एक डर में जीते हैं हम
उन्नति के शिखर पर बैठकर भी
अक्सर एक अभाव-सा रह जाता है,
पता नहीं लगता
क्या खोया
और क्या, कैसे पाया।
एक डर में जीते हैं,
न जाने कहां
पांव फिसल जायें
और
आरम्भ करना पड़े
एक नया सफ़र।
अपनी ही सफ़लताओं का
आनन्द नहीं लेते हम।
एक डर में जीते हैं हम।
और हम यूं ही लिखने बैठ जाते हैं कविता
आज ताज
स्वयं अपने साये में
बैठा है
डूबते सूरज की चपेट में।
शायद पलट रहा है
अपने ही इतिहास को।
निहारता है
अपनी प्रतिच्छाया,
कब, किसने,
क्यों निर्माण किया था मेरा।
एक कब्र थी, एक कब्रगाह।
प्रदर्शन था
सत्ता का, मोह का, धन का
अधिकार का
और शायद प्रेम का।
अथाह जलराशि में
न जाने क्या-क्या समाहित।
डूबता है मन, डूबते हैं भाव
काल के साथ
बदलते हैं अर्थ।
और हम यूं ही
लिखने बैठ जाते हैं कविता,
प्रेम की, विरह की, श्रृंगार की
और वेदना की।
अंधविश्वासों में जीते
कौओं की पंगत लगी
बैठे करें विचार
क्यों न हम सब मिलकर करें
इस मानव का बहिष्कार
किसी पक्ष में हमको पूजे
कभी उड़ायें पत्थर मार।
यूं कहते मुझको काला-काला,
मेरी कां-कां चुभती तुमको
मनहूस नाम दिया है मुझको
और अब मैं तुमको लगता प्यारा।
मुझको रोटी तब डाले हैं
जब तुम पर शामत आन पड़ी,
बासी रोटी, तैलीय रोटी
तुम मुझको खिलाते हो।
अपने कष्ट-निवारण के लिए
मुझे ढूंढते भागे हो।
किसी-किसी के नाम पर
हमें लगाते भोग
अंधविश्वासों में जीते
बाबाओं के चाटें तलवे
मिट्टी में होते हैं लोट-पोट।
जब ज़िन्दा होता है मानव
तब क्या करते हैं ये लोग।
न चाहिए मुझको तेरी
दान-दक्षिणा, न पूजी रोटी।
मुंडेर तेरी पर कां-कां करता
बच्चों का मन बहलाता हूं।
अपनी मेहनत की खाता हूं।
तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा
तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा
तेरी मूंछे मेरी मूंछे
पग्गड़ बांध बने हम लाला
तू भी कालू मैं भी काला
चलता है या खींचू गाल
दो बीड़ी लाया हूं
गुमटी पर बैठेंगे
खायेंगे चाट-पकौड़ी
सब कहते बुड्ढा- बुड्ढा
चटोर कहीं का।
कहने दो हमको क्या ।
घर जाकर कह देंगे
पेट ठीक न है
फिर बीबी बोलेगी
बुड्ढा- बुड्ढा ।
बहू गैस की गोली लायेगी,
बेटा पानी देगा,
बीबी चिल्ला़येगी,
बुड्ढा- बुड्ढा ।
बड़ा मज़ा आयेगा।
तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा- बुड्ढा
चलता है या खींचू गाल
खुले हैं वातायन
इन गगनचुम्बी भवनों में भी
भाव रहते हैं ।
कुछ सागर से गहरे
कुछ आकाश को छूते
परस्पर सधे रहते हैं।
यहां भी उन्मुक्त हैं द्वार,
खुले हैं वातायन, घूमती हैं हवाएं
यहां भी गूंजती हैं किलकारियां ,
हंसता है सावन ।
बादल उमड़ते-घुमड़ते हैं ।
हां, यह हो सकता है
कुछ कम या ज़्यादा होता हो,
पर समय की मांग है यह सब ।
कितनी भी अवहेलना कर लें
किन्तु हम मन ही मन
यही चाहते हैं ।
फिर भी
पता नहीं क्यों हम
बस यूं ही डरे-डरे रहते हैं।
वे पिता ही थे
वे पिता ही थे
जिन्होंने थामा था हाथ मेरा।
राह दिखाई थी मुझे
अंधेरे से रोशनी तक
बिखेरी थी रंगीनियां मेरे जीवन में।
और समझाया था मुझे
एक दिन छूट जायेगा मेरा हाथ
और आगे की राह
मुझे स्वयं ही चुननी होगी।
मुझे स्वयं जूझना होगा
रोशनी और अंधेरों से।
और कहा था
प्रतीक्षा करूंगा तुम्हारी
तुम लौटकर आओगी
और थामोगी मेरा हाथ
मेरी लाठी छीनकर।
तब
फिर घूमेंगे हम
साथ-साथ
यूं ही हाथ पकड़कर।
कुछ तो मुंह भी खोल
बस !
