जल-विभाग इन्द्र जी के पास

मेरी जानकारी के अनुसार

जल-विभाग

इन्द्र जी के पास है।

कभी प्रयास किया था उन्होंने

गोवर्धन को डुबाने का

किन्तु विफ़ल रहे थे।

उस युग में

कृष्ण जी थे

जिन्होंने

अपनी कनिष्का पर

गोवर्धन धारण कर

बचा लिया था

पूरे समाज को।

.

किन्तु इन्द्र जी,

इस काल में कोई नहीं

जो अपनी अंगुली दे

समाज हित में।

.

इसलिए

आप ही से

निवेदन है,

अपने विभाग को

ज़रा व्यवस्थित कीजिए

काल और स्थान देखकर

जल की आपूर्ति कीजिए,

घटाओं पर नियन्त्रण कीजिए

कहीं अति-वृष्टि

कहीं शुष्कता को

संयमित कीजिए

न हो कहीं कमी

न ज़्यादती,

नदियाँ सदानीरा

और धरा शस्यश्यामला बने,

अपने विभाग को

ज़रा व्यवस्थित कीजिए।

 

 

द्वार खुले हैं तेरे लिए

विदा तो करना बेटी को किन्तु कभी अलविदा न कहना

समाज की झूठी रीतियों के लिए बेटी को न पड़े कुछ सहना

खीलें फेंकी थीं पीठ पीछे छूट गया मेरा मायका सदा के लिए

हर घड़ी द्वार खुले हैं तेरे लिए,उसे कहना,इस विश्वास में रहना

चलते चलते

चलते चलते

सड़क पर पड़े

एक छोटे से कंकड़ को

यूं ही उछाल दिया मैंने।

पल भर में न जाने

कहां खो गया।

सोच कुछ और रही थी

कह कुछ और बैठी।

बातों के, घातों के, वादों के

आघातों के

छोटे-छोटे कंकड़

हम, यूं ही उछालते रहते हैं

कब, किसे, कैसे चोट दे जाता है

नहीं जानते।

किन्तु जब अपने पर पड़ती है

तब..................

मेरे भीतर

एक विशालकाय पर्वत है

ऐसे  छोटे-छोटे कंकड़ों का।

छोटी रोशनियां सदैव आकाश बड़ा देती हैं

छोटी-सी है अर्चना,

छोटा-सा है भाव।

छोटी-सी है रोशनी।

अर्पित हैं कुछ फूल।

नेह-घृत का दीप समर्पित,

अपनी छाया को निहारे।

तिरते-तिरते जल में

भावों का गहरा सागर।

हाथ जोड़े, आंख मूंदे,

क्या खोया, क्या पाया,

कौन जाने।

छोटी रोशनियां

सदैव आकाश बड़ा देती हैं,

हवाओं से जूझकर

आभास बड़ा देती हैं।

सहज-सहज

जीवन का भास बड़ा देती हैं।

अनछुए शब्द

 कुछ भाव

चेहरों पर लिखे जाते हैं

और कुछ को शब्द दिये जाते हैं

शब्द कभी अनछुए

एहसास दे जाते हैं ,

कभी बस

शब्द बनकर रह जाते हैं।

किन्तु चेहरे चाहकर भी

झूठ नहीं बोल पाते।

चेहरों पर लिखे भाव

कभी कभी

एक पूरा इतिहास रच डालते हैं।

और यही

भावों का स्पर्श

जीवन में इन्द्र्धनुषी रंग भर देता है।

 

