बस प्यार किया जाता है

मन है कि

आकाश हुआ जाता है

विश्वास हुआ जाता है

तुम्हारे साथ

एक एहसास हुआ जाता है

घनघारे घटाओं में

यूं ही निराकार जिया जाता है

क्षणिक है यह रूप

भाव, पिघलेंगे

हवा बहेगी

सूरत, मिट जायेगी

तो क्या

मन में तो अंकित है इक रूप

बस,

उससे ही जिया जाता है

यूं ही, रहा जाता है

बस प्यार, किया जाता है

​​​​​​​ससम्मान बात करनी पड़ती है

पता नहीं वह धोबी कहां है

जिस पर यह मुहावरा बना था

घर का न घाट का।

वैसे इस मुहावरे में

दो जीव भी हुआ करते थे।

जब से समझ आई है

यही सुना है

कि धोबी के गधे हुआ करते थे

जिन पर वे

अपनी गठरियां ठोते थे।

किन्तु मुहावरे से

गर्दभ जी तो गायब हैं

हमारी जिह्वा पर

श्वान महोदय रह गये।

 

और आगे सुनिये मेरा दर्शन।

धोबी के दर्शन तो

कभी-कभार

अब भी हो जाते हैं

किन्तु गर्दभ और श्वान

दोनों ही

अपने-अपने

अलग दल बनाकर

उंचाईयां छू रहे हैं।

इसीलिए जी का प्रयोग किया है

ससम्मान बात करनी पड़ती है।

 

 

 

 

प्रकृति जब तेवर दिखाती है

जीवन-अंकुरण

प्रकृति का स्व-नियम है।

नई राहें

आप ढूंढती है प्रकृति।

जिजीविषा, न जाने

किसके भीतर कहां तक है,

इंसान कहां समझ पाया।

 

जीवन में हम

बनाते रह जाते हैं

नियम कानून,

बांधते हैं सरहदें,

कहां किसका अधिकार,

कौन अनधिकार।

प्रकृति

जब तेवर दिखाती है,

सब उलट-पुलट कर जाती है।

हालात तो यही कहते हैं,

किसी दिन रात में उगेगा सूरज

और दिन में दिखेंगें तारे।

हमारे नाम की चाबी

मां-पिता

जब ईंटें तोड़ते हैं

तब मैंने पूछा

इनसे क्या बनता है मां ?

 

मां हंसकर बोली

मकान बनते हैं बेटा!

मैंने आकाश की ओर

सिर उठाकर पूछा

ऐसे उंचे बनते हैं मकान?

कब बनते हैं मकान?

कैसे बनते हैं मकान?

कहां बनते हैं मकान?

औरों के ही बनते हैं मकान,

या अपना भी बनता है मकान।

मां फिर हंस दी।

पिता की ओर देखकर बोली,

छोटा है अभी तू

समझ नहीं पायेगा,

तेरे हिस्से का मकान कब बन पायेगा।

शायद कभी कोई

हमारे नाम से चाबी देने आयेगा।

और फिर ईंटें तोड़ने लगी।

मां को उदास देख

मैंने भी हथौड़ी उठा ली,

बड़ी न सही, छोटी ही सही,

तोड़ूंगा कुछ ईंटें

तो मकान तो ज़रूर बनेगा,

इतना उंचा न सही

ज़मीन पर ज़रूर बनेगा मकान!

 

विश्वास-अविश्वास के बीच झूलता मन

कुछ समय पूर्व मेरी अपनी महिला सहकर्मी से चर्चा हुई फेसबुक मित्रों पर, जो मेरी फेसबुक मित्र भी है।

उसने बताया कि उसके फेसबुक मित्रों में केवल परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं, कोई भी अपरिचित नहीं है जिसे उसने फेसबुक पर ही मित्र बनाया हो एवं अपरिचित हो।

मैंने बताया कि एक अपने पुत्र, उसके मित्र एवं कुछ महिला मित्रों के अतिरिक्त मेरी मित्र सूची में अधिकांश अपरिचित हैं जिन्हें मैंने फेसबुक पर ही मित्र बनाया है। अलग से उनसे तो कोई पारिवारिक, मैत्री सम्बन्ध है और   ही कोई पूर्व परिचय। एेसे ही कुछ समूहों की भी सदस्य हूं और  वहां भी कोई पूर्व परिचित नहीं है।

फिर मैंने और  जानने का प्रयास किया तो जाना कि अधिकांश महिलाओं की मित्र सूची में  परिवार के अथवा पूर्व परिचित लोग ही हैं। अर्थात वे अपने सामाजिक, पारिवारिक जीवन में, मोबाईल, वाट्स एप पर भी उनसे निरन्तर सम्पर्क में हैं और  वे ही फेसबुक पर भी हैं।

फिर फेसबुक पर उनके लिए नया क्या ?

