खेल दिखाती है ज़िन्दगी

क्या-क्या खेल दिखाती है ज़िन्दगी।

कभी हरी-भरी,

कभी तेवर दिखाती है ज़िन्दगी।

कभी दौड़ती-भागती,

कभी ठहरी-ठहरी-सी लगती है ज़िन्दगी।

कभी संवरी-संवरी,

कभी बिखरी-बिखरी-सी लगती है जिन्दगी।

स्मृतियों के सागर में उलझाकर,

भटकाती भी है ज़िन्दगी।

हँसा-हँसाकर खूब रुलाती है ज़िन्दगी।

पथरीली राहों पर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।

एक गलत मोड़, एक अन्त का संकेत

दे जाती है ज़िन्दगी।

आकाश और धरा एक साथ

दिखा जाती है ज़िन्दगी।

कभी-कभी ठोकर मारकर

गिरा भी देती है ज़िन्दगी।

समय कटता नहीं,

अब घड़ी से नहीं चलती है ज़िन्दगी।

अपनों से नेह मिले

तो सरस-सरस-सी लगती है ज़िन्दगी।