आज मुझे देश की याद सता गई

सोच में पड़ गई
आज न तो गणतन्त्र दिवस है,
न स्वाधीनता दिवस, न शहीदी दिवस
और न ही किसी बड़े नेता की जयन्ती ।
न ही समाचारों में ऐसा कुछ देखा
कि देश की याद सता जाती।
फिर आज मुझे
देश की याद क्यों सता गई ।
कुछ गिने-चुने दिनों पर ही तो
याद आती है हमें अपने देश की,
जब एक दिन का अवकाश मिलता है।
और हम आगे-पीछे के दिन गिनकर
छुट्टियां मनाने निकल जाते हैं
अन्यथा अपने स्वार्थ में डूबे,
जोड़-तोड़ में लगे,
कुछ भी अच्छा-बुरा होने पर
सरकार को कोसते,
अपना पल्ला झाड़ते
चाय की चुस्कियों के साथ राजनीति डकारते
अच्छा समय बिताते हैं।
पर सोच में पड़
आज मुझे देश की याद क्यों सता गई
पर कहीं अच्छा भी लगा
कि अकारण ही
आज मुझे देश की याद सता गई ।


 

बिना बड़े सपनों के जीता हूं

कंधों पर तुम्‍हारे भी

बोझ है मेरे भी।

तुम्‍हारा बोझ  

तुम्‍हारे कल के लिए है

एक डर के साथ ।

मेरा बोझ मेरे आज के लिए है

निडर।

तुम अपनों के, सपनों के

बोझ के तले जी रहे हो।

मैं नि:शंक।

डर का घेरा बुना है

तुम्‍हारे चारों ओर 

इस बोझ को सही से

न उठा पाये तो

कल क्‍या होगा।

कल, आज और कल

मैं नहीं जानता।

बस केवल

आज के लिए जीता हूं

अपनों के लिए जीता हूं।

नहीं जानता कौन ठीक है

कौन नहीं।

पर बिना बड़े सपनों के जीता हूं

इसलिए रोज़

आराम की नींद सोता हूं

घन-घन-घन घनघोर घटाएं

घन-घन-घन घनघोर घटाएं,
लहर-लहर लहरातीं।

कुछ बूंदें बहकीं,

बरस-बरस कर,
मन सरस-सरस कर,
हुलस-हुलस कर,
हर्षित कर
लौट-लौटकर आतीं।

बूंदों का  सागर बिखरा ।

कड़क-कड़क, दमक-दमक,
चपल-चंचला दामिनी दमकाती।
मन आशंकित।
देखो, झांक-झांककर,
कभी रंग बदलतीं,

कभी संग बदलतीं।
इधर-उधर घूम-घूमकर
मारूत संग
धरा-गगन पर छा जातीं।

रवि  ने  मौका ताना,

सतरंगी आकाश बुना ।
निरख-निरख कर
कण-कण को
नेह-नीर से दुलराती।

ठिठकी-ठिठकी-सी शीत-लहर

फ़र्र-फ़र्र करती दौड़ गई।

सर्र-सर्र-सर्र कुछ पत्ते झरते

डाली पर नव-संदेश खिले

रंगों से धरती महक उठी।

पेड़ों के झुरमुट में बैठी चिड़िया

की किलकारी से नभ गूंज उठा

मानों बोली, उठ देख ज़रा

कौन आया ! बसन्त आया!!!


 