क्या हमें सत्य ही इतना डर कर रहना चाहिए जितना डराया जाता है।

क्यों हम सदैव ही किसी अपरिचित को अविश्वास की दृष्टि से ही देखे ?

जीवन में यदि हम अपरिचितों की उपेक्षा, संदेह, दूरियां ही बनाये रखेंगे तो समाज कैसे चलेगा।

सचेत रहना अलग बात है, अकारण संदेह में रहना अलग बात।

अतिक्रमणः एक पक्ष
अतिक्रमण विरोधी दस्ते, नगर निगम अथवा प्रशासन जब लोगों के घर उजाड़ते हैं तो दुःख होता है। समाचार-पत्रों एवं टी.वी. चैनलों की भाषा में बात करें तो किसी का आशियाना उजड़ गया कोई बेघर हो गया, किसी के बर्तन सड़क पर बिखरे नज़र आये तो किसी के सिर से छत चली गई। सड़क पर बैठीं, घरों का बिखरा सामान समेटती रोती औरतों और भूख से बिलखते बच्चों को देखकर किसी का भी मन भर आता है। प्रशासन किसी का दुःख नहीं देखता।

            अब इसी समस्या को दूसरी दृष्टि से देखें। ‘अतिक्रमण’ का क्या अर्थ है? किसी दूसरे की सम्पत्ति पर अनधिकार कब्ज़ा। दूसरे शब्दों में हम इसे सरकारी ज़मीन की चोरी कह सकते हैं। जब  किसी व्यक्ति की निजी ज़मीन पर अतिक्रमण होता है अथवा उसकी किसी वस्तु की चोरी होती है तो वह प्रायः दो-तीन उपाय करता है। अपनी सम्पत्ति की वापसी के लिए व्यक्तिगत प्रयास, पुलिस में रिपोर्ट एवं न्यायालय के माध्यम से; अर्थात् प्रशासन का सहयोग प्राप्त करता है। किन्तु यदि आम आदमी प्रशासन की ही सम्पत्ति की चोरी करता हो तो प्रशासन किसके पास जाये?

            वस्तुतः अतिक्रमण एक चोरी है। और एक कड़वा सत्य यह कि यह चोरी प्रायः सामूहिक होती है। सड़क के किनारे बनी दुकानें एक ही पंक्ति में सड़कों पर निमार्ण बढ़ा लेती हैं और बीच में जो नहीं बढ़ाते हैं उनकी स्थिति गेहूं के साथ घुन पिसने जैसी होती है। फिर इन बढ़ी हुई दुकानों-मकानों के आगे छोटे खोखे और उनके आगे रेहड़ियां। सड़क तो नाम-मात्र की रह जाती है।  हम अपनी भूमि अथवा सम्पत्ति के एक-एक इंच के लिए प्राण तक देने के लिए तैयार हो जाते हैं किन्तु सरकारी सम्पत्ति पर अनाधिकार कब्ज़ा करने में एक पल भी नहीं हिचकते। वर्तमान में सरकारी सम्पत्ति के हनन की एक मानसिकता बन चुकी है जिसका कोई बुरा भी नहीं मानता। कोई भी इसे हेय दृष्टि से नहीं देखता। न ही इसे चोरी अथवा अपराध का नाम दिया जाता है। घर के आगे सड़क पर बरामदे और साढ़ियां बनाना, छतें बढ़ाना, छज्जे बढ़ाना तो जनता का सार्वजनिक एवं सार्वजनीन अधिकार है। इसके अतिरिक्त सरकारी खाली पड़ी ज़मीन पर छोटा-सा मकान अथवा झोंपड़-पट्टियों का जाल फैलना तो एक आम-सी ही बात हो चुकी है। इस अतिक्रमण का यह कहकर समर्थन किया जाता है कि बेचारा गरीब आदमी क्या करे !

