वहीं के वहीं खड़े हैं

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये।

अक्सर लगता है

जहाँ से चले थे

वहीं के वहीं खड़े हैं

कदम ठहरे से

भाव सहमे से

प्रश्न झुंझलाते से

उत्तर नाकाम।

न लहरों में

लहरें

न हवाओं में

सिरहन

न बातों में

मिठास

न अपनों से

अपनापन

भावहीन-सा मन

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये

एक अर्थहीन

ठहराव में जी रहे हैं

क्यों पूछते हो

कहाँ आ गये।

अक्सर लगता है

जहाँ से चले थे

वहीं के वहीं खड़े हैं।

 

वक्त कब कहां मिटा देगा

वक्त कब क्यों बदलेगा कौन जाने

वक्त कब बदला लेगा कौन जाने

संभल संभल कर कदम रखना ज़रा

वक्त कब कहां मिटा देगा कौन जाने

सबको बहकाते

पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते

पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते

चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हर पल

हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते

दुनिया नित नये रंग बदले

इधर केशों ने रंग बदला और उधर सम्बोधन भी बदल गये

कल तक जो कहते थे बहनजी उनके हम अम्मां जी हो गये

दुनिया नित नये रंग बदले, हमने देखा, परखा, भोगा है जी

तो हमने भी केशों का रंग बदला, अब हम आंटी जी हो गये 

रेखाओं का खेल है प्यारे

रेखाओं का खेल है प्यारे, कुछ शब्दों में ढल जाते हैं कुछ आकारों में

कुछ चित्रों को कलम बनाती, कुछ को उकेरती तूलिका विचारों में

भावों का संसार विचित्र, स्वयं समझ न पायें, औरों को क्या समझायें

न रूप बने न रंग चढ़े, उलझे-सुलझे रह जाते हैं अपने ही उद्गारों में

औकात दिखा दी

ऐसा थोड़े ही होता है कि एक दिन में ही तुमने मेरी औकात गिरा दी

जो कल था आज भी वही, वहीं हूं मैं, बस तुमने अपनी समझ हटा दी

आज गया हूं बस कुछ रूप बदलने, कल लौटूंगा फिर आओगे गले लगाने

एक दिन क्या रोका मुझको,देखा मैंने कैसे तुम्हें,तुम्हारी औकात दिखा द

स्वाभिमान हमारा सम्बल है

आत्मविश्वास की डोर लिए चलते हैं यह अभिमान नहीं है

स्वाभिमान हमारा सम्बल है यह दर्प का आधार नहीं है

साहस दिखलाया आत्मनिर्भरता का, मार्ग यह सुगम नहीं,

अस्तित्व बनाकर अपना, जीते हैं, यह अंहकार नहीं है।

प्रेम-प्यार के मधुर गीत

मौसम बदला, फूल खिले, भंवरे गुनगुनाते हैं।

सूरज ने धूप बिखेरी, पंछी मधुर राग सुनाते हैं।

जी चाहता है भूल जायें दुनियादारी के किस्से,

चलो मिलकर प्रेम-प्यार के मधुर गीत गाते हैं।

ये औरतें

हर औरत के भीतर एक औरत है

और उसके भीतर एक और औरत।

यह बात स्वयं औरत भी नहीं जानती

कि उसके भीतर

कितनी लम्बी कड़ी है इन औरतों की।

धुरी पर घूमती चरखी है वह

जिसके चारों ओर

आदमी ही आदमी हैं

और वह घूमती है

हर आदमी के रिश्ते में।

वह दिखती है केवल

एक औरत-सी,

सजी-धजी, सुन्‍दर ,  रंगीन

शेष सब औरतें

उसके चारों ओर  

टहलती रहती हैं,

उसके भीतर सुप्त रहती हैं।

कब कितनी औरतें जाग उठती हैं

और कब कितनी मर जाती हैं

रोज़ पैदा होती हैं कितनी नई औरतें

उसके भीतर

यह तो वह स्वयं भी नहीं जानती।

लेकिन, 

ये औरतें संगठित नहीं हैं

लड़ती-मरती हैं,

अपने-आप में ही

अपने ही अन्दर।

कुछ जन्म लेते ही

दम तोड़ देती हैं

और कुछ को

वह स्वयं ही, रोज़, हर रोज़

मारती है,

वह स्वयं यह भी नहीं जानती।

औरत के भीतर सुप्त रहें

भीतर ही भीतर लड़ती-मरती रहें

जब तक ये औरतें,

सिलसिला सही रहता है।

इनका जागना, संगठित होना

खतरनाक होता है समाज के लिए

और, खतरनाक होता है

आदमी के लिए।

जन्म से लेकर मरण तक

मरती-मारती औरतें

सुख से मरती हैं।

 

