सिंदूरी शाम

अक्सर मुझे लगता है

दिन भर

आकाश में घूमता-घूमता

सूरज भी

थक जाता है

और संध्या होते ही

बेरंग-सा होने लगता है

हमारी ही तरह।

ठिठके-से कदम

धीमी चाल

अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।

जैसे हम

थके-से

द्वार खटखटाते हैं

और परिवार को देखकर

हमारे क्लांत चेहरे पर

मुस्कान छा जाती है

दिनभर की थकान

उड़नछू हो जाती है

कुछ वैसे ही सूरज

जब बढ़ता है

अस्ताचल की ओर

गगन

चाँद-तारों संग

बिखेरने लगता है

इतने रंग

कि सांझ सराबोर हो जाती है

रंगों से।

और

बेरंग-सा सूरज

अनायास झूम उठता है

उस सिंदूरी शाम में

जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से

भर जाता है।