यह जीवन है

कुछ गांठें जीवन-भर

टीस देती हैं

और अन्‍त में

एक बड़ी गांठ बनकर

जीवन ले लेती हैं।

जीवन-भर

गांठों को उकेरते रहें

खोलते

या किसी से

खुलवाते रहें,

बेहिचक बांटते रहें

गांठों की रिक्‍तता,

या उनके भीतर

जमा मवाद उकेरते रहें,

तो बड़ी गांठें नहीं लेंगी जीवन

नहीं देंगी जीवन-भर का अवसाद।

यह जिजीविषा की विवशता है

यह जिजीविषा की विवशता है

या त्याग-तपस्या, ज्ञान की सीढ़ी

जीवन से विरक्तता है

अथवा जीवित रहने के लिए

दुर्भाग्य की सीढ़ी।

ज्ञान-ध्यान, धर्म, साधना संस्कृति,

साधना का मार्ग है

अथवा ढकोसलों, अज्ञान, अंधविश्‍वासों को
व्यापती एक पाखंड की पीढ़ी।

या एकाकी जीवन की

विडम्बानाओं को झेलते

भिक्षा-वृत्ति के दंश से आहत

एक निरूपाय पीढ़ी।

लाखों-करोड़ों की मूर्तियां बनाने की जगह

इनके लिए एक रैन-बसेरा बनवा दें

हर मन्दिर के किसी कोने में

इनके लिए भी एक आसन लगवा दें।

कोई न कोई काम तो यह भी कर ही देंगे

वहां कोई काम इनको भी दिलवा दें,

इस आयु में एक सम्मानजनक जीवन जी लें

बस इतनी सी एक आस दिलवा दें।

अठखेलियां करते बादल

आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल

ज्‍यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल

डांट पड़ी तो रो दिये, मां का आंचल भीगा

शरारती-से, जाने कहां गये ज़रा देखो बादल

गधा-पुराण

पता था मुझे पहले ही
गधों के सींग नहीं होते,
किन्तु शायद
आपको पता नहीं
कि गधों में ही अक्ल होती है।
गधे को गधा कह दिया
तो बुरा क्यों  मानना।
दूसरों का बोझा ढोते हैं
इसीलिए,
खा-पीकर
आराम से सोते हैं।
मार का क्या।
वह तो सभी को पड़ती है
बस यह मत पूछना कैसे-कैसे,
बड़े-बड़ों की पोल खुल जायेगी
और यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा।
गधे को घास तो डालते हैं,
आपको क्या मिलता है।
और ज़रूरत पड़ने पर
इसी गधे को
बाप भी बना लेते हैं।

आज के लिए इतना ही बहुत है
गधा-पुराण।
बाकी फिर कभी सही।

धरा पर उतर

चांद को छू ले

एक बार,

फिर धरा पर उतर,

पांव रख।

आज मैं साथ तेरे

कल अकेले

तुझे आप ही

सारी सीढि़यां नापनी होंगी।

जीवन में सीढि़यां चढ़

सहज-सहज

चांद आप ही

तेरे लिए

धरा पर उतर आयेगा।

नभ से झरते रंगों में

पत्तों पर बूंदें टिकती हैं कोने में रूकती हैं,  फिर गिरती हैं

मानों रूक-रूक कर कुछ सोच रही, फिर आगे बढ़ती हैं

नभ से झरते रंगों की रंगीनियों में सज-धज कर बैठी हैं ज्‍यों

पल-भर में आती हैं, जाती हैं, मैं ढूंढ रही, कहां खो जाती हैं

नेह-जलधार हो

जीवन में
कुछ पल तो ऐसे हों
जो केवल
मेरे और तुम्हारे हों।
जलधि-सी अटूट

नेह-जलधार हो
रेत-सी उड़ती दूरियों की
दीवार हो।
जीवन में
कुछ पल तो ऐसे हों
जो केवल
मेरे और तुम्हा़रे हों।

एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।

हर वर्ष आती है यह विभीषिका।
प्रतीक्षा में बैठै रहते हैं
कब बरसेगा जल
कब होगी अतिवृष्टि
डूबेंगे शहर-दर-शहर
टूटेंगे तटबन्ध
मरेगा आदमी
भूख से बिलखेगा
त्राहि-त्राहि मचेगी चारों ओर।
फिर लगेंगे आरोप-प्रत्यारोप
वातानुकूलित भवनों में
योजनाओं का अम्बार लगेगा
मीडिया को कई दिन तक
एक समाचार मिल जायेगा,
नये-पुराने चित्र दिखा-दिखा कर
डरायेंगे हमें।
कितनी जानें गईं
कितनी बचा ली गईं
आंकड़ों का खेल होगा।
पानी उतरते ही
भूल जायेंगे हम सब कुछ।
मीडिया कुछ नया परोसेगा
जो हमें उत्तेजित कर सके।
और हम बैठे रहेंगे
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
नहीं पूछेंगे अपने-आपसे
कितने अपराधी हैं हम,
नहीं बनायेंगे
कोई दीर्घावधि योजना
नहीं ढूंढेगे कोई स्थायी हल।
बस, एक-दूसरे का मुंह ताकते
बैठे रहेंगे
एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।

चिडि़या मुस्कुराई

चिडि़या के उजड़े

घोंसले को देखकर

मेरा मन द्रवित हुआ

पूछा मैंने चिडि़या से

रोज़ तिनके चुनती हो

रोज़ नया घर बनाती हो

आंधी के एक झोंके से

घरौंदा तुम्‍हारा उजड़ जाता है

तिनका-तिनका बिखर जाता है

कभी वर्षा, कभी धूप

कभी पतझड़

कभी इंसान की करतूत।

कहां से इतना साहस पाती हो,  

न जाने कहां

दूर-दूर से भोजन लाती हो

नन्‍हें -नन्‍हें बच्‍चों को बचाती हो

उड़ना सिखलाती हो

और अनायास एक दिन

वे सच में ही उड़ जाते हैं

तुम्‍हारा दिल नहीं दुखता।

  • *    *    *

चिडि़या !!