सिक्के सारे खन-खन गिरते

कहते हैं जी,

हाथ की है मैल रूपया,

थोड़ी मुझको देना भई।

मुट्ठी से रिसता है धन,

गुल्लक मेरी टूट गई।

सिक्के सारे खन-खन गिरते

किसने लूटे पता नहीं।

नोट निकालो नोट निकालो

सुनते-सुनते

नींद हमारी टूट गई।

छल है, मोह-माया है,

चाह नहीं है

कहने की ही बातें हैं।

मेरा पैसा मुझसे छीनें,

ये कैसी सरकार है भैया।

टैक्सों के नये नाम

समझ न आयें

कोई हमको समझाए भैया

किसकी जेबें भर गईं,

किसकी कट गईं,

कोई कैसे जाने भैया।

हाल देख-देखकर सबका

अपनी हो गई ता-ता थैया।

नोटों की गद्दी पर बैठे,

उठने की है चाह नहीं,

मोह-माया सब छूट गई,

बस वैरागी होने को

मन करता है भैया।

आगे-आगे हम हैं

पीछे-पीछे है सरकार,

बचने का है कौन उपाय

कोई हमको सुझाओ  दैया।

वितंडावाद में चतुर

घात प्रतिघात आघात की बात हम करते रहे है

अपनी नाकामियों का दोष दूसरों पर मढ़ते रहे हैं

भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे कुछ करने का दम नहीं है

वितंडावाद में चतुर जनता को भ्रमित करते रहे हैं

मन ठोकर खाता
चलते-चलते मन ठोकर खाता

कदम रुकते, मन सहम जाता

भावों की नदिया में घाव हुए

समझ नहीं, मन का किससे नाता

नेह की डोर

कुछ बन्धन

विश्वास के होते हैं

कुछ अपनेपन के

और कुछ एहसासों के।

एक नेह की डोर

बंधी रहती है इनमें

जिसका

ओर-छोर नहीं होता

गांठें भी नहीं होतीं

बस

अदृश्य भावों से जुड़ी

मन में बसीं

बेनाम

बेमिसाल

बेशकीमती।

  

कुहुक-कुहुक करती

चीं चीं चीं चीं करती दिन भर, चुपकर दाना पानी लाई हूं, ले खा

निकलेंगे तेरे भी पंख सुनहरे लम्बी कलगी, चल अब खोखर में जा

उड़ना सिखलाउंगी, झूमेंगे फिर डाली-डाली, नीड़ नया बनायेंगे

कुहुक-कुहुक करती, फुदक-फुदक घूमेगी, अब मेरी जान न खा

शब्द  भावहीन होते हैं

कुछ भावों के

शब्द नहीं होते

और कुछ शब्द

भावहीन होते हैं

तरसता है मन।

कितना खोया है मैंने

डायरी लिखते समय
मुझसे
अक्सर 
बीचबीच में
एकाध पन्ना
कोरा छूट जाया करता है
और कभी शब्द टूट जाते हैं
बिखरे से, अधूरे।
पता नहीं
कितना खोया है मैंने
और कितना छुपाना चाहा है
अपनेआप से ही
अनकहाअनलिखा छोड़कर।

मन कुहुकने लगा है

इधर भीतर का मौसम

करवटें लेने लगा है

बाहर शिशिर है

पर मन बहकने लगा है

चली है बासंती बयार

मन कुहुकने लगा है

तुम्हारी बस याद ही आई

मन महकने लगा है

 

 

 

 

सूख गये सब ताल तलैया

न प्रीत, न मीत के लिए, न मिलन, न विरह के लिए
घट लाई थी पनघट पर जल भर घर ले जाने के लिए
न घटा आई, न जल बरसा, सूख गये सब ताल–तलैया
संभल मानव, कुछ तो अच्छा कर जा अगली पीढ़ी के लिए

लीपा-पोती जितनी कर ले

रंग रूप की ऐसी तैसी

मन के भाव देख प्रेयसी

लीपा-पोती जितनी कर ले

दर्पण बोले दिखती कैसी

भव्य रावण

क्यों हम

भूलना ही नहीं चाहते

रावण को।

हर वर्ष

कितनी तन्मयता से

स्मरण करते हैं

पुतले बनाते हैं

सजाते हैं

और उनके साथ

कुम्भकरण और मेघनाथ भी

आते हैं

अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित।

नवरात्रों और दशमी पर्व पर

सबसे पहले

रावण को ही

स्मरण करते हैं।

कितना बड़ा मैदान

कैसा मेला

कितने पटाखे

और कितने भव्य हों पुतले।

उस समय

स्मरण ही नहीं आता

कि इस पुतले को

बुराई के प्रतीक के रूप में

बना रहे हैं

जलाने के लिए।

राम और दुर्गा

सब पीछे छूट जाते हैं

और हम

दिनों-दिनों तक याद करते हैं

रावण को,

अह! कितना भव्य था इस बार।

कितनी रौनक थी

और कितना आनन्द आया।

 

 

क्या होगा वक्त के उस पार

वक्त के इस पार ज़िन्दगी है,

खुशियां हैं वक्त के इस पार।

दुख-सुख हैं, आंसू, हंसी है,

आवागमन है वक्त के इस पार।

कल किसने देखा है,

कौन जाने क्या होगा,

क्यों सोच में डूबे,

आज को जी लेते हैं,

क्यों डरें,

क्या होगा वक्त के उस पार।

 

