ज़िन्दगी सहज लगने लगी है

आजकल, ज़िन्दगी

कुछ नाराज़-सी लगने लगी है।

शीतल हवाओं से भी

चुभन-सी होने लगी है।

नयानाभिराम दृश्य

चुभने लगे हैं नयनों में,

हरीतिमा में भी

कालिमा आभासित होने लगी है।

सूरज की तपिश का तो

आभास था ही,

ये चाँद भी अब तो

सूरज-सा तपने लगा है।

मन करता है

कोई सहला जाये धीरे से

मन को,

किन्तु यहाँ भी कांटों की-सी

जलन होने लगी है।

ज़िन्दगी बीत जाती है

अपनों और परायों में भेद समझने में।

कल क्या था

आज क्या हो गया

और कल क्या होगा कौन जाने

क्यों तू सच्चाईयों से

मुँह मोड़ने लगी है।

कहाँ तक समझायें मन को

अब तो यूँ ही

ऊबड़-खाबड़ राहों पर

ज़िन्दगी सहज लगने लगी है।