            देश की आधी सड़कें तो इस अतिक्रमण की ही भेंट चढ़ चुकी हैं जो देश में ट्रैफ़िक जाम, गंदगी आदि का सबसे बढ़ा कारण हैं। नालों के उपर मकान अथवा दुकानें बढ़ा दी जाती हैं। परिणामस्वरूप नालों की सफाई नहीं हो पाती, जिस कारण धरती के भीतर और बाहर प्रदूषण बढ़ता है। पानी की निकासी नहीं होती, नालियां  रुकती हैं और गंदगी एवं कूड़ा-कर्कट सड़कों पर स्थान बनाने लगते हैं। रोग पनपते हैं, पीने का पानी प्रदूषित हो जाता है, सड़क निमार्ण एवं अन्य विकास-कार्यों में बाधा उत्पन्न होती है। वर्षा ऋतु में सड़कें नदियाँ बन जाती हैं। ये सारी समस्याएं परस्पराश्रित हैं जिनके लिए हम प्रशासन को दोषी मानते हैं। यदि किसी विकास-कार्य अथवा निमार्ण के लिए प्रशासन के मार्ग में किसी की व्यक्तिगत एक इंच भूमि भी आ रही हो तो लोग देने के लिए तैयार नहीं होते। यदि सरकार किसी की भूमि लेती है तो बदले में लाखों -करोड़ों की प्रतिपूर्ति भी देती है और प्रायः बदले में ज़मीन अथवा अन्य सुविधाएं भी। किन्तु लोग फिर भी सन्तुष्ट नहीं होते।

            अतिक्रमण एक अधिकार मान लिया गया है और इसके विरुद्ध कार्यवाही का अर्थ है सरकार की आम आदमी के प्रति दमन-नीति।  तोड़-फोड़ करने से पूर्व प्रायः नोटिस दिये जाते हैं, चेतावनियां दी जाती है एवं समय भी। लोगों को यह अवसर भी दिया जाता है कि वे अपना सामन हटाकर स्वयं ही अनधिकृत निमार्ण तोड़ दें। किन्तु लोग अधिक समझदारी का प्रयोग करते हैं। समितियां बना ली जाती हैं संगठन खड़े कर लिए जाते हैं ओर लोग अपने बचाव में रैलियां, धरने, भूख-हड़ताल आदि करने लगते हैं। धरनों ओर रैलियों में महिलाओं और बच्चों को आगे कर दिया जाता है। महिलाओं की रोती सूरतें, बिलखते-भूखे बच्चों को दिखा-दिखाकर वे अपनी इस चोरी को मासूमियत के नीचे ढंकना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त लोगों के पास अपने इस अपराध को उचित ठहराने का सबसे बड़ा आधार है धर्म। घर के आस-पास अथवा दुकानों के बाहर धार्मिक स्थलों का अथवा प्रतीकों का निर्माण कर लिया जाता है। फिर इन स्थानों की तोड़-फोड़ को साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास किया जाता है। महिलाएँ और बच्चे तो पहले ही अग्रिम पंक्ति में होते हैं। अंततः  प्रशाासन को पुलिस बल का सहारा लेकर कार्यवाही करनी पड़ती है। जनता अपनी अनधिकृत सम्पत्ति पर अपने अधिकार को बचाये रखने के लिए प्रत्येक प्रयास करती है। परिणामस्वरूप लाठी चार्ज, आंसू गैस, बल-प्रयोग किया जाता है, जिस कारण लोगों का घायल होना एवं नुकसान होना स्वाभाविक ही है।  तब पुलिस एवं प्रशाासन की निर्ममता की खूब चर्चा होती है। फिर नगर-निगम आज अनधिकृत निर्माण को तोड़कर जाता है, दो दिन बाद वहां फिर वही ढांचे दिखाई देने लगते हैं। इसके अतिरिक्त लोग संगठन बनाकर न्यायालय की शरण में चले जाते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि देश में न्याय की प्रक्रिया धीमी है और न्यायालय स्थगन आदेश तो दे ही देता है। इस प्रकार मामले वर्षों तक लटके रहते हैं। वैसे भी प्रशासनिक कार्यवाही एक लम्बी प्रक्रिया होती है जिसका लाभ सदा विरोधी पक्ष को ही मिलता है।