अंधेरों और रोशनियों का संगम है जीवन

भाव उमड़ते हैं,

मिटते हैं, उड़ते हैं,

चमकते हैं।

पंख फैलाती हैं

आशाएं, कामनाएं।

लेकिन, रोशनियां

धीरे-धीरे पिघलती हैं,

बूंद-बूंद गिरती हैं।

अंधेरे पसरने लगते हैं।

रोशनियां यूं तो

लुभावनी लगती हैं,

लेकिन अंधेरे में

खो जाती हैं

कितनी ही रोशनियां।

मिटती हैं, सिमटती हैं,

जाते-जाते कह जाती हैं,

अंधेरों और रोशनियों का

संगम है जीवन,

यह हम पर है

कि हम किसमें जीते हैं।

 

कुछ नया

मैं,

निरन्तर

टूट टूटकर,

फिर फिर जुड़ने वाली,

वह चट्टान हूं

जो जितनी बार टूटती है

जुड़ने से पहले,

उतनी ही बार

अपने भीतर

कुछ नया समेट लेती है।

मैं चाहती हूं

कि तुम मुझे

बार बार तोड़ते रहो

और  मैं

फिर फिर जुड़ती रहूं।

तुम्हारा अंहकार हावी रहा मेरे वादों पर

जीवन में सारे काम

सदा

जल्दबाज़ी से नहीं होते।

कभी-कभी

प्रतीक्षा के दो पल

बड़े लाभकारी होते हैं।

बिगड़ी को बना देते हैं

ठहरी हुई

ज़िन्दगियों को संवार देते हैं।

समझाया था तुम्हें

पर तुम्हारा

अंहकार हावी रहा

मेरे वादों पर।

मैंने कब इंकार किया था

कि नहीं दूंगी साथ तुम्हारा

जीवन की राहों में।

हाथ थामना ही ज़रूरी नहीं होता

एक विश्वास की झलक भी

अक्सर राहें उन्मुक्त कर जाती है।

किन्तु

तुम्हारा अंहकार हावी रहा,

मेरे वादों पर।

अब न सुनाओ मुझे

कि मैं अकेले ही चलता रहा।

ये चयन तुम्हारा था।

लड़कियों के विवाह की आयु सम्बन्धी कानून

 

अभी-अभी लड़कियों के विवाह की आयु बढ़ाने का कानून पारित हुआ। क्या इससे लड़कियों के जीवन पर कोई सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा? क्या हर परिवार सरकार की बात मानकर 21 वर्ष से पूर्व अपनी बेटी का विवाह नहीं करेंगा?

भारत में बाल विवाह अधिनियम 1929 में बना था, जो 1947 में संशोधित हुआ। 1949 में लड़कियों की विवाह की आयु 15 वर्ष और पुनः 1978 में 18 वर्ष नियत की गई। इस तरह के कानून केवल पुस्तकों में रह जाते हैं, पढ़ाए जाते हैं किन्तु गहराई से लागू नहीं होते। तो इस अधिनियम को लागू कैसे करवाया जाये, इस पर भी क्या विचार हो रहा है, शायद नहीं।

 देश में क्या कोई ऐसी संस्थाएँ हैं जो 137 करोड़ जनसंख्या वाले देश में होने वाले प्रत्येक विवाह की जांच कर सके? नहीं।  मात्र विवाह की आयु बढ़ाने से महिलाओं के जीवन में कोई अन्तर नहीं आने वाला,

क्या हम जानते हैं कि किसी भी विद्यालय में लड़के-लड़कियों का औसत प्रायः 55-45 होता है जो महाविद्यालय में आकर 40-60 अथवा 30-70 हो जाता है और उच्च शिक्षा में शायद 10-90। यह विकसित शहरों की स्थिति है जहाँ विवाह देर से ही होते हैं।

 इतने वर्ष बीत जाने पर अभी तक बाल-विवाह पर रोक नहीं लगाई जा सकी है तो मात्र कानूनन आयु बढ़ाने से कोई लाभ नहीं हो सकता। देश में आज भी कितने विवाह पंजीकृत होते हैं?

विवाह पंजीकरण अनिवार्य होने पर भी आज भी केवल शहरों में ही किसी सीमा तक विवाह पंजीकृत करवाये जाते हैं जहाँ आयु सीमा की जांच हो सकती है किन्तु विवाहोपरान्त ही पंजीकरण करवाया जाता है, पहले नहीं। अर्थात् यदि कहीं किसी ने कम आयु में विवाह किया तो वे पंजीकरण करवायेंगे ही नहीं। तो यह अधिनियम इतने बड़े देश में कार्यान्वित कैसे होगा? हमारे पास कोई उत्तर नहीं है। आंकड़ों के अनुसार देश में प्रतिदिन औसतन 30,000 विवाह होते हैं। बेघरबार, बंजारों आदि की गणना इनमें नहीं है। मात्र विवाह की आयु बढ़ाने से महिलाओं के जीवन में कोई अन्तर नहीं आ सकता। हाँ, शहरों में जहाँ शिक्षा के अवसर हैं, वहाँ लड़कियाँ पढ़ भी रही हैं, आत्मनिर्भर भी हो रही हैं और उनके विवाह की आयु भी अधिक है। कानून क्या कहता है, इस पर कोई विचार नहीं करता। किन्तु यह बात पूरे देश पर लागू नहीं होती।

