औरत की दुश्मन औरत
एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है कि औरत औरत की दुश्मन होती है। बड़ी सरलता से हमारे समाज में, व्यवहार में, परिवारों में, महिलाओं का उपहास करने के लिए इस वाक्य का प्रयोग किया जाता है।
कारण प्रायः केवल सास-बहू के बनते-बिगड़ते सम्बन्धों के आधार पर सत्यापित किया जाता है। अथवा कभी-कभी ननद-भाभी की परस्पर अनबन को लेकर।
किन्तु जितनी कहानियाँ हमारे समाज में इस तरह की बुनी जाती रही हैं और महिलाओं को इन कहानियों द्वारा अपमानित किया जाता है वे सत्य में कितनी हैं? क्या हम ही अपने परिवारों में देखें तो कितनी महिलाएँ परिवारों में दुश्मनों की तरह रह रही हैं। और केवल परिवारों में ही नहीं, समाज में, कार्यस्थलों में, राहों में , कहीं भी इस वाक्य को सुनाकर महिलाओं का अपमान कर दिया जाता है।
अनबन पिता-पुत्र में भी होती है, भाईयों में भी होती है, विशेषकर कार्यस्थलों में तो बहुत ही गहन ईर्ष्या-द्वेष भाव होता है किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन है।
ऐसा क्यों ? क्यों महिलाओं के विरुद्ध इस तरह की कहावतें, मुहावरे बने हैं?
कहने को कुछ भी कह लें कि समाज बदल गया है, परिवारों में अब लड़का-लड़की समान हैं किन्तु कहीं एक क्षीण रेखा है जो भेद-भाव बताती है।
एक युवती अपना वह घर छोड़कर जाती है जहां उसने परायों की तरह बीस पच्चीस वर्ष बिताये हैं कि यह उसका घर नहीं है। और जिस घर में प्रवेश करती है वहां उसके लिए नये नियम.कानून पहले ही निर्धारित होते हैं जिनको उसे तत्काल भाव से स्वीकार करना होता है, मानों बिजली का बटन है वह, कि इस कमरे की बत्ती बुझाई और उस कमरे की जला दी। उसे अपने आपको नये वातावरण में स्थापित करने में जितना अधिक समय लगता है उतनी ही वह बुरी होती जाती है।
वास्तव में यदि सास-बहू अथवा ननद-भाभी की अनबन देखें तो वह वास्तव में अधिकार की लड़ाई है। एक युवती को मायके में अधिकार नहीं मिलते, वहाँ भाई और पिता ही सर्वोपरि होते हैं। ससुराल में वह इस आशा के साथ प्रवेश करती है कि यह उसका घर है और यहाँ उसके पास अधिकार होंगे। किन्तु उसके प्रवेश के साथ ही सास और ननद के मन में भय समा जाता है कि उनके अधिकार जाते रहेंगे। और उनकी इस मनोवैज्ञानिक समस्या में परिवार के पुरुषों का व्यवहार प्रायः आग में घी का काम करता है। वे न किसी का सहयोग देते हैं, न उचित पक्ष लेते हैं, न राह दिखाते हैं, बस औरतें तो होती ही ऐसी हैं कह कर पतली गली से निकल लेते हैं।
कभी आपने सुना कि माँ ने बेटी को घर से निकाल दिया अथवा इसके विपरीत। अथवा बेटी ने सम्पत्ति के लिए माँ के विरुद्ध कार्य किया। किन्तु पुरुषों में आप नित्य-प्रति कथाएँ सुनते हैं कि भाई भाई को मार डालता है, बेटा सम्पत्ति के लिए पिता की हत्या कर देता है। चाचे-भतीजे की लड़ाईयाँ। ज़रा-सा पढ़-लिख जाता है तो उसे अपने माता-पिता पिछड़े दिखाई देने लगते हैं ऐसी सत्य अनगिनत कथाएं हम जानते हैं, किन्तु कोई नहीं कहता कि आदमी आदमी का दुश्मन होता है। आज भी नारी: पुरूष अथवा परिवार की पथगामिनी ही है, वह अपने चुने मार्ग पर कहां चल पाती है। हां, परिवार में कुछ भी गलत हो तो आरोपी वही होती है। मां-बेटे, पिता-पुत्र, अन्य सम्बन्धियों के साथ कुछ भी बिगड़े, दोषारोपण नारी पर ही आता है।
दुख इस बात का कि हम स्वयं ही अपने विरूद्ध सोचने लगे हैं क्योंकि हमारा समाज हमारे विरूद्ध सोचता है।
हंस-हंसकर बीते जीवन क्या घट जायेगा