अब बहुत हुआ।
केवल आंखों से न बोल।
कुछ तो मुंह भी खोल।
कोई बोले कजरारे नयना
कोई बोले मतवारे नयना।
कोई बोले अबला बेचारी,
किसी को दिखती सबला है।
तेरे बारे में,
तेरी बातें सब करते।
अवगुण्ठन के पीछे
कोई तेरा रूप निहारे
कोई प्रेम-प्याला पी रहे ।
किसी को
आंखों से उतरा पानी दिखता
कोई तेरी इन सुरमयी आंखों के
नशेमन में जी रहे।
कोई मर्यादा ढूंढ रहा
कोई तेरे सपने बुन रहा,
किसी-किसी को
तेरी आबरू लुटती दिखती
किसी को तू बस
सिसकती-सिसकती दिखती।
जिसका जो मन चाहे
बोले जाये।
पर तू क्या है
बस अपने मन से बोल।
बस ! अब बहुत हुआ।
केवल आंखों से न बोल।
कुछ तो मुंह भी खोल।
बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं
ऐसा क्यों है
कि कुछ बातों के लिए हम
बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं।
बेचारा,
न जाने कैसी बोतल थी हाथ में
और क्या था गिलास में।
बस गिरा देखा
या कहूं
फि़सला देखा
हमने मान लिया कि दारू है।
सोचा नहीं एक बार
कि शायद सामने खड़े
दादाजी की दवा-दारू ही हो।
लीजिए
फिर दारू शब्द आ गया।
और यह भी तो हो सकता है
कि बेटा बेचारा
पिताजी की
बोतल छीनकर भागा हो
अब तो बस कर इस बुढ़ापे में बुढ़उ
क्यों अपनी जान लेने पर तुला है।
बेचारा गिर गया
और बापजी बोले
देखा, आया मजा़ ।
तू उठता रह
मैं नई लेने चला।
आज मुझे देश की याद सता गई
सोच में पड़ गई
आज न तो गणतन्त्र दिवस है,
न स्वाधीनता दिवस, न शहीदी दिवस
और न ही किसी बड़े नेता की जयन्ती ।
न ही समाचारों में ऐसा कुछ देखा
कि देश की याद सता जाती।
फिर आज मुझे
देश की याद क्यों सता गई ।
कुछ गिने-चुने दिनों पर ही तो
याद आती है हमें अपने देश की,
जब एक दिन का अवकाश मिलता है।
और हम आगे-पीछे के दिन गिनकर
छुट्टियां मनाने निकल जाते हैं
अन्यथा अपने स्वार्थ में डूबे,
जोड़-तोड़ में लगे,
कुछ भी अच्छा-बुरा होने पर
सरकार को कोसते,
अपना पल्ला झाड़ते
चाय की चुस्कियों के साथ राजनीति डकारते
अच्छा समय बिताते हैं।
पर सोच में पड़
आज मुझे देश की याद क्यों सता गई
पर कहीं अच्छा भी लगा
कि अकारण ही
आज मुझे देश की याद सता गई ।
बिना बड़े सपनों के जीता हूं
कंधों पर तुम्हारे भी
बोझ है मेरे भी।
तुम्हारा बोझ
तुम्हारे कल के लिए है
एक डर के साथ ।
मेरा बोझ मेरे आज के लिए है
निडर।
तुम अपनों के, सपनों के
बोझ के तले जी रहे हो।
मैं नि:शंक।
डर का घेरा बुना है
तुम्हारे चारों ओर
इस बोझ को सही से
न उठा पाये तो
कल क्या होगा।
कल, आज और कल
मैं नहीं जानता।
बस केवल
आज के लिए जीता हूं
अपनों के लिए जीता हूं।
