जल की बूंदों का आचमन कर लें
सावन की काली घटाएं मन को उजला कर जाती हैं
सावन की झड़ी मन में रस-राग-रंग भर जाती है
पत्तों से झरते जल की बूंदों का आचमन कर लें
सावन की नम हवाएं परायों को अपना कर जाती हैं
कण-कण नेह से भीगे
रंगों की रंगीनीयों से मन भरमाया।
अप्रतिम सौन्दर्य निरख मन हर्षाया।
घटाओं से देखो रोशनी है झांकती,
कण-कण नेह से भीगे, आनन्द छाया।
मन तो घायल होये
मन की बात करें फिर भी भटकन होये
आस-पास जो घटे मन तो घायल होये
चिन्तन तो करना होगा क्यों हो रहा ये सब
आंखें बन्द करने से बिल्ली न गायब होये
नदी हो जाना
बहती नदी के
सौन्दर्य की प्रशंसा करना
कितना सरल है]
और नदी हो जाना
उतना ही कठिन।
+
नदी
मात्र नदी ही तो नहीं है]
यह प्रतीक है]
एक लम्बी लड़ाई की,
बुराईयों के विरुद्ध
कटुता और शुष्कता के विरुद्ध
निःस्वार्थ भावना की
निष्काम भाव से
कर्म किये जाने की
समर्पण और सेवा की
विनम्रता और तरलता की।
अपनी मंज़िल तक पहुंचने के लिए
प्रकृति से युद्ध की।
हर अमृत और विष पी सकने वाली।
नदी
कभी रुकती नहीं
थकती नहीं।
मीलों-मील दौड़ती
उंचाईयों-निचाईयों को नापती
विघ्न-बाधाओं से टकराती
दुनिया-भर की धुल-मिट्टी
अपने अंक में समेटती
जिन्दगी बिखेरती
नीचे की ओर बढ़कर भी
अपने कर्मों सेे
निरन्तर
उपर की ओर उठती हुई
- नदी-
कभी तो
रास्ते में ही
सूखकर रह जाती है
और कभी जा पहुंचती है
सागर-तल तक
तब उसे कोइ नहीं पहचानता
यहां
मिट जाता है
उसका अस्तित्व।
नदी समुद्र हो जाती है
बदल जाता है उसका नाम।
समुद्र और कोई नहीं है
नदी ही तो है
बार-बार आकर
समुद्र बनती हुई
चाहो तो तुम भी समुद्र हो सकते हो
पर इसके लिए पहले
नदी बनना होगा।
तुम मेरी छाया हो
तुम मेरी छाया हो, प्रतिच्छाया हो
पर तुम्हें
अपने कदमों के निशान नहीं दे रहा हूं।
हर छपक-छपाक के साथ
मिट जाते हैं पिछले निशान
और नये बनते हैं
जो आप ही सिमट जाते हैं
जल की गहराईयों में।
इस छपाछप-छपाछप से देखो तो
बूंदें कैसे मोतियों-सी खिलती हैं।
फिर गगन, हवाओं और सागर के बीच
कहीं छूट जाती हैं,
सतरंगी आभा बिखेरकर
अन्तर्मन को छू जाती हैं।
यह जीवन का आनन्द है।
पर याद रखना
गगन की नीलाभा में
पवन के वेग में
और जल की लहरों पर
कभी कोई छाप नहीं छूटती।
इसके लिए कठोर तपती धरा पर
छोड़ने पड़ते हैं
अपने कदमों के निशान
जो सदियों-सदियों तक
ध्वनित होते हैं
गगन की उंचाईयों में
पवन के वेग में
और जल की लहरों में।
पर यह भी याद रखना
छपक-छपाक, छपाछप-छपाछप
जीवन का उतना ही हिस्सा है
जितना गगन, पवन और जल में
नाम अंकित कर सकना।
क्यों करना दु:ख करना यारो
जरा, अनुभव, पतझड़ की बातें
मत करना यारो
मदमस्त मौमस की
मस्ती हम लूट रहे हैं
जो रीत गया
उसका क्यों है दु:ख करना यारो
इल्जाम बहुत हैं
इल्जाम बहुत हैं
कि कुछ लोग पत्थर दिल हुआ करते हैं।
पर यूं ही तो नहीं हो जाते होंगे
इंसान
पत्थर दिल ।
कुछ आहत होती होंगी संवेदनाएं,
समाज से मिली होंगी ठोकरें,
किया होगा किसी ने कपट
बिखरे होंगे सपने
और फिर टूटा होगा दिल।
तब सीमाएं लांघकर
दर्द आंसुओं में बदल जाता है
और ज़माने से छुपाने के लिए
जब आंख में बंध जाता है
तो दिल पत्थर का बन जाता है।
इन पत्थरों पर अंकित होती हैं
भावनाएं,
कविताएं और शायरी।
कभी निकट होकर देखना,
तराशने की कोशिश जरूर करना
न जाने कितने माणिक मोती मिल जायें,
सदियों की जमी बर्फ पिघल जाये,
एक और पावन पवित्र गंगा बह जाये
और पत्थरों के बीच चमन महक जाये।
ये चिड़िया
मां मुझको बतलाना
ये चिड़िया
क्या स्कूल नहीं जाती ?