            किन्तु इस अतिक्रमण रूपी चोरी की सीमा इतनी ही नहीं है। ‘सरकारी सम्पत्ति आपकी अपनी सम्पत्ति है’ यह वाक्य हम अनेक सार्वजनिक स्थानों पर पढ़ते हैं। जिसका अभिप्राय है कि  सरकारी सम्पत्ति पर देश के प्रत्येक नागरिक का समान अधिकार है। अर्थात् यदि एक व्यक्ति सरकारी ज़मीन पर अनाधिकृत कब्ज़ा करता है तो वह देश के प्रत्येक नागरिक के अधिकारों का हनन करता है, प्रत्येक नागरिक की सम्पत्ति का अनाधिकार प्रयोग करता है। जो सड़क एक सौ चालीस करोड़  लोगों की है उस पर एक व्यक्ति अधिकार कर लेता है और हम एक सौ चालीस करोड़   लोगों को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता, हम देखकर चुपचाप निकल जाते हैं, कभी कोई आपत्ति नहीं करता। विपरीत प्रशासन द्वारा उसके विरुद्ध कार्यवाही करने पर हम प्रशासन की ही निन्दा करते हैं।

इस समस्या का एक ही समाधान है और वह है प्रत्येक नागरिक को अपने अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक होना। प्रचार-प्रसार माध्यमों द्वारा जन-जागरण अभियान। इसके अतिरिक्त बिजली, पानी एवं भूमि-चोरी को दण्डनीय अपराध घोषित किया जाना चाहि

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सुना है अच्छे दिन आने वाले हैं

सुना है

किसी वंशी की धुन पर

सारा गोकुल

मुग्ध हुआ करता था

ग्वाल-बाल, राधा-गोपियां

नृत्य-मग्न हुआ करते थे।

वे

हवाओं से बहकने वाले

वंशी के सुर

आज लाठी पर अटक गये

जीवन की धूप में

स्वर बहक गये

नृत्य-संगीत की गति

ठहर-ठहर-सी गई

खिलखिलाती गति

कुछ रूकी-सी

मुस्कानों में बदल गई

दूर कहीं भविष्य

देखती हैं आंखें

सुना है

कुछ अच्छे दिन आने वाले हैं

क्यों इस आस में

बहकती हैं आंखें

 

 

मानव के धोखे में मत आ जाना

समझाया था न तुझको

जब तक मैं न लौटूं

नीड़ से बाहर मत जाना

मानव के 

धोखे में मत आ जाना।

फैला चारों ओर प्रदूषण

कहीं चोट मत खा जाना।

कहां गये सब संगी साथी

कहां ढूंढे अब उनको।

समझाकर गई थी न

सब साथ-साथ ही रहना।

इस मानव के धोखे में मत आ जाना।

उजाड़ दिये हैं रैन बसेरे

कहां बनाएं नीड़।

न फल मिलता है

न जल मिलता है

न कोई डाले चुग्गा।

हाथों में पिंजरे है

पकड़ पकड़ कर हमको

इनमें डाल रहे हैं

कोई अभयारण्य बना रहे हैं,

परिवारों से नाता टूटे

अपने जैसा मान लिया है।

फिर कहते हैं, देखो देखो

हम जीवों की रक्षा करते हैं।

चलो चलो

कहीं और चलें

इन शहरों से दूर।

करो उड़ान की तैयारी

हमने अब यह ठान लिया है।

न समझे हम न समझे तुम

सास-बहू क्यों रूठ रहीं

न हम समझे न तुम।

पीढ़ियों का है अन्तर

न हम पकड़ें न तुम।

इस रिश्ते की खिल्ली उड़ती,

किसका मन आहत होता,

करता है कौन,

न हम समझें न तुम।

शिक्षा बदली, रीति बदली,

न बदले हम-तुम।

कौन किसको क्या समझाये,

न तुम जानों न हम।

रीतियों को हमने बदला,

संस्कारों को हमने बदला,

नया-नया करते-करते

क्या-क्या बदल डाला हमने,

न हम समझे न तुम।

हर रिश्ते में उलझन होती,

हर रिश्ते में कड़वाहट होती,

झगड़े, मान-मनौवल होती,

पर न बात करें,

न जाने क्यों,

हम और तुम।

जहां बात नारी की आती,

बढ़-बढ़कर बातें करते ,

हास-परिहास-उपहास करें,

जी भरकर हम और तुम।

किसकी चाबी किसके हाथ

क्यों और कैसे

न जानें हम और न जानें हो तुम।

सब अपनी मनमर्ज़ी करते,

क्यों, और क्या चुभता है तुमको,

न समझे हैं हम

और क्यों न समझे तुम।

 

