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जब-जब
प्रतिबन्धित स्मृतियों ने
द्वार उन्मुक्त किये हैं
मन हुलस-हुलस जाता है।
कुछ नया, कुछ पुराना
अदल-बदलकर
सामने आ जाता है।
जाने-अनजाने प्रश्न
सर उठाने लगते हैं
शान्त जीवन में
एक उबाल आ जाता है।
जान पाती हूँ
समझ जाती हूँ
सच्चाईयों से
मुँह मोड़कर
ज़िन्दगी नहीं निकलती।
अच्छा-बुरा
खरा-खोटा,
सुन्दर-असुन्दर
सब मेरा ही है
कुछ भोग चुकी
कुछ भोगना है
मुँह चुराने से
पीछा छुड़ाने से
ज़िन्दगी नहीं चलती
कभी-न-कभी
सच सामने आ ही जाता है
इसलिए
प्रतीक्षा करती हूँ
प्रतिबन्धित स्मृतियों का
कब द्वार उन्मुक्त करेंगी
और आ मिलेंगी मुझसे
जीवन को
नये अंदाज़ में
जीने का
सबक देने के लिए।
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सबकी ही तो हार हुई है
जब भी तकरार हुई है
सबकी ही तो हार हुई है।
इन राहों पर अब जीत कहां
बस मार-मारकर ही तो बात हुई है।
हाथ मिलाने निकले थे,
क्यों मारा-मारी की बात हुई है।
बात-बात में हो गई हाथापाई,
न जाने क्यों
हाथ मिलाने की न बात हुई है।
समझ-बूझ से चले है दुनिया,
गोला-बारी से तो
इंसानियत बरबाद हुई है।
जब भी युद्धों का बिगुल बजा है,
पूरी दुनिया आक्रांत हुई है।
समझ सकें तो समझें हम,
आयुधों पर लगते हैं अरबों-खरबों,
और इधर अक्सर
भुखमरी-गरीबी पर बात हुई है।
महामारी से त्रस्त है दुनिया
औषधियां खोजने की बात हुई है।
चल मिल-जुलकर बात करें।
तुम भी जीओ, हम भी जी लें।
मार-काट से चले न दुनिया,
इतना जानें, तब आगे बढ़े है दुनिया।
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दुनिया मेरी मुट्ठी में
बहुत बड़ा है जगत,
फिर भी कुछ सीढ़ियां चढ़कर
एक गुरूर में
अक्सर कह बैठते हैं हम
दुनिया मेरी मुट्ठी में।
सम्बन्ध रिस रहे हैं,
भाव बिखर रहे हैं,
सांसे थम रही हैं,
दूरियां बढ़ रही हैं।
अक्सर विपदाओं में
साथ खड़े होते हैं,
किन्तु यहां सब मुंह फेर पड़े हैं।
सच कहें तो लगता है,
न तेरे वश में, न मेरे वश में,
समझ से बाहर की बात हो गई है।
समय पर चेतते नहीं।
अब हाथ जोड़ें,
या प्रार्थनाएं करें,
बस देखते रहने भर की बात हो गई है।
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तुम्हारी यह चुप्पी सुहाती नहीं
तुम्हारी यह चुप्पी सुहाती नहीं
उदास बैठी तुम भाती नहीं
कभी तुम्हें यूं देखा नहीं
एकान्तवासी
मौन, गम्भीर, चिन्तित।
लौट आओ
ज़रा अपने अंदाज़ में
तुम्हारी किट–किट–कुट–कुट
डाल डाल फांदती
छुप्पन– छुपाई खेलती
कूदती भागती,
पेड़ों के कोटर से झांकती,
यही अंदाज़ भाता है तुम्हारा।
गुनगुनाती हो
हंसती खिलखिलाती हो मेरे भीतर
जीवन को राग रंग देती हो।
कैसे समझाउं तुम्हें
न तुम मेरी बोली समझती हो
न मैं तुम्हारी।
क्या था, क्या हो गया, क्या होगा
कहां वश रह गया हमारा
चलो, लौट आओ तो ज़रा अपने रंग में।
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कहां गये वे नेता -वेत्ता
कहां गये वे नेता -वेत्ता
चूल्हे बांटा करते थे।
किसी मंच से हमारी रोटी
अपने हित में सेंका करते थे।
बड़े-बड़े बोल बोलकर
नोटों की गिनती करते थे।
झूठी आस दिलाकर
वोटों की गिनती करते थे।
उन गैसों को ढूंढ रहे हम
किसी आधार से निकले थे,
कोई सब्सिडी, कोई पैसा
चीख-चीख कर हमको
मंचों से बतलाया करते थे।
वे गैस कहां जल रहे
जो हमारे नाम से लूटे थे।
बात करें हैं गांव-गांव की
पर शहरों में ही जाया करते थे।
आग कहीं भीतर जलती है
चूल्हे में जलता है दिल
अब हमको भरमाने को
कला, संस्कृति, परम्परा,
मां की बातें करते हैं।
सबको चाहे नया-नया,
मेरे नाम पर लीपा-पोती।
पंचतारा में भोजन करते
मुझको कहते चूल्हे में जा।
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अपने ही घर को लूटने से
कुछ रोशनियां अंधेरे की आहट से ग्रस्त हुआ करती हैं
जलते घरों की आग पर कभी भी रोटियां नहीं सिकती हैं
अंधेरे में हम पहचान नहीं पाते हैं अपने ही घर का द्वार
अपने ही घर को लूटने से तिज़ोरियां नहीं भरती हैं।
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हिम्मतों का सफ़र है ज़िन्दगी
हिम्मतों का सफ़र है ज़िन्दगी।
राहों में खतरा है ज़िन्दगी।
पर्वतों-सी बाधाएं झेलती है ज़िन्दगी।
साहस और श्रम का नाम है ज़िन्दगी।
कहते हैं जहां चाह वहां राह,
यह बात यहां बताती है ज़िन्दगी।
कहीं गहरी खाई और कहीं
सिर पर पहाड़-सी समस्याओं से
डराती है ज़िन्दगी।
राह देना
और सही राह लेना
समझाती है ज़िन्दगी।
चलना सदा सम्हल कर
यह समझाती है जिन्दगी।
एक गलत मोड़
एक अन्त का संकेत
दे जाती है ज़िन्दगी।
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दैवीय सौन्दर्य
रंगों की शोखियों से
मन चंचल हुआ।
रक्त वर्ण संग
बासन्तिका,
मानों हवा में लहरें
किलोल कर रहीं।
आंखें अपलक
निहारतीं।
काश!