सारा दिन बैठी-बैठी,
दाना खाती, पानी पीती,
चीं-चीं करती शोर मचाती।
क्या इसकी टीचर
इसको नहीं डराती।
इसकी मम्मी कहां जाती ,
होमवर्क नहीं करवाती।
सारा दिन गाना गाती,
जब देखो तब उड़ती फिरती।
कब पढ़ती है,
कब लिखती है,
कब करती है पाठ याद
इसको क्यों नहीं कुछ भी कहती।
तब विचार अच्छे बनते हैं
बीमारी एक बड़ी है आई
साफ़ सफ़ाई रखना भाई
कूड़ा-करकट न फै़लाना
सुंदर-सुंदर पौधे लाना
बगिया अपनी खूब खिलाना
हाथों को साफ़ है रखना
बार-बार है धोना
मुंह, नाक, आंख न छूना
घर में रहना सुन लो ताई
मुंह को रखना ढककर तुम
हाथों की दूरी है रखनी
दूर से सबसे बात है करनी
प्लास्टिक का उपयोग न करना
घर में बैठकर रोज़ है पढ़ना
जब साफ़-सफ़ाई रखते हैं
तब विचार अच्छे बनते हैं
स्वच्छ अभियान बढ़ायेंगें
देश का नाम चमकाएंगें।
वर्तमान स्वागत-सत्कार
श्रेष्ठि वर्ग / High Society
आपके सामने शानदार डोंगे भर-भर कर काजू, किशमिश, बादाम, अखरोट जैस सूखे मेवे रख दिये जाते हैं। आप एक नहीं, दो अथवा तीन दाने उठाकर खा लेंगे। फिर वे स्वयं ही बार बार चाय, कोल्ड ड्रिंक से होने वाली हानियों को सविस्तार बतायेंगे और बतायेंगे कि वे तो एेसा कुछ भी सेवन नहीं करते। साथ ही आपसे बार बार पूछेंगे आप क्या लेंगे। फिर छोटे छोटे cut glasses में आपको तीन-चार घूंट कोई energy drink serve की जायेगी जिससे आप अपना गला तर करके, कुछ दाने टूंग कर चल देंगे।
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उच्च मध्यम वर्ग ः एक बिस्कुट की प्लेट और नमकीन की एक-दो प्लेट आपके सामने आ जायेगी और दो-तीन बार आपके सामने घूम कर लौट जायेगी। साथ आधा कप चाय अथवा कोई चलती सी कोल्ड ड्रिंक
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और आह ! सही लोग : सही स्वागत-सत्कार
समासे, पकौड़े, गुलाबजामुन, रसगुल्ले, और इनके सारे रिश्तेदार और कम से कम दो-तीन बार चाय।
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आप मुझे जलपान पर कब आमन्त्रित कर रहे हैं ।
बरसात की एक शाम
बरसात की तो हर शाम ही सुहानी होती है किन्तु कोई-कोई यादों में बसी रह जाती है। और शिमला की बरसात का तो कहना ही क्या, वो कहते हैं न बिन बादल बरसात।
शिमला में सांय माल रोड पर घूमने का हर स्थानीय निवासी को चस्का लगा हुआ होता था। आफ़िस से निकलकर घर जाने से पहले माल रोड के चार-पांच चक्कर तो लगा ही लेते थे। स्कैंडल प्वाईंट से शेरे पंजाब तक। भारी भीड़ किन्तु मज़ाल है कोई किसी से टकरा जाये अथवा कोई यह कहे कि देखो कैसे घूम रहे हैं। और चलते-चलते बालज़ीस का कोण या गरमागरम गुलाबजामुन खाने का आनन्द ही अलग होता था।
उस दिन संध्या समय अचानक मूसलाधार बरसात होने लगी किन्तु हम ठहरे देसी, तेज़ बरसात में बिना छाता ही चलती रहीं हम पांच सखियाँ। सर से पैर तक भीगती हुईं। सीधे बालज़ीस के आगे जाकर रुकीं और उसे फ़टाफ़ट पांच प्लेट गरम गुलाबजामुन का आदेश दिया। वहाँ पहले से चार लड़के खड़े थे, उन्होंने भी गुलाबजामुन का आर्डर दिया था किन्तु दुकानदार ने हमें पहले दे दिये जिससे वे कुछ नाराज़ तो हुए किन्तु बोले कुछ नहीं। उनके हाथ में भी प्लेटें आ चुकी थीं किन्तु वे हमें ही देखे जा रहे थे। हम पांचों ने आंखों में इशारा किया और एक-एक टुकड़ा खाते ही मुँह बनाया और ज़ोर से बोलीं ‘‘हाय! बिल्कुल ठण्डे !!’’ हमें देखते हुए और हमारी बात सुनकर उनमें से तीन ने पूरा-पूरा गुलाबजामुन ही मुँह में डाल लिया और चिल्लाने लगे अरे, इतना गर्म, मुँह जल गया !! पानी, पानी!! हमारा हँस-हँसकर बुरा हाल।
जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये
जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये
बोले तो हम बड़बोले बन जायें
यूं ही क्यों चिन्तन करता रे मन !
जिसको जो कहना है कहते जायें
अधिकार और कर्तव्य
अधिकार यूं ही नहीं मिल जाते,कुछ कर्त्तव्य निभाने पड़ते हैं
मार्ग सदैव समतल नहीं होते,कुछ तो अवरोध हटाने पड़ते हैं
लक्ष्य तक पहुंचना सरल नहीं,पर इतना कठिन भी नहीं होता
बस कर्त्तव्य और अधिकार में कुछ संतुलन बनाने पड़ते हैं
बादल राग सुनाने के लिए
बादल राग सुनाने के लिए
योजनाओं का
अम्बार लिए बैठे हैं हम।
पानी पर
तकरार किये बैठै हैं हम।
गर्मियों में
पानी के
ताल लिए बैठे हैं हम।
वातानुकूलित भवनों में
पानी की
बौछार लिए बैठे हैं हम।
सूखी धरती के
चिन्तन के लिए
उधार लिए बैठे हैं हम।
कभी पांच सौ
कभी दो हज़ार
तो कभी
छः हज़ारी के नाम पर
मत-गणना किये बैठे हैं हम।
हर रोज़
नये आंकड़े
जारी करने के लिए
मीडिया को साधे बैठे हैं हम।
और कुछ न हो सके
तो तानसेन को
बादल राग सुनाने के लिए
पुकारने बैठे हैं हम।
आदान-प्रदान का युग है
जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक को
जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो
पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते
आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो
श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
न इन राहों से डरते हैं
दिन-भर मेहनत कर
रात चैन की नींद लेते हैं
कहीं भी कुछ नया
या अटपटा नहीं लगता
यूं ही
जीवन की राहों पर चलते हैं
न बड़े सपनों में जीते हैं
न आहें भरते हैं।
न किसी भ्रम में रहते हैं
न आशाओं का
अनचाहा जाल बुनते हैं।
पर इधर कुछ लोग आने लगे हैं
हमें औरत होने का एहसास
कराने लगे हैं
कुछ अनजाने-से
अनचाहे सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी मेहनत की
कीमत बताने लगे हैं
दया, दुख, पीड़ा जताने लगे हैं
महल-बावड़ियों के
सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी औकात बताने लगे हैं
कुछ नारे, कुछ दावे, कुछ वादे
सिखाने लगे हैं
मिलें आपसे तो
मेरी ओर से कहना
एक बार धरा पर पांव रखकर देखो
काम को छोटा या बड़ा न देखकर
बस मेहनत से काम करके देखो
ईमान की रोटी तोड़ना
फिर रात की नींद लेकर देखो
रिश्तों का असमंजस
कुछ रिश्ते
फूलों की तरह होते हैं
और कुछ कांटों की तरह।
फूलों को सहेज लीजिए
कांटों को उखाड़ फेंकिए।
नहीं तो, बहुत
असमंजस की स्थिति
बनी रहती है।
किन्तु, कुछ कांटे
फूलों के रूप में आते हैं ,
और कुछ फूल
कांटों की तरह
दिखाई देते हैं।
और कभी कभी,
दोनों
साथ-साथ उलझे भी रहते हैं।
