अपनों की यादें

अपनों की यादें

कुछ कांटें, कुछ फूल

कुछ घाव, कुछ मरहम

कुछ हँसी, कुछ रुदन

धुंधलाते चेहरे।

.

ज़िन्दगी बीत गई

अपनों-परायों की

पहचान ही न हो पाई।

वे अपने थे या पराये

कभी समझ ही न पाये।

हमारे जीवन के

फीके पड़ते रंगों में

रिश्ते भी

फीके पड़ने लगे।

पहचान मिटने लगी,

नाम सिमटने लगे।

आंधियों में

वे सब

दूर ओट में खड़े

देखते रहे हमें

बिखरते हुए,

और 

इन्द्रधनुष खिलते ही

वे हमें पहचान गये।

अपने कौन होते हैं

आज तक

जान ही न पाये।