यह मन अद्भुत है, छोटी-छोटी बातों पर रोता है
ज़रा-ज़रा-सी बात पर यूं ही शोकाकुल होता है
हंस-हंसकर बीते जीवन तो तेरा क्या घट जायेगा
गाल फुलाकर जीने से जीवन न बेहतर होता है
राजनीति अब बदल गई
राजनीति अब बदल गई, मानों दंगल हो रहे
देश-प्रेम की बात कहां, सब अपने सपने बो रहे
इसको काटो, उसको बांटों, बस सत्ता हथियानी है
धमा- चौकड़ी मची है मानों हथेली सरसों बो रहे
जीवन कितने पल
किसने जाना जीवन कितने पल।
अनमोल है जीवन का हर पल।
यहां दुख-सुख तो आने जाने हैं
आनन्द उठा जीवन में पल-पल।
नये नये की आस में
नये नये की आस में क्यों भटकता है मन
न जाने क्यों इधर-उधर अटकता है मन
जो मिला है उसे तो जी भर जी ले प्यारे
क्यों औरों के सुख देखकर भटकता है मन
कृष्ण आजा चक्र अपना लेकर
आज तेरी राधा आई है तेरे पास बस एक याचना लेकर
जब भी धरा पर बढ़ा अत्याचार तू आया है अवतार लेकर
काल कुछ लम्बा ही खिंच गया है हे कृष्ण ! अबकी बार
आज इस धरा पर तेरी है ज़रूरत, आजा चक्र अपना लेकर
कर्मनिष्ठ जीवन तो जीना होगा
ये कैसा रंगरूप अब तुम ओढ़कर चले हो,
क्यों तुम दुनिया से यूं मुंह मोड़कर चले हो,
कर्मनिष्ठ-जीवन में विपदाओं से जूझना होगा,
त्याग के नाम पर कौन से सफ़र पर चले हो।
आशाओं-आकांक्षाओं का जाल
यह असमंजस की स्थिति है
कि जब भी मैं
सिर उठाकर
धरती से
आकाश को
निहारती थी
तब चांद-तारे सब
छोटे-छोटे से दिखाई देते थे
कि जब चाहे मुट्ठी में भर लूं।
दमकते सूर्य को
नज़बट्टू बनाकर
द्वार पर टांग लूं।
लेकिन यहां धरती पर
आशाओं-आकांक्षाओं का जाल
निराकार होते हुए भी
इतना बड़ा है
कि न मुट्ठी में आता है
न हृदय में समाता है।
चाहतें बड़ी-बड़ी
विशालकाय
आकाश में भी न समायें।
मन, छोटा-सा
ज़रा-ज़रा-सी बात पर
बड़ा-सा ललचाए।
खुली मुट्ठी बन्द नहीं होती
और बन्द हो जाये
तो खुलती नहीं,
दरकता है सब।
छूटता है सब।
टूटता है सब।
आकाश और धरती के बीच का रास्ता
बहुत लम्बा है
और अनजाना भी
और शायद अकेला भी।
खुली-बन्द होती मुट्ठियों के बीच
बस
रह जाता है आवागमन।
यह जीवन है
कुछ गांठें जीवन-भर
टीस देती हैं
और अन्त में
एक बड़ी गांठ बनकर
जीवन ले लेती हैं।
जीवन-भर
गांठों को उकेरते रहें
खोलते
या किसी से
खुलवाते रहें,
बेहिचक बांटते रहें
गांठों की रिक्तता,
या उनके भीतर
जमा मवाद उकेरते रहें,
तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन
नहीं देंगी जीवन-भर का अवसाद।
बालपन को जी लें
अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें
यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें
कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते
वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें
हिंदी दिवस की आवश्यकता क्यों
14 सितम्बर 1949 को हिन्दी को संविधान में राष्ट््रभाषा के रूप में मान्यता दी गई और हम इस दिन हिन्दी दिवस मनाने लगे। क्यों मनाते हैं हम हिन्दी दिवस? हिन्दी के लिए क्या करते हैं हम इस दिन? कितना चिन्तन होता है इस दिन हिन्दी के बारे में। हिन्दी के प्रचार-प्रसार पर सरकारी, गैर सरकारी हिन्दी संस्थाएं कितनी योजनाएं बनती हैं? अखिल भारतीय स्तर के हिन्दी संस्थान हिन्दी की स्थिति पर क्या चिन्तन करते हैं? क्या कभी इस बात पर किसी भी स्तर पर चिन्तन किया जाता है कि वर्तमान में हिन्दी की देश में स्थिति क्या है और भविष्य के लिए क्या योजना होना चाहिए? शिक्षा में हिन्दी का क्या स्तर है, क्या इस बात पर कभी चर्चा होती है?