सांझ-सवेरे

 रंगों से आकाश सजा है सांझ-सवेरे।

मन में इक आस बनी है सांझ-सवेरे।

सूरज जाता है,चंदा आता है, संग तारे]

भावों का ऐसा ही संगम है सांझ-सवेरे।

कैसे होगा तारण

आज डूबने का मन है कहां डूबें बता रे मन

सागर-दरिया में जल है किन्तु वहां है मीन

जो कर्म किये बैठे हैं इस जहां में हम लोग

चुल्लू-भर पानी में डूब मरें तभी तो होगा तारण

शुष्कता को जीवन में रोपते  हैं

भावहीन मन,

उजड़े-बिखरे रिश्ते,

नेह के अभाव में

अर्थहीन जीवन,

किसी निर्जन वन-कानन में

अन्तिम सांसे गिन रहे

किसी सूखे वृक्ष-सा

टूटता है, बिखरता है।

बस

वृक्ष नहीं काटने,

वृक्ष नहीं काटने,

सोच-सोचकर हम

शुष्कता को जीवन में

रोपते रहते हैं।

रसहीन ठूंठ को पकड़े,

अपनी जड़ें छोड़ चुके,

दीमक लगी जड़ों को

न जाने किस आस में

सींचते रहते हैं।

 

समय कहता है,

पहचान कर

मृत और जीवन्त में।

नवजीवन के लिए

नवसंचार करना ही होगा।

रोपने होंगे  नये वृ़क्ष,

जैसे सूखे वृक्षों पर फल नहीं आते

पक्षी बसेरा नहीं बनाते

वैसे ही मृत आकांक्षाओं पर

जीवन नहीं चलता।

भावुक न बन।

 

 

 

लाल बहादुर शास्त्री की स्मृति में

राजनीति में,

अक्सर

लोग बात करते हैं,

किसी के

पदचिन्हों पर चलने की।

किसी के विचारों का

अनुसरण करने की।

किसी को

अपनी प्रेरणा बनाने की।

एक सादगी, सीधापन,

सरलता और ईमानदारी!

क्यों रास नहीं आई हमें।

क्यों पूरे वर्ष

याद नहीं आती हमें

उस व्यक्तित्व की,

नाम भूल गये,

काम भूल गये,

उनका हम बलिदान भूल गये।

क्या इतना बदल गये हम!

शायद 2 अक्तूबर को

गांधी जी की

जयन्ती न होती

तो हमें

लाल बहादुर शास्त्री

याद ही न आते।

 

निर्दोष

तुमने,

मुझसे उम्मीदें की।

मैंने,

तुम्हारे लिए

उम्मीदों के बीज बोये।

फिर, उन पर

डाल दिया पानी।

अब,

बीज नहीं उगे,

तो, मेरा दोष कहां !

-

शंख-ध्वनि
तुम्हारी वंशी की धुन पर विश्व संगीत रचता है

तुम्हारे चक्र की गति पर जीवन चक्र चलता है

दूध-दहीं माखन, गैया-मैया, ग्वाल-बाल सब

तुम्हारी शंख-ध्वनि से मन में सब बसता है।

शिक्षक दिवस : एक संस्मरण

वर्ष 1959 से लेकर 1983 तक मैं किसी न किसी रूप में विद्यार्थी रही। विविध अनुभव रहे। किन्तु पता नहीं क्यों सुनहरी स्मृतियाँ नहीं हैं मेरे पास।

मुझे बचपन से ही मंच पर चढ़कर बोलना, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगता था। मेरा उच्चारण एवं स्मरण-शक्ति भी अच्छी थी। सब पसन्द भी करते थे किन्तु सदैव किसी न किसी कारण से मेरा नाम प्रतियोगिताओं से कट जाता था और मैं रोकर रह जाती थी। अध्यापक कहते सबसे अच्छा इसने ही बोला किन्तु बाहर भेजते समय किसी और का नाम चला जाता और मैं मायूस होकर रह जाती।