नहीं जानता कौन ठीक है
कौन नहीं।
पर बिना बड़े सपनों के जीता हूं
इसलिए रोज़
आराम की नींद सोता हूं।
घन-घन-घन घनघोर घटाएं
घन-घन-घन घनघोर घटाएं,
लहर-लहर लहरातीं।
कुछ बूंदें बहकीं,
बरस-बरस कर,
मन सरस-सरस कर,
हुलस-हुलस कर,
हर्षित कर
लौट-लौटकर आतीं।
बूंदों का सागर बिखरा ।
कड़क-कड़क, दमक-दमक,
चपल-चंचला दामिनी दमकाती।
मन आशंकित।
देखो, झांक-झांककर,
कभी रंग बदलतीं,
कभी संग बदलतीं।
इधर-उधर घूम-घूमकर
मारूत संग
धरा-गगन पर छा जातीं।
रवि ने मौका ताना,
सतरंगी आकाश बुना ।
निरख-निरख कर
कण-कण को
नेह-नीर से दुलराती।
ठिठकी-ठिठकी-सी शीत-लहर
फ़र्र-फ़र्र करती दौड़ गई।
सर्र-सर्र-सर्र कुछ पत्ते झरते
डाली पर नव-संदेश खिले
रंगों से धरती महक उठी।
पेड़ों के झुरमुट में बैठी चिड़िया
की किलकारी से नभ गूंज उठा
मानों बोली, उठ देख ज़रा
कौन आया ! बसन्त आया!!!
यह जीवन है
कुछ गांठें जीवन-भर
टीस देती हैं
और अन्त में
एक बड़ी गांठ बनकर
जीवन ले लेती हैं।
जीवन-भर
गांठों को उकेरते रहें
खोलते
या किसी से
खुलवाते रहें,
बेहिचक बांटते रहें
गांठों की रिक्तता,
या उनके भीतर
जमा मवाद उकेरते रहें,
तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन
नहीं देंगी जीवन-भर का अवसाद।
यह जिजीविषा की विवशता है
यह जिजीविषा की विवशता है
या त्याग-तपस्या, ज्ञान की सीढ़ी
जीवन से विरक्तता है
अथवा जीवित रहने के लिए
दुर्भाग्य की सीढ़ी।
ज्ञान-ध्यान, धर्म, साधना संस्कृति,
साधना का मार्ग है
अथवा ढकोसलों, अज्ञान, अंधविश्वासों को
व्यापती एक पाखंड की पीढ़ी।
या एकाकी जीवन की
विडम्बानाओं को झेलते
भिक्षा-वृत्ति के दंश से आहत
एक निरूपाय पीढ़ी।
लाखों-करोड़ों की मूर्तियां बनाने की जगह
इनके लिए एक रैन-बसेरा बनवा दें
हर मन्दिर के किसी कोने में
इनके लिए भी एक आसन लगवा दें।
कोई न कोई काम तो यह भी कर ही देंगे
वहां कोई काम इनको भी दिलवा दें,
इस आयु में एक सम्मानजनक जीवन जी लें
बस इतनी सी एक आस दिलवा दें।
अठखेलियां करते बादल
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
ज्यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल
डांट पड़ी तो रो दिये, मां का आंचल भीगा
शरारती-से, जाने कहां गये ज़रा देखो बादल
गधा-पुराण
पता था मुझे पहले ही
गधों के सींग नहीं होते,
किन्तु शायद
आपको पता नहीं
कि गधों में ही अक्ल होती है।
गधे को गधा कह दिया
तो बुरा क्यों मानना।
दूसरों का बोझा ढोते हैं
इसीलिए,
खा-पीकर
आराम से सोते हैं।
मार का क्या।
वह तो सभी को पड़ती है
बस यह मत पूछना कैसे-कैसे,