इन सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं में हैं।
प्रत्येक कार्यालय में हिन्दी दिवस मनाया जाता है। भाषण-प्रतियोगिताएं, लेखन प्रतियोगिताएं, कवि-सम्मेलन, कुछ सम्मान और पुरस्कार, और अन्त में समोसा, चाय, गुलाबजामुन के साथ हिन्दी दिवस सम्पन्न। तो इसलिए मनाते हैं हम हिन्दी दिवस।
नाम हिन्दी में लिख लिए, नामपट्ट हिन्दी में लगा लिए, जैसे छोटे-छोटे प्रचारात्मक प्रयासों से हिन्दी का क्या होगा?
हम चाहते हैं कि हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो, हिन्दी शिक्षा का माध्यम बने, किन्तु क्या हम कोई प्रयास करते हैं? क्या आज तक किसी संस्था ने हिन्दी दिवस के दिन सरकार को कोई ज्ञापन दिया है कि हिन्दी को देश में किस तरह से लागू किया जाना चाहिए। हिन्दी संस्थानों का कार्य केवल हिन्दी की कुछ तथाकथित पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करना, पुरस्कार बांटना और कुछ छात्रवृत्तियां देने तक ही सीमित है। हां, हिन्दी सरल होनी चाहिए, दूसरी भाषाओं के शब्दों को हिन्दी में लिया जाना चाहिए, हिन्दी बोलचाल की भाषा बननी चाहिए, अंग्रेज़ी का विरोध किया जाना चाहिए, बस हमारी इतनी ही सोच है।
वर्तमान में भारतीय भाषा वैभिन्नय एवं वैश्विक स्तर से यदि देखें तो हिन्दी में] हिन्दी माध्यम में एवं प्रत्येक विधा, ज्ञान का अध्ययन असम्भव प्रायः है, यह बात हमें ईमानदारी से मान लेनी चाहिए। हिन्दी को अपना स्थान चाहिए न कि अन्य भाषाओं का विरोध।
आज हिन्दी वर्णमाला का कोई एक मानक रूप नहीं दिखाई देता। दसवीं कक्षा तक विवशता से हिन्दी पढ़ाई और पढ़ी जाती है। किन्तु यदि हिन्दी विषय को, भाषा, साहित्य, इतिहास को प्रत्येक स्तर पर अनिवार्य कर दिया जाये तब हिन्दी को सम्भवतः उसका स्थान मिल सकता है। उच्च शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर हिन्दी की एक परीक्षा, अध्ययन अनिवार्य होना चाहिए, हिन्दी साहित्येतिहास, अनिवार्य कर दिया जाये, तब हिन्दी की स्थिति में सुधार आ सकता है।
आज हम बच्चों के लिए अपनी संस्कृति,परम्पराओं की बात करते हैं। यदि हम हिन्दी पढ़ते हैं तब हम अपनी संस्कृति, सभ्यता, प्राचीन साहित्य, कलाओं, परम्पराओं , सभी का अध्ययन कर सकते हैं। और इसके लिए एक बड़े अभियान की आवश्यकता है न कि हम यह सोच कर प्रसन्न हो लें कि अब तो फ़ेसबुक पर भी सब हिन्दी लिखते हैं।
अतः किसी एक दिन हिन्दी दिवस मनाने की आवश्यकता नहीं है, दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता है।
कोरोना ने नहीं छोड़ा कोई कोना
कोरोना ने नहीं छोड़ा कोई कोना, अब क्या-क्या रोना, और क्या कोरो-ना और क्या न कोरो-ना। किसी न किसी रूप में सबके घर में, मन में, वस्तुओं में पसर ही गया है।
खांसी, बुखार, गले में खराश। बस इनसे बचकर रहना होगा।
पहले कहते थे, खांसी आ रही है, जा बाहर हवा में जा।
अब कहते हैं बाहर मत जाना कोई खांसी की आवाज़ न सुन ले।
प्रत्येक वर्ष अप्रैल में घूमने जाने का कार्यक्रम बनाते हैं, बच्चों की छुट्टियां होती हैं चार-पांच दिन की। अभी सोच ही रहे थे कि बुकिंग करवा ले, कि कोरोना की आहट होने लगी। बच गये, पैसे भी और हम भी।
एकदम से एक भय व्याप्त हुआ, राशन है क्या, दूध का कैसे होगा, सब्ज़ियां मिलेंगी क्या, छोटी-सी पोती के दूध का कैसे करेंगे?