मुंह में तिनका दबाये

एक पल के लिए

मेरी ओर देखा

मुस्‍कुराई

और उड़ गई

अपना घरौंदा

पुन: संवारने के लिए।

लीपा-पोती जितनी कर ले

रंग रूप की ऐसी तैसी

मन के भाव देख प्रेयसी

लीपा-पोती जितनी कर ले

दर्पण बोले दिखती कैसी

श्याम-पटल पर लिख रहे हम

जीवन में
दो गुणा दो चार होते हैं
किन्तु बहुत बाद में पता लगा
कि दो और दो भी चार ही होते हैं।
समस्या तब आती है
जब हम देखते हैं कि
दो गुणा तीन तो छ: होते ह ैं
किन्तु दो और तीन तो छ: नहीं होते।
और जीवन में
पन्द्र्ह और सोलह
कब और कैसे हो जाते हैं
समझ ही नहीं पाते ।

श्याम-पटल पर लिख रहे हम
श्वेताक्षर,
मिट जाते हैं,
किन्तु जीवन का गुणा-भाग
जीवन का स्याह-सफ़ेद
नहीं मिटता कभी
श्याम-पटल से जीवन-पटल की राहें
सुगम नहीं ,
पर इतनी दुर्गम भी नहीं
जब जीवन की पुस्तक में
साथ हो
एक गुरू का, शिक्षक का ।

अपने भीतर झांक

नदी-तट पर बैठ

करें हम प्रलाप

हो रहा दूषित जल

क्‍या कर रही सरकार।

भूल गये हम

जब हमने

पिकनिक यहां मनाई थी

कुछ पन्नियां, कुछ बोतलें

यहीं जल में बहाईं थीं

कचरा-वचरा, बचा-खुचा

छोड़ वहीं पर

मस्‍ती में

हम घर लौटे थे।

साफ़-सफ़ाई पर

किश्‍तीवाले को

हमने खूब सुनाई थी।

फिर अगले दिन

नदियों की दुर्दशा पर

एक अच्‍छी कविता-कहानी

बनाई थी।  

लाठी का अब ज़ोर चले

रंग फीके पड़ गये

सत्य अहिंसा

और आदर्शों के

पंछी देखो उड़ गये

कालिमा  गहरी छा गई।

आज़ादी तो मिली बापू

पर लगता है

फिर रात अंधेरी आ गई।

निकल पड़े थे तुम अकेले,

साथ लोग आये थे।

समय बहुत बदल गया

लहर तुम्हारी छूट गई।

चित्र तुम्हारे बिक रहे,

ले-देकर उनको बात बने

लाठी का अब ज़ोर चले

चित्रों पर हैं फूल चढ़े

राहें बहुत बदल गईं

सब अपनी-अपनी राह चले

अर्थ-अनर्थ यहां हुआ

समझ तुम्हारे आये न।

चुन लूं मकरन्द

इन रंगों को

मुट्ठी में बांध लूं

महक को मन में उतार लूं

सौन्दर्य इनका

किसी के गालों पर दमक रहा

कहीं नयनों में छलक रहा

शब्दों में, भावों में

कुछ देखो दमक रहा

अभिलाषाओं का

सागर बहक रहा

चुन लूं मकरन्द

किसी तितली के संग

संवार लूं ज़िन्दगी का हर पल

यह कलियु‍ग है रे कृष्ण

देखने में तो

कृष्ण ही लगते हो

कलियुग में आये हो

तो पीसो चक्की।

न मिलेगी

यहां यशोदा, गोपियां

जो बहायेंगी

तुम्हारे लिए

माखन-दहीं की धार

वेरका का दूध-घी

बहुत मंहगा मिलता है रे!