बड़े-बड़ों की पोल खुल जायेगी
और यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा।
गधे को घास तो डालते हैं,
आपको क्या मिलता है।
और ज़रूरत पड़ने पर
इसी गधे को
बाप भी बना लेते हैं।
आज के लिए इतना ही बहुत है
गधा-पुराण।
बाकी फिर कभी सही।
धरा पर उतर
चांद को छू ले
एक बार,
फिर धरा पर उतर,
पांव रख।
आज मैं साथ तेरे
कल अकेले
तुझे आप ही
सारी सीढि़यां नापनी होंगी।
जीवन में सीढि़यां चढ़
सहज-सहज
चांद आप ही
तेरे लिए
धरा पर उतर आयेगा।
नभ से झरते रंगों में
पत्तों पर बूंदें टिकती हैं कोने में रूकती हैं, फिर गिरती हैं
मानों रूक-रूक कर कुछ सोच रही, फिर आगे बढ़ती हैं
नभ से झरते रंगों की रंगीनियों में सज-धज कर बैठी हैं ज्यों
पल-भर में आती हैं, जाती हैं, मैं ढूंढ रही, कहां खो जाती हैं
नेह-जलधार हो
जीवन में
कुछ पल तो ऐसे हों
जो केवल
मेरे और तुम्हारे हों।
जलधि-सी अटूट
नेह-जलधार हो
रेत-सी उड़ती दूरियों की
दीवार हो।
जीवन में
कुछ पल तो ऐसे हों
जो केवल
मेरे और तुम्हा़रे हों।
एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
हर वर्ष आती है यह विभीषिका।
प्रतीक्षा में बैठै रहते हैं
कब बरसेगा जल
कब होगी अतिवृष्टि
डूबेंगे शहर-दर-शहर
टूटेंगे तटबन्ध
मरेगा आदमी
भूख से बिलखेगा
त्राहि-त्राहि मचेगी चारों ओर।
फिर लगेंगे आरोप-प्रत्यारोप
वातानुकूलित भवनों में
योजनाओं का अम्बार लगेगा
मीडिया को कई दिन तक
एक समाचार मिल जायेगा,
नये-पुराने चित्र दिखा-दिखा कर
डरायेंगे हमें।
कितनी जानें गईं
कितनी बचा ली गईं
आंकड़ों का खेल होगा।
पानी उतरते ही
भूल जायेंगे हम सब कुछ।
मीडिया कुछ नया परोसेगा
जो हमें उत्तेजित कर सके।
और हम बैठे रहेंगे
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
नहीं पूछेंगे अपने-आपसे
कितने अपराधी हैं हम,
नहीं बनायेंगे
कोई दीर्घावधि योजना
नहीं ढूंढेगे कोई स्थायी हल।
बस, एक-दूसरे का मुंह ताकते
बैठे रहेंगे
एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
चिडि़या मुस्कुराई
चिडि़या के उजड़े
घोंसले को देखकर
मेरा मन द्रवित हुआ
पूछा मैंने चिडि़या से
रोज़ तिनके चुनती हो
रोज़ नया घर बनाती हो
आंधी के एक झोंके से
घरौंदा तुम्हारा उजड़ जाता है
तिनका-तिनका बिखर जाता है
कभी वर्षा, कभी धूप
कभी पतझड़
कभी इंसान की करतूत।
कहां से इतना साहस पाती हो,
न जाने कहां
दूर-दूर से भोजन लाती हो
नन्हें -नन्हें बच्चों को बचाती हो
उड़ना सिखलाती हो
और अनायास एक दिन
वे सच में ही उड़ जाते हैं
तुम्हारा दिल नहीं दुखता।
- * * *
चिडि़या !!