मोबाईल: आवश्यकता अथवा व्यसन

हमारी एक प्रवृत्ति हो गई है कि हम बहुत जल्दी किसी भी बात की आलोचना अथवा सराहना करने लगते हैं। कोई एक करता है और फिर सब करने लगते हैं जैसे मानों नम्बर बनाने हों कि किसने कितनी आलोचना कर ली अथवा सराहना कर ली। जैसे हमारी विचार-शक्ति समाप्त हो जाती है और हम निर्भाव बहती धारा के साथ बहने लगते हैं।

मोबाईल!!!

आधुनिकता के इस युग में मोबाईल जीवन की आवश्यकता बन चुका है। चाहे कितनी भी आलोचना कर लें किन्तु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में इसके महत्व और आवश्यकता को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि आपको मोबाईल किस स्तर का चाहिए और किस कार्य के लिए।

एक समय था जब विद्यालयों में मोबाईल ले जाना प्रतिबन्धित था। फिर समय ऐसा आया कि यही मोबाईल शिक्षा का केन्द्र बन गया। कोराना काल ने आम आदमी के जीवन में इतने परिवर्तन कर दिये कि एक बार तो वह स्वयं ही समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है। जब तक समझ आती, जीवन की धाराएँ ही बदल चुकीं थीं।

शिक्षा का यह ऐसा काल था, लगभग दो वर्ष का, जिसने शिक्षा, ज्ञान और परीक्षाओं के सारे प्रतिमान ही बदल कर रख दिये। शिक्षा की इस नवीन प्रणाली ने पारिवारिक व्यवस्थाएँ, आवश्यकताएँ, जीवन का ढाँचा ही बदल कर रख दिया। देश के मध्यमवर्गीय परिवारों में रोटी से अधिक महत्वपूर्ण मोबाईल हो उठे। फिर वह पहली कक्षा का विद्यार्थी हो अथवा किसी बड़ी कक्षा का। किसी-किसी परिवार में एक साथ दो-दो लैपटॉप और तीन-चार मोबाईल की आवश्यकता उठ खड़ी हुई अर्थात लाखों का व्यय। आय बन्द, व्यवसाय बन्द, वेतन आधा और मोबाईल ज़रूरी। ऐसे कितने ही परिवार मैंने इस समय में देखे जहाँ माता-पिता के पास एक-एक मोबाईल था और पिता के पास लैपटॉप। अब तीन बच्चे। तीनों की एक समय ऑनलाईन क्लास। माता अध्यापिका। अब एक लैपटॉप और तीन मोबाईल की अनिवार्यता उठ खड़ी हुई। चाहिए भी एंड्राएड अर्थात कम से कम 15-20 हज़ार प्रति।  जहाँ मोबाईल पढ़ाई की आवश्यकता बने वहाँ आदत का हिस्सा भी। असीमित ज्ञान का भण्डार। आय-व्यय, बैंकिंग, भुगतान-प्राप्ति का सरल साधन, डिजिटल पेमंट, खेल का माध्यम। बच्चे घर में बैठकर पूरी दुनिया से जुड़ रहे थे, ज्ञान का असीमित भण्डार का पिटारा मानों उनके सामने खुल गया था और वे अचम्भित थे। माता-पिता से जल्दी बच्चे यह सब सीखने लगे। इसमें कहीं भी कुछ भी ग़लत अथवा ठीक नहीं कहा जा सकता था, यह सब समय की आवश्यकता के कारण विकसित हो रहा था, जो धीरे-धीरे हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता गया। यदि शिक्षा के क्षेत्र में यह मोबाईल न होता तो बच्चे दो वर्ष पीछे चले जाते और उन्होंने ऑन लाईन जो ज्ञान प्राप्त किया, आधुनिकता से जुड़े, वह एक बहुत बड़ा अभाव रह जाता।

