और हम यूं ही लिखने बैठ जाते हैं कविता

आज ताज

स्वयं अपने साये में

बैठा है

डूबते सूरज की चपेट में।

शायद पलट रहा है

अपने ही इतिहास को।

निहारता है

अपनी प्रतिच्छाया,

कब, किसने,

क्यों निर्माण किया था मेरा।

एक कब्र थी, एक कब्रगाह।

प्रदर्शन था

सत्ता का, मोह का, धन का

अधिकार का

और शायद प्रेम का।

अथाह जलराशि में

न जाने क्या-क्या समाहित।

डूबता है मन, डूबते हैं भाव

काल के साथ

बदलते हैं अर्थ।

और हम यूं ही

लिखने बैठ जाते हैं कविता,

प्रेम की, विरह की, श्रृंगार की

और वेदना की।