वहम की दीवारें

बड़ी नाज़ुक होती हैं

वहम की दीवारें

ज़रा-सा हाथ लगते ही

रिश्तों में

बिखर-बिखर जाती हैं

कांच की किरचों की तरह।

कितने गहरे तक

घाव कर जायेंगी

हम समझ ही नहीं पाते।

सच और झूठ में उलझकर

अनजाने में ही

किरचों को समेटने लग जाते हैं,

लेकिन जैसे

कांच

एक बार टूट जाने पर

जुड़ता नहीं

घाव ही देता है

वैसे ही

वहम की दीवारों से रिसते रिश्ते

कभी जुड़ते नहीं।

जब तक

हम इस उलझन को समझ सकें

दीवारों में

किरचें उलझ चुकी होती हैं।