आज का समय ऐसा नहीं है कि बच्चे विद्यालय से निकले और घर। नहीं जी, ट्यूशन, डांस क्लास, स्विमिंग, क्रिकेट और न जाने क्या-क्या। तब माता-पिता और बच्चों के बीच यही एक वार्तालाप का सहारा बनता है

ऐसा नहीं कि कोरोना काल में ही मोबाईल ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इससे पूर्व भी विद्यालयों में सीनियर कक्षाओं में  प्रोजेक्ट वर्क, आर्ट वर्क और अनेक गृह कार्य ऐसे दिये जाते थे जो गूगल देवता की सहायता से ही किये जाते थे। कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड और अनेक तकनीक प्रयोग में पहले से ही चल रहे थे, बस मोबाईल की इसमें वृद्धि हुई।

किसी सीमा तक यह बात ठीक है कि जब किसी वस्तु का हम अत्याधिक प्रयोग करने लगत हैं तब आवश्यकता से बढ़कर वह हमारी आदत बन जाती है, हमें उसकी लत लग जाती है और जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ने लगता है।

निश्चित रूप से बच्चे आज पक्षियों की भांति स्वतन्त्र पंछी नहीं रह गये हैं। इसका एक कारण मोबाईल हो सकता है किन्तु सारा दोष केवल मोबाईल को नहीं दिया जा सकता। आधुनिकतम जीवन शैली, शिक्षा एवं ज्ञान का माध्यम, बच्चे तो क्या हमारी पीढ़ी भी इसमें उलझी बैठी है। अब यह माता-पिता का कर्तव्य है और शिक्षा-संस्थानों का भी कि बच्चों को मोबाईल के उचित प्रयोग एवं सीमित प्रयोग के लिए प्रेरित करें न कि उन्हें आरोपित।

  

मन भटकता है यहां-वहां

अपने मन पर भी एकाधिकार कहां

हर पल भटकता है देखो यहां-वहां

दिशाहीन हो, इसकी-उसकी सुनता

लेखन में बिखराव है तभी तो यहां

अपनी नज़र से देखने की एक कोशिश

मेरा एक रूप है, शायद !

 

मेरा एक स्वरूप है, शायद !

 

एक व्यक्तित्व है, शायद !

 

अपने-आपको,

अपने से बाहर,

अपनी नज़र से

देखने की,

एक कोशिश की मैंने।

आवरण हटाकर।

अपने आपको जानने की

कोशिश की मैंने।

 

मेरी आंखों के सामने

एक धुंधला चित्र

उभरकर आया,

मेरा ही था।

पर था

अनजाना, अनपहचाना।

जिसने मुझे समझाया,

तू ऐसी ही है,

ऐसी ही रहेगी,

और मुझे डराते हुए,

प्रवेश कर गया मेरे भीतर।

 

कभी-कभी

कितनी भी चाहत कर लें

कभी कुछ नहीं बदलता।

बदल भी नहीं सकता

जब इरादे ही कमज़ोर हों।

स्वाधीनता या  स्वच्छन्दता

स्वाधीनता अब स्वच्छन्दता बनती जा रही है।

विनम्रता अब आक्रोश में बदलती जा रही है।

सत्य से कब तक मुंह मोड़कर बैठे रहेंगे हम

कर्तव्यों से विमुखता अब बढ़ती जा रही है।

 

समझाती हैं ये सीढ़ियां

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

जीवन में

कुछ गहराते अंधेरे होते हैं

और कुछ होती हैं रोशनियां

हिम्मत करें

तो अंधेरे को बेधकर

रोशनी का मार्ग

दिखाती हैं ये सीढ़ियां

जो बीत गया

सो बीत गया

पीछे मुड़कर क्या देखना

आगे की राह

दिखाती हैं ये सीढि़यां

 