और पतंजलि का

है तो तुम्हारी गैया-मैया का

पर अपने बजट से बाहर है भई।

तुम्हारे इस मोहिनी रूप से

अब राधा नहीं आयेगी

वह भी

कहीं पीसती होगी

जीवन की चक्की।

बस एक ही

प्रार्थना है तुमसे

किसी युग में तो

आम इंसान बनकर

अवतार लो।

अच्छा जा अब,

उतार यह अपना ताम-झाम

और रात की रोटी खानी है तो

जाकर अन्दर से

अनाज की बोरी ला ।

धरा बिना आकाश नहीं

पंख पसारे चिड़िया को देखा

मन विस्तारित आकाश हुआ

मन तो करता है

पंछी-सा उन्मुक्त आकाश मिले

किन्तु

लौट धरा पर उतरूं कैसे,

कौन सिखलाएगा मुझको।

उंचा उड़ना बड़ा सरल है

पर कैसे जानूंगी फिर

धरा पर लौटूं कैसे मैं।

दूरी तो शायद पल भर की है

पर मन जब ऊंचा उड़ता है

दूर-दूर सब दिखता है

सब छोटे-छोटे-से लगते हैं

और अपना रूप नहीं दिखता

धरा बिना आकाश नहीं

पंछी तो जाने यह बात

बस हम ही भूले बैठें हैं यह।

 

अन्तर्मन की आग जला ले

अन्तर्मन की आग जला ले

उन लपटों को बाहर दिखला दे

रोना-धोना बन्द कर अब

क्यों जिसका जी चाहे कर ले तब

सबको अपना संसार दिखा ले

अपनी दुनिया आप बसा ले

ठोक-बजाकर जीना सीख

कर ले अपने मन की रीत

कोई नहीं तुझे जलाता

तेरी निर्बलता तुझ पर हावी

अपनी रीत आप बना ले

पाखण्डों की बीन बजा देे

मनचाही तू रीत कर ले

इसकी-उसकी सुनना बन्द कर

बेचारगी का ढोंग बन्द कर

दया-दया की मांग मतकर

बेबस बन कर जीना बन्द कर

अपने मन के गीत बजा ले

घुटते-घुटते रोना बन्द कर

रो-रोकर दिखलाना बन्द कर

इसकी-उसकी सुनना बन्द कर

अपने मन से जीना सीख

अन्तर्मन की आग जला ले

 उन लपटों को बाहर दिखला दे

 