जब कालेज पहुंची तो मैंने सोचा अब तो भेद-भाव नहीं होगा और यहां मेरी योग्यता को वास्तव में ही देखा जायेगा। किन्तु वहां तो पहले से ही एक टीम चली आ रही थी और हर जगह उसका ही चयन होता था । यहां भी वही हाल।

तभी कालेज में हिन्दी साहित्य परिषद का गठन हुआ और मैं उसकी सदस्य बन गई। कहा गया कि आप यहां कविता-कहानी आदि कुछ भी सुना सकते हैं। मेरे घर में तो पुस्तकों का भण्डार था। एक पुस्तक से मैंने निम्न पंक्तियाँ सुनाईं 1972 की बात कर रही हूं

हर आंख यहां तो बहुत रोती है

हर बूंद मगर अश्क नहीं होती है

देख के रो दे जो ज़माने का गम

उस आंख से जो आंसू झरे मोती है

****-*****

सबने समझा यह मेरी अपनी लिखी है और मुझे बहुत सराहना मिली। तब मुझे लगा कि मैं अपनी पहचान कविताएं लिख कर ही क्यों न बनाउं। किन्तु समझ नहीं थी।

फिर उसके कुछ ही दिन बाद कालेज में ही वाद-विवाद प्रतियोगिता थी, संचालक ने मेरा नाम ही नहीं पुकारा। बाद में मैंने पूछा कि सूची में मेरा भी नाम था तो बोले कि मेरा ध्यान नहीं गया।

 मैं आहत हुई और मैंने सोचा अब मैं कविताएं लिखूंगी जो यहां कोई नहीं लिखता और अपनी अलग पहचान बनाउंगी। उस दिन मैंने इसी भूलने  के विषय पर अपनी पहली  मुक्त-छन्द कविता लिखी 

चाहे इसे शिक्षकों द्वारा किये जाने वाला भेद-भाव कहें अथवा उनकी भूल, किन्तु मेरे लिए लेखन का नवीन संसार उन्मुक्त हुआ जहां मैं आज तक हूं।

  

आंखें फ़ेर लीं

अपनों से अपनेपन की चाह में

जीवन-भर लगे रहे हम राह में

जब जिसने चाहा आंखें फ़ेर लीं

कहीं कोई नहीं था हमारी परवाह में

जीवन की पुस्तकें

कुछ बुढ़ा-सी गई हैं पुस्तकें।

भीतर-बाहर

बिखरी-बिखरी-सी लगती हैं,

बेतरतीब।

.

किन्तु जैसे

बूढ़ी हड्डियों में

बड़ा दम होता है,

एक वट-वृक्ष की तरह

छत्रछाया रहती है

पूरे परिवार के सुख-दुख पर।

उनकी एक आवाज़ से

हिलती हैं घर की दीवारें,

थरथरा जाते हैं

बुरी नज़र वाले।

देखने में तो लगते हैं

क्षीण काया,

जर्जर होते भवन-से।

किन्तु उनके रहते

द्वार कभी सूना नहीं लगता।

हर दीवार के पीछे होती है

जीवन की पूरी कहानी,

अध्ययन-मनन

और गहन अनुभवों की छाया।

.

जीवन की इन पुस्तकों को

चिनते, सम्हालते, सजाते

और समझते,

जीवन बीत जाता है।

दिखने में बुढ़उ सी लगती हैं,

किन्तु दम-खम इनमें भी होता है।

 

हालात कहाँ बदलते हैं

वर्ष बदलते हैं

दिन-रात बदलते हैं

पर हालात कहाँ बदलते हैं।

 

नया साल आ जाने पर

लगता था

कुछ तो बदलेगा,

यह जानते हुए भी

कि ऐसा सोचना ही

निरर्थक है।

आस-पास

जैसे सब ठहर गया हो।

मन की ऋतुएँ

नहीं बदलतीं अब,

शीत, बसन्त, ग्रीष्म हो

या  हो पतझड़

कोई नयी आस लेकर

नहीं आते अब,

किसी परिवर्तन का

एहसास नहीं कराते अब।

बन्द खिड़कियों से

न मदमाती हवाएँ

रिझाती हैं

और न रिमझिम बरसात

मन को लुभाती है।

 

एक ख़ौफ़ में जीते हैं

डरे-डरे से।

नये-नये नाम

फिर से डराने लगे हैं

हम अन्दर ही अन्दर

घबराने लगे हैं।

द्वार फिर बन्द होने लगे हैं

बाहर निकलने से डरने लगे हैं,

आशाओं-आकांक्षाओं के दम

घुटने लगे हैं

हम पिंजरों के जीव

बनने लगे हैं।

 