भाग्यवश बच्चे तो पहले ही वर्क फ्राम होम थे, पति सेवा-निवृत्त, अब हम भी हो गये घर में ही।
लगभग दो महीने विद्यालय बन्द हो गये। 23 मार्च से लेकर पूरा अप्रैल और मई घर में ही बन्द होकर निकल गया, एक महीना तो सील बन्द रहे। 5 दिन सब्जी, फल, दूध कुछ नहीं। किन्तु समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं लगा।
जून में धीरे-धीरे विद्यालय के द्वार उन्मुक्त होने लगे। एक-एक करके गैरशैक्षणिक कर्मचारियों को बुलाया जाने लगा। अब मै। 65 वर्ष की, 66वें प्रवेश कर चुकी। इसलिए मुझे ज़रा देर से आवाज़ लगी। 2 जून को विद्यालय जाने लगी, सप्ताह में पांच दिन कार्यदिवस, मात्र चार घंटे के लिए। किन्तु मन नहीं मान रहा था। न तो दूरी का ध्यान रखा जा रहा था और न ही सैनिटाईज़ेशन का, एक लापरवाही दिख रही थी मुझे। जिसे कहो वही रूष्ट। अब संस्थाएं वेतन का एक हिस्सा तो दे रही थीं, तो काम भी लेना था।
सरकार ने कहा आप 66 के हो अतः घर बैठो, घर से काम करो। अब घर से तो काम नहीं हो सकते सारे। विद्यालय के कम्पयूटर पर, साफ्टवेयर और डाटा तो वहीं रहेगा, पुस्तकें तो घर नहीं आयेंगी। कहना अलग बात है किन्तु कार्यालयों में 6 फ़ीट की दूरी से काम चल ही नहीं सकता।
अब जुलाई में किये जाने काम वाले हावी होने लगे थे, परीक्षा परिणाम, नये विद्यार्थियों का प्रवेश, वार्षिक मिलान और पता नहीं क्या-क्या।
हमारे सैक्टर में कोरोना के मामले फिर बढ़ने लगे, हम सब डरने लगे।
तो क्या पलायन करना होगा अथवा इसे सावधानी और एक सही निर्णय कहा जायेगा, पता नहीं।
किन्तु निर्णय लिया और भारी मन से 18 वर्ष की नौकरी सकारण या अकारण अनायास ही छोड़ दी।
सब कहते हैं मैं तो भवन से निकल आई, भवन मेरे भीतर से कभी नहीं निकलेगा।
शुष्कता को जीवन में रोपते हैं
भावहीन मन,
उजड़े-बिखरे रिश्ते,
नेह के अभाव में
अर्थहीन जीवन,
किसी निर्जन वन-कानन में
अन्तिम सांसे गिन रहे
किसी सूखे वृक्ष-सा
टूटता है, बिखरता है।
बस
वृक्ष नहीं काटने,
वृक्ष नहीं काटने,
सोच-सोचकर हम
शुष्कता को जीवन में
रोपते रहते हैं।
रसहीन ठूंठ को पकड़े,
अपनी जड़ें छोड़ चुके,
दीमक लगी जड़ों को
न जाने किस आस में
सींचते रहते हैं।
समय कहता है,
पहचान कर
मृत और जीवन्त में।
नवजीवन के लिए
नवसंचार करना ही होगा।
रोपने होंगे नये वृ़क्ष,
जैसे सूखे वृक्षों पर फल नहीं आते
पक्षी बसेरा नहीं बनाते
वैसे ही मृत आकांक्षाओं पर
जीवन नहीं चलता।
भावुक न बन।
पुरानी कथाओं से सीख नहीं लेते
पता नहीं
कब हम इन
कथा-कहानियों से
बाहर निकलेंगे।
पता नहीं
कब हम वर्तमान की
कड़वी सच्चाईयों से
अपना नाता जोड़ेंगे।
पुरानी कथा-कहानियों को
चबा-चबाकर,
चबा-चबाकर खाते हैं,
और आज की समस्याओं से
नाता तोड़ जाते हैं।
प्रभु से प्रेम की धार बहाईये,
किन्तु उनके मोह के साथ
मानवता का नाता भी जोड़िए।
पुस्तकों में दबी,
कहानियों को ढूंढ लेते हैं,