यहीं,
इसी सौन्दर्य में
ठहर जाये सब।
कहते हैं
क्षणभंगुर है जीवन।
स्वीकार है
यह क्षणभंगुर जीवन,
इस दैवीय सौन्दर्य के साथ।
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एक आदमी मरा
एक आदमी मरा।
अक्सर एक आदमी मरता है।
जब तक वह जिंदा था
वह बहुत कुछ था।
उसके बार में बहुत सारे लोग
बहुत-सी बातें जानते थे।
वह समझदार, उत्तरदायी
प्यारा इंसान था।
उसके फूल-से कोमल दो बच्चे थे।
या फिर वह शराबी, आवारा बदमाश था।
पत्नी को पीटता था।
उसकी कमाई पर ऐश करता था।
बच्चे पैदा करता था।
पर बच्चों के दायित्व के नाम पर
उन्हें हरामी के पिल्ले कहता था।
वह आदमी एक औरत का पति था।
वह औरत रोज़ उसके लिए रोटी बनाती थीं,
उसका बिस्तर बिछाती थी,
और बिछ जाती थी।
उस आदमी के मरने पर
पांच सौ आदमी
उसकी लाश के आस-पास एकत्र थे।
वे सब थे, जो उसके बारे में
कुछ भी जानते थे।
वे सब भी थे
जो उसके बारे में तो नहीं जानते थे
किन्तु उसकी पत्नी और बच्चों के बारे
में कुछ जानते थे।
कुछ ऐसे भी थे जो कुछ भी नहीं जानते थे
लेकिन फिर भी वहां थे।
उन पांच सौ लोगों में
एक भी ऐसा आदमी नहीं था,
जिसे उसके मरने का
अफ़सोस न हो रहा हो।
लेकिन अफ़सोस का कारण
कोई नहीं बता पा रहा था।
अब उसकी लाश ले जाने का
समय आ गया था।
पांच सौ आदमी छंटने लगे थे।
श्मशान घाट तक पहुंचते-पहुंचते
बस कुछ ही लोग बचे थे।
लाश जल रही थी,भीड़ छंट रही थी ।
एक आदमी मरा। एक औरत बची।
पता नहीं वह कैसी औरत थी।
अच्छी थी या बुरी
गुणी थी या कुलच्छनी।
पर एक औरत बची।
एक आदमी से
पहचानी जाने वाली औरत।
अच्छे या बुरे आदमी की एक औरत।
दो अच्छे बच्चों की
या फिर हरामी पिल्लों की मां।
अभी तक उस औरत के पास
एक आदमी का नाम था।
वह कौन था, क्या था,
अच्छा था या बुरा,
इससे किसी को क्या लेना।
बस हर औरत के पीछे
एक अदद आदमी का नाम होने से ही
कोई भी औरत
एक औेरत हो जाती है।
और आदमी के मरते ही
औरत औरत न रहकर
पता नहीं क्या-क्या बन जाती है।
-
अब उस औरत को
एक नया आदमी मिला।
क्या फर्क पड़ता है कि वह
चालीस साल का है
अथवा चार साल का।
आदमी तो आदमी ही होता है।
उस दिन हज़ार से भी ज़्यादा
आदमी एकत्र थे।
एक चार साल के आदमी को
पगड़ी पहना दी गई।
सत्ता दी गई उस आदमी की
जो मरा था।
अब वह उस मरे हुए आदमी का
उत्तरााधिकारी था ,
और उस औरत का भी।
उस नये आदमी की सत्ता की सुरक्षा के लिए
औरत का रंगीन दुपट्टा
और कांच की चूड़ियां उतार दी गईं।
-
एक आदमी मरा।
-
नहीं ! एक औरत मरी।
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पहचान नहीं
धन-दौलत थी तो खुले द्वार थे हमारे लिए
जब लुट गई थी द्वार बन्द हुए हमारे लिए
नाम भूल गये, रिश्ते छूट गये, पहचान नहीं
जब दौलत लौटी, हार लिए खड़े हमारे लिए
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किसने रची विनाश की लीला
जल जीवन है, जल पावन है
जल सावन है, मनभावन है
जल तृप्ति है, जल पूजा है।
मन डरता है, जल प्लावन है।
कब सूखा होगा
कब होगी अति वृष्टि
मन उलझा है।
कब तरसें बूंद बूंद को
और कब
सागर ही सागर लहरायेगा,
उतर धरा पर आयेगा
मन डरता है।
किसने रची विनाश की लीला
किसने दोहा प्रकृति को,
कौन बतलायेगा।
जीवन बदला, शैली बदली
रहन सहन की भाषा बदली।
अब यह होना था, और होना है
कहने सुनने से क्या होगा।
आयेंगी और जायेंगी
ये विपदाएं।
बस इतना होना है
कि हम सबको
यहां] सदा
साथ साथ होना है।
घन बरसे या सागर उफ़न पड़े
हमें नहीं डरना है
बस इतना ही कहना है।