 

 

नेताजी का आसन

नेताजी ने कुर्सी त्याग दी

और भूमि पर आसन बिछाकर बैठ गये।

हमने पूछा, ऐसा क्यों किया आपने।

वैसे तो हमें पता है,

कि आपकी औकात ज़मीन की ही है,

किन्तु

कुर्सी त्यागना तो बहुत महानता की बात है,

कैसे किया आपने यह साहस।

नेताजी मुस्कुराये, बोले,

क्या तुम्हें भी बताना पड़ेगा,

कि कुर्सी की चार टांगे होती हैं

और इंसान की दो।

कोई भी, कभी भी पकड़कर

कोई-सी भी टांग खींच देता था।

अब हम भूमि पर, आसन जमाकर

पालथी मारकर बैठ गये हैं,

कोई  दिखाये हमारी टांग खींचकर।

समझदारी की बात यह

कि कुर्सी के पीछे

तो लोग भागते-छीनते दिखाई देते हैं,

कभी आपने देखा है किसी को

आसन छीनते।

अब गांधी जी भी तो

भूमि पर आसन जमाकर ही बैठते थे,

कोई चला उनकी राह पर

आज तक मांगा उनका आसन किसी ने क्या।

नहीं न !

अब मैं नेताजी को क्या समझाती,

गांधी जी का आसन तो उनके साथ ही चला गया।

और नेताजी आपका आसन ,

आधुनिक भारतीय राजनीति का आसन है,

आप पालथी मारे यूं ही बैठे रह जायेंगे,

और जनता कब आपके नीचे से

आपका आसन खींचकर चलती बनेगी,

आपको पता भी नहीं चलेगा।

 

समय समय की बात

वस्त्र सुन्दर, मूल्यवान, यूं अलमारी में चन्द पड़े हैं,

क्या पहने, अब बात नहीं होती घर में बन्द खड़े हैं,

तह लगाते, तह पलटते, देखें कहीं दीमक न खाए

स्वर्णाभूषण यूं लगते मानों देखो सारे जंग गड़े हैं।

श्याम-पटल पर लिख रहे हम

जीवन में
दो गुणा दो चार होते हैं
किन्तु बहुत बाद में पता लगा
कि दो और दो भी चार ही होते हैं।
समस्या तब आती है
जब हम देखते हैं कि
दो गुणा तीन तो छ: होते ह ैं
किन्तु दो और तीन तो छ: नहीं होते।
और जीवन में
पन्द्र्ह और सोलह
कब और कैसे हो जाते हैं
समझ ही नहीं पाते ।

श्याम-पटल पर लिख रहे हम
श्वेताक्षर,
मिट जाते हैं,
किन्तु जीवन का गुणा-भाग
जीवन का स्याह-सफ़ेद
नहीं मिटता कभी
श्याम-पटल से जीवन-पटल की राहें
सुगम नहीं ,
पर इतनी दुर्गम भी नहीं
जब जीवन की पुस्तक में
साथ हो
एक गुरू का, शिक्षक का ।

हे विधाता ! किस नाम से पुकारूं तुम्हें

शायद तुम्हें अच्छा न लगे सुनकर,

किन्तु, आज

तुम्हारे नामों से डरने लगी हूं।

हे विधाता !

कहते हैं, यथानाम तथा गुण।

कितनी देर से

निर्णय  नहीं कर पा रही हूं

किस नाम से पुकारूं तुम्हें।

जितने नाम, उतने ही काम।

और मेरे काम के लिए

तुम्हारा कौन-सा नाम

मेरे काम आयेगा,

समझ नहीं पा रही हूं।

तुम सृष्टि के रचयिता,

स्वयंभू,

प्रकृति के नियामक

चतुरानन, पितामह, विधाता,

और न जाने कितने नाम।

और सुना है

तुम्हारे संगी-साथी भी बहुत हैं,

जो तुम्हारे साथ चलाते हैं,

अनगिनत शस्त्र-अस्त्रों से सुसज्जित।

हे विश्व-रचयिता !

क्या भूल गये

जब युग बदलते हैं,

तब विचार भी बदलते हैं,

सत्ता बदलती है,

संरचनाएं बदलती हैं।

तो

हे विश्व रचयिता!

सामयिक परिस्थितियों में

गुण कितने भी धारण कर लो

बस नाम एक कर लो।