क्यों उनके बल पर
जाति और गरीबी की
बात उठाते हैं।
राम हों या कृष्ण
सबको पूजिए,
पर उनके नाम से आज
बेमतलब की बातें मत जोड़िए।
उनकी कहानियों से
सीख नहीं लेते,
किसी के लिए कुछ
नया नहीं सोचते,
बस, चबा-चबाकर,
चबा-चबाकर,
आज की समस्याओं से
मुंह मोड़ जाते हैं।
मज़दूर दिवस मनाओ
तुम मेरे लिए
मज़दूर दिवस मनाओ
कुछ पन्ने छपवाओ
दीवारों पर लगवाओ
सभाओं का आयोजन करवाओ
मेरी निर्धनता, कर्मठता
पर बातें बनाओ।
मेरे बच्चों की
बाल-मज़दूरी के विरुद्ध
आवाज़ उठाओ।
उनकी शिक्षा पर चर्चा करवाओ।
अपराधियों की भांति
एक पंक्ति में खड़ाकर
कपड़े, रोटी और ढेर सारे
अपराध-बोध बंटवाओ।
एक दिन
बस एक दिन बच्चों को
केक, टाफ़ी, बिस्कुट खिलाओ।
.
कभी समय मिले
तो मेरी मेहनत की कीमत लगाओ
मेरे बनाये महलों के नीचे
दबी मेरी झोंपड़ी
की पन्नी हटवाओ।
मेरी हँसी और खुशी
की कीमत में कभी
अपने महलों की खुशी तुलवाओ।
अतिक्रमण के नाम पर
मेरी उजड़ी झोंपड़ी से
कभी अपने महल की सीमाएँ नपवाओ।
पंखों की उड़ान परख
पंखों की उड़ान परख
गगन परख, धरा निरख ।
तुझको उड़ना सिखलाती हूं,
आशाओं के गगन से
मिलवाना चाहती हूं,
साहस देती हूं,
राहें दिखलाती हूं।
जीवन में रोशनी
रंगीनियां दिखलाती हूं।
पर याद रहे,
किसी दिन
अनायास ही
एक उछाल देकर
हट जाउंगी
तेरी राहों से।
फिर अपनी राहें
आप तलाशना,
जीवन भर की उड़ान के लिए।
जग का यही विधान है प्यारे
जग का यही विधान है प्यारे
यहां सोच-समझ कर चल।
रोते को बोले
हंस ले, हंस ले प्यारे,
हंसते पर करे कटाक्ष
देखो, हरदम दांत निपोरे।
चुप्पा लगता घुन्ना, चालाक,
जो मन से खुलकर बोले
बड़बोला, बेअदब कहलाए
जग का यही विधान है प्यारे।
सच्चे को झूठा बतलाए
झूठा जग में झण्डा लहराए।
चलती को गाड़ी कहें
जब तक गाड़ी चलती रहे
झुक-झुक करें सलाम।
सरपट सीधी राहों पर
सरल-सहज जीवन चलता है
उंची उड़ान की चाहत में
मन में न सपना पलता है।
मुझको क्या लेना
मोटर-गाड़ी से
मुझको क्या लेना
ऊँची कोठी-बाड़ी से
छोटी-छोटी बातों में
मन रमता है।
चढ़ते सूरज को करें सलाम।
पग-पग पर अंधेरे थे
वे किसने देखे
बस उजियारा ही दिखता है
जग का यही विधान है प्यारे
यहां सोच-समझ कर चल।
स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार
नित परखें हम आचार-विचार
औरों की सोच पर करते प्रहार
अपने भाव परखते नहीं हम कभी
स्वनियन्त्रण से ही मिटेगा भ्रष्टाचार
दुनिया नित नये रंग बदले
इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये
कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये
दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी
तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये
मेरा नाम श्रमिक है
कहते हैं
पैरों के नीचे
ज़मीन हो
और सिर पर छत
तो ज़िन्दगी
आसान हो जाती है।
किन्तु
जिनके पैरों के नीचे
छत हो
और सिर पर
खुला आसमान
उनका क्या !!!
