

यही सुना है

कि धोबी के गधे हुआ करते थे

जिन पर वे

अपनी गठरियां ठोते थे।

किन्तु मुहावरे से

गर्दभ जी तो गायब हैं

हमारी जिह्वा पर

श्वान महोदय रह गये।

 

और आगे सुनिये मेरा दर्शन।

धोबी के दर्शन तो

कभी-कभार

अब भी हो जाते हैं

किन्तु गर्दभ और श्वान

दोनों ही

अपने-अपने

अलग दल बनाकर

उंचाईयां छू रहे हैं।

इसीलिए जी का प्रयोग किया है

ससम्मान बात करनी पड़ती है।

 

 

 

 

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं

इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है

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सुनते हैं

अक्ल घास चरने गई है

मति मारी गई है

और समझ भ्रष्ट हो गई है

विवेक-अविवेक का अन्तर

भूल गये हैं

और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा 

हमारे ऋषि-मुनियों की

धरोहर हुआ करती थीं

जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये

अपनी धरोहर को।

 बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये

और हम

यूं ही

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।

 

 

प्रेम-सम्बन्ध

 

दो क्षणिकाएं

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प्रेम-सम्बन्ध

कदम बहके

चेहरा खिले

यूं ही मुस्काये

होंठों पर चुप्पी

पर आंखें

कहां मानें

सब कह डालें।

*-*

प्रेम-सम्बन्ध

मानों बहता दरिया

शीतल समीर

बहकते फूल

खिलता पराग

ठण्डी छांव

आकाश से

बरसते तुषार।

 

क्षमा-मंत्र

कोई मांगने ही नहीं आता

हम तो

क्षमाओं का पिटारा लिए

कब से खड़े हैं।

सबकी ग़लतियां तलाश रहे हैं

भरने के लिए

टोकरा उठाये घूम रहे हैं।

आपको बता दें

हम तो दूध के धुले हैं,

महान हैं, श्रेष्ठ हैं,

सर्वश्रेष्ठ हैं,

और इनके

जितने पर्यायवाची हैं

सब हैं।

और समझिए

कितने दानी , महादानी हैं,

क्षमाओं का पिटारा लिए घूम रहे हैं,

कोई तो ले ले, ले ले, ले ले।

 

वृक्षों के लिए जगह नहीं

अट्टालिकाओं  की दीवारों से

लटकती है

मंहगी  हरियाली।

घरों के भीतर

बैठै हैं बोनसाई।

वन-कानन

कहीं दूर खिसक गये हैं।

शहरों की मज़बूती

वृक्षों के लिए जगह नहीं दे पाती।

नदियां उफ़नने लगी हैं।

पहाड़ दरकने लगे हैं।

हरियाली की आस में

बैठा है हाथ में पौध लिए

आम आदमी,

कहां रोपूं इसे

कि अगली पीढ़ी को

ताज़ी हवा,

सुहाना परिवेश दे सकूं।

.

मैंने कहा

डर मत,

हवाओं की मशीनें आ गई हैं

लगवा लेगी अगली पीढ़ी।

तू बस अपना सोच।

यही आज की सच्चाई है

कोई माने या न माने

 

 

कितना मुश्किल होता है

कितना मुश्किल होता है

जब रोटी गोल न पकती है

दूध उफ़नकर बहता है

सब बिखरा-बिखरा रहता है।

 

तब बच्चा दिनभर रोता है

न खाता है न सोता है

मन उखड़ा-उखडा़ रहता है।

 

कितना मुश्किल होता है

जब पैसा पास न होता है

रोज़ नये तकाज़े सुनता

मन सहमा-सहमा रहता है।

 

तब आंखों में रातें कटती हैं

पल-भर काम न होता है

मन हारा-हारा रहता है।

 

कितना मुश्किल होता है,

जब वादा मिलने का करते हैं

पर कह देते हैं भूल गये,

मन तनहा-तनहा रहता है।

 

तब तपता है सावन में जेठ,

आंखों में सागर लहराता है

मन भीगा-भीगा रहता है ।

 

कितना मुश्किल होता है

जब बिजली गुल हो जाती है

रात अंधेरी घबराती है

मन डरा-डरा-सा रहता है।

 

तब तारे टिमटिम करते हैं

चांदी-सी रात चमकती है

मन हरषा-हरषा रहता है।

कुछ नया

मैं,

निरन्तर

टूट टूटकर,

फिर फिर जुड़ने वाली,

वह चट्टान हूं

जो जितनी बार टूटती है

जुड़ने से पहले,

उतनी ही बार

अपने भीतर

कुछ नया समेट लेती है।

मैं चाहती हूं

कि तुम मुझे

बार बार तोड़ते रहो

और  मैं

फिर फिर जुड़ती रहूं।

वक्त की रफ्तार देख कर

वक्त की रफ्तार देख कर
मैंने कहा, ठहर ज़रा,
साथ चलना है मुझे तुम्हारे।
वक्त, ऐसा ठहरा
कि चलना ही भूल गया।

आज इस मोड़ पर समझ आया,
वक्त किसी के साथ नहीं चलता।
वक्त ने बहुत आवाज़ें दी थीं,
बहुत बार चेताया था मुझे,
द्वार खटखटाया था मेरा,
किन्तु न जाने
किस गुरूर में था मेरा मन,
हवा का झोंका समझ कर
उपेक्षा करती रही।

वक्त के साथ नहीं चल पाते हम।
बस हर वक्त
किसी न किसी वक्त को कोसते हैं।
एक भी
ईमानदार कोशिश नहीं करते,
अपने वक्त को,
अपने सही वक्त को पहचानने की ।

अंधेरों और रोशनियों का संगम है जीवन

भाव उमड़ते हैं,

मिटते हैं, उड़ते हैं,

चमकते हैं।

पंख फैलाती हैं

आशाएं, कामनाएं।

लेकिन, रोशनियां

धीरे-धीरे पिघलती हैं,

बूंद-बूंद गिरती हैं।

अंधेरे पसरने लगते हैं।

रोशनियां यूं तो

लुभावनी लगती हैं,

लेकिन अंधेरे में

खो जाती हैं

कितनी ही रोशनियां।

मिटती हैं, सिमटती हैं,

जाते-जाते कह जाती हैं,

अंधेरों और रोशनियों का

संगम है जीवन,

यह हम पर है

कि हम किसमें जीते हैं।

 

सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी

जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी

कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे

आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।

तरल-तरल भाव सी

बहकती है ज़िन्दगी

राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी

चलें हिल-मिल

कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी

किसी और से क्या लेना

जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी

आज भीग ले अन्तर्मन,

कदम-दर-कदम

मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी

राहें सूनी हैं तो क्या,

तुम साथ हो

तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।

आगे बढ़ते रहें

तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी

    

जब प्रेम कहीं से मिलता है

अनबोले शब्दों की चोटें

भावों को ठूंठ बना जाती हैं।

कब रस-पल्लव झड़ गये

जान नहीं पाते हैं।

जब प्रेम कहीं से मिलता है,

तब मन कोमल कोंपल हो जाता है।

रूखे-रूखे भावों से आहत,

मन तरल-तरल हो जाता है।

बिखरे सम्बन्धों के तार कहीं जुड़ते हैं।

जीवन हरा-भरा हो जाता है।

मुस्काते हैं कुछ नव-पल्ल्व,

कुछ कलियां करवट लेती हैं,

जीवन इक खिली-खिली

बगिया-सा हो जाता है।