और यदि लड़कियाँ उच्च शिक्षा प्राप्त भी कर लेती हैं तो वे उसका कितना लाभ उठाती हैं यह भी हम जानते हैं।

इतने वर्ष बीत जाने पर अभी तक बाल.विवाह पर रोक नहीं लग पाई है तो मात्र कानूनन आयु बढ़ाने से कोई लाभ नहीं हो सकता। देश में आज भी कितने विवाह पंजीकृत होते हैं?

लड़कियों को कुपोषण से बचाने, पढ़ाई व स्वाबलम्बन के उचित अवसर देने हेतु मात्र विवाह कानून में संशोधन से कोई लाभ नहीं होने वालाए जब तक कि हमारी सोच नहीं बदलती, शिक्षा, स्वाबलम्बन के प्रति दिशाएं सकारात्मक नहीं होतीं। इस परिवर्तन के लिए आवश्यक हैं हम स्वयं आगे बढ़ें, अपने आस-पास के लोगों को जाग्रत करें और इन कानूनों के प्रचार-प्रसार में सहयोग दें।

यह हास्यास्पद है कि बाल विवाह निषेध संशोधन विधेयक संसदीय समिति के 31 सदस्यों में केवल एक महिला है।

 

पुरानी कथाओं से सीख नहीं लेते

 

पता नहीं

कब हम इन

कथा-कहानियों से

बाहर निकलेंगे।

पता नहीं

कब हम वर्तमान की

कड़वी सच्चाईयों से

अपना नाता जोड़ेंगे।

पुरानी कथा-कहानियों को

चबा-चबाकर,

चबा-चबाकर खाते हैं,

और आज की समस्याओं से

नाता तोड़ जाते हैं।

प्रभु से प्रेम की धार बहाईये,

किन्तु उनके मोह के साथ

मानवता का नाता भी जोड़िए।

पुस्तकों में दबी,

कहानियों को ढूंढ लेते हैं,

क्यों उनके बल पर

जाति और गरीबी की

बात उठाते हैं।

राम हों या कृष्ण

सबको  पूजिए,

पर उनके नाम से आज

बेमतलब की बातें मत जोड़िए।

उनकी कहानियों से

सीख नहीं लेते,

किसी के लिए कुछ

नया नहीं सोचते,

बस, चबा-चबाकर,

चबा-चबाकर,

आज की समस्याओं से

मुंह मोड़ जाते हैं।

मैंने चिड़िया से पूछा

मैंने चिड़िया से पूछा

क्यों यूं ही दिन भर

चहक-चहक जाती हो

कुट-कुट, किट-किट करती

दिन-भर शोर मचाती हो ।

 

पलटकर बोली

तुमको क्या ?

 

मैंने कभी पूछा तुमसे

दिन भर

तुम क्या करती रहती हो।

कभी इधर-उधर

कभी उधर-इधर

कभी ये दे-दे

कभी वो ले ले

कभी इसकी, कभी उसकी

ये सब क्यों करती रहती हो।

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कभी मैं बोली सूरज से

कहां तुम्हारी धूप

क्यों चंदा नहीं आये आज

कभी मांगा चंदा से किसी

रोशनी का हिसाब

कहां गये टिम-टिम करते तारे

कभी पूछा मैंने पेड़ों से

पत्ते क्यों झर रहे

फूल क्यों न खिले।

कभी बोली फूलों से मैं

कहां गये वो फूल रंगीले

क्यों नहीं खिल रहे आज।

क्यों सूखी हरियाली

बादल क्यों बरसे

बिजली क्यों कड़की

कभी पूछा मैंने तुमसे

मेरा घर क्यों उजड़ा

न डाल रही, न रहा घरौंदा

कभी की शिकायत मैंने

कहाँ सोयेंगे मेरे बच्चे

कहाँ से लाऊँगी मैं दाना-पानी।

मैं खुश हूँ

तुम भी खुश रहना सीखो

मेरे जैसे बनना सीखो

इधर-उधर टाँग अड़ाना बन्द करो

अपने मतलब से मतलब रख आनन्द करो।