पता नहीं ज़िन्दगी में क्या बनना है
तुम्हें ज़िन्दगी में कुछ बनना है कि नहीं? अंग्रेज़ी में बस 70 अंक और गणित में 75। अकेले तुम हो जिसके 70 अंक हैं, सब बच्चों के 80 से ज़्यादा हैं। हिन्दी में 95 आ भी गये तो क्या तीर मार लोगे, शिक्षक महोदय वरूण को सारी कक्षा के सामने डांटते हुए बोले। चपड़ासी भी नहीं बन पाओगे इस तरह तो, आजकल चपड़ासी को भी अच्छी इंग्लिश आनी चाहिए, क्या करोगे ज़िन्दगी में। अपने पापा को बुलाकर लाना कल।
वरूण डरता-डरता घर पहुंचा । मां जानती थी कि आज अर्द्धवार्षिक परीक्षा का रिपोर्ट कार्ड होगा। बच्चे का उतरा चेहरा देखकर कुछ नहीं बोली, बस ,खाना खिलाकर खेलने भेज दिया। फिर बैग से रिपोर्ट कार्ड निकाल कर देखा और दौड़कर बाहर से वरूण को बांह खींचकर ले आई और गुस्से से बोली, रिपोर्ट कार्ड क्यों नहीं दिखाया ?वरूण रोने लगा, लेकिन मां ने पुचकार कर पकड़ लिया, अरे ,मैंने तो शाबाशी देने के लिए बुलाया है। इतने अच्छे अंक आये हैं रोता क्यों है? हिन्दी में 95 । वाह! अंगे्रज़ी में कुछ कम हैं पर कोई बात नहीं, कौन-सा अंगे्रज़ी का टीचर बनना है। और गणित में भी ठीक हैं। पापा भी खुश हो जायेंगे। वरूण बोला किन्तु मां, सर तो कहते हैं 100 आने चाहिए।
100? कोई रूपये हैं कि सौ के सौ आ जायेंगे, तू चिन्ता न कर।
संध्या पापा की आवाज़ सुनकर दरवाजे़ के पीछे छिप-सा गया। लेकिन वरूण हैरान था कि पापा भी खुश हैं। आवाज़ दी, कहां हो वरूण, लो तुम्हारी पसन्द की मिठाई लाया हूं। वरूण फिर भी सहमा-सा था। पापा उसके मुंह में गुलाबजामुन डालते हुए बोले , वाह बेटा अंग्रेज़ी में 70 अंक, मेरे तो सात आते थे, हा हा ।
और वरूण अचम्भित-सा खड़ा था समझ नहीं पा रहा था कि उसके अंक कैसे हैं।
अनचाही दस्तक
श्रवण-शक्ति
तो ठीक है मेरी
किन्तु नहीं सुनती मैं
अनचाही दस्तक।
खड़काते रहो तुम
मेरे मन को
जितना चाहे,
नहीं सुनना मुझे
यदि किसी को,
तो नहीं सुनना।
अपने मन से
जीने की
मेरी कोशिश को
तुम्हारी अनचाही दस्तक
तोड़ नहीं सकती।
अपने मन के संतोष के लिए
न सम्मान के लिए, न अपमान के लिए
कोई कर्म न कीजिए बस बखान के लिए
अपनी-अपनी सोच है, अपनी-अपनी राय
करती हूं बस अपने मन के संतोष के लिए