प्रश्न सुलझा नहीं पाती मैं

वैसे तो

आप सबको

बहुत बार बता चुकी हूँ

कि समझ ज़रा छोटी है मेरी।

आज फिर एक

नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ

मेरे सामने।

पता नहीं क्यों

बहुत छोटे-छोटे प्रश्न

सुलझा नहीं पाती मैं

इसलिए

बड़े प्रश्नों से तो

उलझती ही नहीं मैं।

जब हम छोटे थे

तब बस इतना जानते थे

कि हम बच्चे हैं

लड़का-लड़की

बेटा-बेटी तो समझ ही नहीं थी

न हमें

न हमारे परिवार वालों को।

न कोई डर था न चिन्ता।

पूजा-वूजा के नाम पर

ज़रूर लड़कियों की

छंटाई हुआ करती थी

किन्तु और किसी मुद्दे पर

कभी कोई बात

होती हो

तो मुझे याद नहीं।

 

अब आधुनिक हो गये हैं हम

ठूँस-ठूँसकर भरा जाता है

सोच में

लड़का-लड़की एक समान।

बेटा-बेटी एक समान।

किसी को पता हो तो

बताये मुझे

अलग कब हुए थे ये।

 

धूप-छांव तो आनी-जानी है हर पल

सोचती कुछ और हूं, समझती कुछ और हूं, लिखती कुछ और हूं

बहकते हैं मन के उद्गार, भीगते हैं नमय, तब बोलती कुछ और हूं

जानती हूं धूप-छांव तो आनी-जानी है हर पल, हर दिन जीवन में

देखती कुछ और हूं, दिखाती कुछ और हूं, अनुभव करती कुछ और हूं

हाथों से मिले नेह-स्पर्श

 पत्थरों में भाव गढ़ते हैं,

जीवन में संवाद मरते हैं।

हाथों से मिले नेह-स्पर्श,

बस यही आस रखते है।

 

न लिख पाने की पीड़ा

भावों का बवंडर उठता है मन में, कुछ लिख ले, कहता है

कलम उठती है, भाव सजते हैं, मन में एक लावा बहता है

कहीं से एक लहर आती है, सब छिन्‍न-भिन्‍न कर जाती है

न लिख पाने की पीड़ा कभी कभी यहां मन बहुत सहता है

. प्रकृति कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ती

बड़ी देर से

समझ पाते हैं हम

प्रकृति

कभी अपना स्वभाव नहीं छोड़ती।

कहते हैं

शेर भूख मर जाता है

किन्तु घास नहीं खाता

और एक बार मानव-गंध लग जाये

तो कुछ और नहीं खाता।

तभी तो

हमारे बड़े-बुज़ुर्ग कह गये हैं

दोस्ती बराबर वालों से करो

गधा भी जब

दुलत्ती मारता है

तो बड़े-बड़ों के होश

गुम हो जाते हैं

और तुम हो कि

जंगल के राजा से

तकरार करने बैठे हो।

 

प्रकृति का सौन्दर्य निरख

सांसें

जब रुकती हैं,

मन भीगता है,

कहीं दर्द होता है,

अकेलापन सालता है।

तब प्रकृति

अपने अनुपम रूप में

बुलाती है

समझाती है,

खिलते हैं फूल,

तितलियां पंख फैलाती हैं,

चिड़िया चहकती है,

डालियां

झुक-झुक मन मदमाती हैं।

सब कहती हैं

समय बदलता है।

धूप है तो बरसात भी।

आंधी है तो पतझड़ भी।

सूखा है तो ताल भी।

मन मत हो उदास

प्रकृति का सौन्दर्य निरख।

आनन्द में रह।

 

सजावट रह गईं हैं पुस्तकें

दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।

 

आशाओं का सूरज

ये सूरज मेरी आशाओं का सूरज है

ये सूरज मेरे दु:साहस का सूरज है

सीढ़ी दर सीढ़ी कदम उठाती हूं मैं

ये सूरज तम पर मेरी विजय का सूरज है

दीप तले अंधेरे की बात करते हैं

सूरज तो सबका है,

सबके अंधेरे दूर करता है।

किन्तु उसकी रोशनी से

अपना मन कहां भरमाता है ।

-

अपनी रोशनी के लिए,

अपने गुरूर से

अपना दीप प्रज्वलित करते है।

और अंधेरा मिटाने की बात करते हैं।

-

फिर  भी अक्सर

न जाने क्यों

दीप तले अंधेरे की बात करते हैं।

-

तो हिम्मत करें,

हाथ पर रखें लौ को

तब जग से

तम मिटाने की बात करते हैं।