मुंह में तिनका दबाये
एक पल के लिए
मेरी ओर देखा
मुस्कुराई
और उड़ गई
अपना घरौंदा
पुन: संवारने के लिए।
लीपा-पोती जितनी कर ले
रंग रूप की ऐसी तैसी
मन के भाव देख प्रेयसी
लीपा-पोती जितनी कर ले
दर्पण बोले दिखती कैसी
श्याम-पटल पर लिख रहे हम
जीवन में
दो गुणा दो चार होते हैं
किन्तु बहुत बाद में पता लगा
कि दो और दो भी चार ही होते हैं।
समस्या तब आती है
जब हम देखते हैं कि
दो गुणा तीन तो छ: होते ह ैं
किन्तु दो और तीन तो छ: नहीं होते।
और जीवन में
पन्द्र्ह और सोलह
कब और कैसे हो जाते हैं
समझ ही नहीं पाते ।
श्याम-पटल पर लिख रहे हम
श्वेताक्षर,
मिट जाते हैं,
किन्तु जीवन का गुणा-भाग
जीवन का स्याह-सफ़ेद
नहीं मिटता कभी
श्याम-पटल से जीवन-पटल की राहें
सुगम नहीं ,
पर इतनी दुर्गम भी नहीं
जब जीवन की पुस्तक में
साथ हो
एक गुरू का, शिक्षक का ।
अपने भीतर झांक
नदी-तट पर बैठ
करें हम प्रलाप
हो रहा दूषित जल
क्या कर रही सरकार।
भूल गये हम
जब हमने
पिकनिक यहां मनाई थी
कुछ पन्नियां, कुछ बोतलें
यहीं जल में बहाईं थीं
कचरा-वचरा, बचा-खुचा
छोड़ वहीं पर
मस्ती में
हम घर लौटे थे।
साफ़-सफ़ाई पर
किश्तीवाले को
हमने खूब सुनाई थी।
फिर अगले दिन
नदियों की दुर्दशा पर
एक अच्छी कविता-कहानी
बनाई थी।
लाठी का अब ज़ोर चले
रंग फीके पड़ गये
सत्य अहिंसा
और आदर्शों के
पंछी देखो उड़ गये
कालिमा गहरी छा गई।
आज़ादी तो मिली बापू
पर लगता है
फिर रात अंधेरी आ गई।
निकल पड़े थे तुम अकेले,
साथ लोग आये थे।
समय बहुत बदल गया
लहर तुम्हारी छूट गई।
चित्र तुम्हारे बिक रहे,
ले-देकर उनको बात बने
लाठी का अब ज़ोर चले
चित्रों पर हैं फूल चढ़े
राहें बहुत बदल गईं
सब अपनी-अपनी राह चले
अर्थ-अनर्थ यहां हुआ
समझ तुम्हारे आये न।
चुन लूं मकरन्द
इन रंगों को
मुट्ठी में बांध लूं
महक को मन में उतार लूं
सौन्दर्य इनका
किसी के गालों पर दमक रहा
कहीं नयनों में छलक रहा
शब्दों में, भावों में
कुछ देखो दमक रहा
अभिलाषाओं का
सागर बहक रहा
चुन लूं मकरन्द
किसी तितली के संग
संवार लूं ज़िन्दगी का हर पल
यह कलियुग है रे कृष्ण
देखने में तो
कृष्ण ही लगते हो
कलियुग में आये हो
तो पीसो चक्की।
न मिलेगी
यहां यशोदा, गोपियां
जो बहायेंगी
तुम्हारे लिए
माखन-दहीं की धार
वेरका का दूध-घी
बहुत मंहगा मिलता है रे!