बड़ा मुश्किल होता है परखना।
पर परखना तो पड़ता ही है।
गिरगिट की तरह
कितना अच्छा है
कि हम जानते हैं
कि गिरगिट रंग बदलते हैं।
इसलिए रंगों के बीच भी
उसे हम अक्सर पहचान लेते हैं।
आकर्षित करता है
उसका यह रंग बदलना,
क्योंकि प्रकृति से
सामंजस्य का भाव है उसमें।
पर उन लोगों का क्या करें
जो दिखते तो स्याह-सफ़ेद हैं
पर भीतर न जाने
कितने रंगों से सराबोर होते हैं
और अवसरानुकूल रंग बदलते रहते हैं।
और हम भी कहां पीछे हैं
रंगों में रंग बदलने लगे हैं
स्याह को सफ़ेद और
सफ़ेद को स्याह करने में लगे हैं।
ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है
ज़िन्दगी बहुत झूले झुलाती है
कभी आगे,कभी पीछे ले जाती है
जोश में कभी ज़्यादा उंचाई ले लें
तो सीधे धराशायी भी कर जाती है
प्रकृति का सौन्दर्य निरख
सांसें
जब रुकती हैं,
मन भीगता है,
कहीं दर्द होता है,
अकेलापन सालता है।
तब प्रकृति
अपने अनुपम रूप में
बुलाती है
समझाती है,
खिलते हैं फूल,
तितलियां पंख फैलाती हैं,
चिड़िया चहकती है,
डालियां
झुक-झुक मन मदमाती हैं।
सब कहती हैं
समय बदलता है।
धूप है तो बरसात भी।
आंधी है तो पतझड़ भी।
सूखा है तो ताल भी।
मन मत हो उदास
प्रकृति का सौन्दर्य निरख।
आनन्द में रह।
एक साल और मिला
अक्सर एक एहसास होता है
या कहूं
कि पता नहीं लग पाता
कि हम नये में जी रहे हैं
या पुराने में।
दिन, महीने, साल
यूं ही बीत जाते हैं,
आगे-पीछे के
सब बदल जाते हैं
किन्तु हम अपने-आपको
वहीं का वहीं
खड़ा पाते हैं।
** ** ** **
अंगुलियों पर गिनती रही दिन
कब आयेगा वह एक नया दिन
कब बीतेगा यह साल
और सब कहेंगे
मुबारक हो नया साल
बहुत-सी शुभकामनाएं
कुछ स्वाभाविक, कुछ औपचारिक।
** ** ** **
वह दिन भी
आकर बीत गया
पर इसके बाद भी
कुछ नहीं बदला
** ** ** **
कोई बात नहीं,
नहीं बदला तो न सही।
पर चलो
एक दिन की ही
खुशियां बटोर लेते हैं
और खुशियां मनाते हैaa
कि एक साल और मिला
आप सबके साथ जीने के लिए।
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया
जब से आया बजट है भैया, अपनी हो गई ता-ता थैया
जब से सुना बजट है वैरागी होने को मन करता है भैया
मेरा पैसा मुझसे छीनें, ये कैसी सरकार है भैया
देखो-देखो टैक्स बरसते, छाता कहां से लाउं मैया
कहते हैं हाथ की है मैल रूपया, थोड़ी मुझको देना भैया
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं, कहने की ही बातें भैया
टैक्स भरो, टैक्स भरो, सुनते-सुनते नींद हमारी टूट गई
मुट्ठी से रिसता है धन, गुल्लक मेरी टूट गई
जब से सुना बजट है भैया, मोह-माया सब छूट गई
सिक्के सारे खन-खन गिरते किसने लूटे पता नहीं
मेरी पूंजी किसने लूटी, कैसे लूटी मुझको यह तो पता नहीं
किसकी जेबें भर गईं, किसकी कट गईं, कोई न जानें भैया
इससे बेहतर योग चला लें, चल मुफ्त की रोटी खाएं भैया
आया कोरोना
घर में कहां से घुस आया कोरोना
हम जानते नहीं।
दूरियां थीं, द्वार बन्द थे,
डाक्टर मानते नहीं।
कहां हुई लापरवाही,
कहां से कौन लाया,
पता नहीं।
एक-एक कर पांचों विकेट गिरे,
अस्पताल के चक्कर काटे,
जूझ रहे,
फिर हुए खड़े,
हार हम मानते नहीं।