और पतंजलि का
है तो तुम्हारी गैया-मैया का
पर अपने बजट से बाहर है भई।
तुम्हारे इस मोहिनी रूप से
अब राधा नहीं आयेगी
वह भी
कहीं पीसती होगी
जीवन की चक्की।
बस एक ही
प्रार्थना है तुमसे
किसी युग में तो
आम इंसान बनकर
अवतार लो।
अच्छा जा अब,
उतार यह अपना ताम-झाम
और रात की रोटी खानी है तो
जाकर अन्दर से
अनाज की बोरी ला ।
धरा बिना आकाश नहीं
पंख पसारे चिड़िया को देखा
मन विस्तारित आकाश हुआ
मन तो करता है
पंछी-सा उन्मुक्त आकाश मिले
किन्तु
लौट धरा पर उतरूं कैसे,
कौन सिखलाएगा मुझको।
उंचा उड़ना बड़ा सरल है
पर कैसे जानूंगी फिर
धरा पर लौटूं कैसे मैं।
दूरी तो शायद पल भर की है
पर मन जब ऊंचा उड़ता है
दूर-दूर सब दिखता है
सब छोटे-छोटे-से लगते हैं
और अपना रूप नहीं दिखता
धरा बिना आकाश नहीं
पंछी तो जाने यह बात
बस हम ही भूले बैठें हैं यह।
अन्तर्मन की आग जला ले
अन्तर्मन की आग जला ले
उन लपटों को बाहर दिखला दे।
रोना-धोना बन्द कर अब
क्यों जिसका जी चाहे कर ले तब।
सबको अपना संसार दिखा ले
अपनी दुनिया आप बसा ले।
ठोक-बजाकर जीना सीख
कर ले अपने मन की रीत।
कोई नहीं तुझे जलाता
तेरी निर्बलता तुझ पर हावी
अपनी रीत आप बना ले।
पाखण्डों की बीन बजा देे
मनचाही तू रीत कर ले।
इसकी-उसकी सुनना बन्द कर
बेचारगी का ढोंग बन्द कर।
दया-दया की मांग मतकर
बेबस बन कर जीना बन्द कर।
अपने मन के गीत बजा ले।
घुटते-घुटते रोना बन्द कर
रो-रोकर दिखलाना बन्द कर
इसकी-उसकी सुनना बन्द कर।
अपने मन से जीना सीख।
अन्तर्मन की आग जला ले।
उन लपटों को बाहर दिखला दे।
सुनो, एकान्त का मधुर-मनोहर स्वर
सुनो,
एकान्त का
मधुर-मनोहर स्वर।
बस अनुभव करो
अन्तर्मन से उठती
शून्य की ध्वनियां,
आनन्द देता है
यह एकाकीपन,
शान्त, मनोहर।
कितने प्रयास से
बिछी यह श्वेत-धवल
स्वर लहरी
मानों दूर कहीं
किसी
जलतरंग की ध्वनियां
प्रतिध्वनित हो रही हों
उन स्वर-लहरियों से
आनन्दित
झुक जाते हैं विशाल वृक्ष
तृण भारमुक्त खड़े दिखते हैं
ऋतु बांध देती है हमें
जताती है
ज़रा मेरे साथ भी चला करो
सदैव मनमानी न करो
आओ, बैठो दो पल
बस मेरे साथ
बस मेरे साथ।
पत्थरों में भगवान ढूंढते हैं
इंसान बनते नहीं,
पत्थर गढ़ते हैं,
भाव संवरते नहीं
पूजा करते हैं,
इंसानियत निभाते नहीं
निर्माण की बात करते हैं।
सिर ढकने को
छत दे सकते नहीं
आकाश छूती
मूर्तियों की बात करते हैं।
पत्थरों में भगवान
ढूंढते हैं
अपने भीतर की इंसानियत
को मारते हैं।
* * * *
अपने भीतर
एक विध्वंस करके देख।
कुछ पुराना तोड़
कुछ नया बनाकर देख।
इंसानियत को
इंसानियत से जोड़कर देख।
पतझड़ में सावन की आस कर।
बादलों में
सतरंगी आभा की तलाश कर।
झड़ते पत्तों में
नवीन पंखुरियों की आस देख।
कुछ आप बदल
कुछ दूसरों से आस देख।
बस एक बार
अपने भीतर की कुण्ठाओं,
वर्जनाओं, मृत मान्यताओं को
तोड़ दे
समय की पुकार सुन
अपने को बदलने का साहस गुन।