सुनो, एकान्त का मधुर-मनोहर स्वर

सुनो,

एकान्त का

मधुर-मनोहर स्वर।

बस अनुभव करो

अन्तर्मन से उठती

शून्य की ध्वनियां,

आनन्द देता है

यह एकाकीपन,

शान्त, मनोहर।

कितने प्रयास से

बिछी यह श्वेत-धवल

स्वर लहरी

मानों दूर कहीं

किसी 

जलतरंग की ध्वनियां

प्रतिध्वनित हो रही हों

उन स्वर-लहरियों से

आनन्दित

झुक जाते हैं विशाल वृक्ष

तृण भारमुक्त खड़े दिखते हैं

ऋतु बांध देती है हमें

जताती है

ज़रा मेरे साथ भी चला करो

सदैव मनमानी न करो

आओ, बैठो दो पल

बस मेरे साथ

बस मेरे साथ।

पत्थरों में भगवान ढूंढते हैं

इंसान बनते नहीं,

पत्थर गढ़ते हैं,

भाव संवरते नहीं

पूजा करते हैं,

इंसानियत निभाते नहीं

निर्माण की बात करते हैं।

सिर ढकने को

छत दे सकते नहीं

आकाश छूती

मूर्तियों की बात करते हैं।

पत्थरों में भगवान

ढूंढते हैं

अपने भीतर की इंसानियत

को मारते हैं।

*  *  *  *

अपने भीतर

एक विध्वंस करके देख।

कुछ पुराना तोड़

कुछ नया बनाकर देख।

इंसानियत को

इंसानियत से जोड़कर देख।

पतझड़ में सावन की आस कर।

बादलों में

सतरंगी आभा की तलाश कर।

झड़ते पत्तों में

नवीन पंखुरियों की आस देख।

कुछ आप बदल

कुछ दूसरों से आस देख।

बस एक बार

अपने भीतर की कुण्ठाओं,

वर्जनाओं, मृत मान्यताओं को

तोड़ दे

समय की पुकार सुन

अपने को बदलने का साहस गुन।

बस ! हार मत मानना

कहते हैं

धरती सोना उगलती है

ये बात वही जानता है

जिसके परिश्रम का स्वेद

धरा ने चखा  हो।

गेहूं की लहलहाती बालियां

आकर्षित करती हैं,

सौन्दर्य प्रदर्शित करती हैं,

झूमती हैं, पुकारती हैं

जीवन का सार समझाती हैं ।

पता नहीं कल क्या होगा

मौसम बदलेगा

सोना घर आयेगा

या फिर मिट्टी हो जायेगा

कौन जाने ।

किन्तु

कृषक फिर उठ खड़ा होगा

अपने परिश्रम के स्वेद से

धरा को सींचने के लिए

बस ! हार मत मानना

फल तो मिलकर ही रहेगा

धरा यही समझाती हैं ।

काश ! ऐसा हो जाये

सोचती हूं,

पर पहले ही बता दूं

कि जो मैं सोचती हूं

वह आपकी दृष्टि में

ठीक नहीं होगा,

किन्तु अपनी सोच को

रोक तो नहीं सकती,

और मेरी सोच पर

आप रोक लगा नहीं सकते,

और आपको बिना बताये

मैं रह भी नहीं सकती।

कितना अच्छा हो

कि संविधान में

नियम बन जाये

कि एक वेशभूषा

एक रंग और एक ही ढंग

जैसे विद्यालयों में बच्चों की

यूनिफ़ार्म।

फिर हाथ सामने जोड़ें

माथा टेकें

अथवा आकाश को पुकारें

कहीं कुछ अलग-सा

महसूस नहीं होगा,

चाहे तुम मुझे धूप से बचाओ

या मैं तुम्हें

वर्षा में भीगने के लिए खींच लूं

कोई गलत अर्थ नहीं निकालेगा,

कोई थोथी भावुकता नहीं परोसेगा

और शायद न ही कोई

आरोप जड़ेगा।

चलो,

आज बाज़ार चलकर

एक-सा पहनावा बनवा लें।

चलोगे क्या ??????

 

आनन्द के कुछ पल

संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।



 

वन्दे मातरम् कहें

चलो

आज कुछ नया-सा करें

न करें दुआ-सलाम

न प्रणाम

बस, वन्दे मातरम् कहें।

देश-भक्ति के गीत गायें

पर सत्य का मार्ग भी अपनाएं।

शहीदों की याद में

स्मारक बनाएं

किन्तु उनसे मिली

धरोहर का मान बढ़ाएं।

न जाति पूछें, न धर्म बताएं

बस केवल

इंसानियत का पाठ पढ़ाएं।

झूठे जयकारों से कुछ नहीं होता

नारों-वादों कहावतों से कुछ नहीं होता

बदलना है अगर देश को

तो चलो यारो

आज अपने-आप को परखें

अपनी गद्दारी,

अपनी ईमानदारी को परखें

अपनी जेब टटोलें

पड़ी रेज़गारी को खोलें

और अलग करें

वे सारे सिक्के

जो खोटे हैं।

घर में कुछ दर्पण लगवा लें

प्रात: प्रतिदिन अपना चेहरा

भली-भांति परखें

फिर किसी और को दिखाने का साहस करें।

हिम्मतों का सफ़र है ज़िन्दगी

हिम्मतों का सफ़र है ज़िन्दगी।

राहों में खतरा है ज़िन्दगी।

पर्वतों-सी बाधाएं झेलती है ज़िन्दगी।

साहस और श्रम का नाम है ज़िन्दगी।

कहते हैं जहां चाह वहां राह,

यह बात यहां बताती है ज़िन्दगी।

कहीं गहरी खाई और कहीं

सिर पर पहाड़-सी समस्याओं से

डराती है ज़िन्दगी।

राह देना

और सही राह लेना

समझाती है ज़िन्दगी।

चलना सदा सम्हल कर

यह समझाती है जिन्दगी।

एक गलत मोड़

एक अन्त का संकेत

दे जाती है ज़िन्दगी।

ये सूर्य रश्मियां

वृक्षों की आड़ से

झांकती हैं कुछ रश्मियां

समझ-बूझकर चलें

तो जीवन का अर्थ

समझाती हैं ये रश्मियां

मन को राहत देती हैं

ये खामोशियां

जीवन के एकान्त को

मुखर करती हैं ये खामोशियां

जीवन के उतार-चढ़ाव को

समझाती हैं ये सीढ़ियां

दुख-सुख के पल आते-जाते हैं

ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां

पाषाणों में

पढ़ने को मिलती हैं

जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां

समझ सकें तो समझ लें

हम ये कहानियां

अपनेपन से बात करती

मन को आश्वस्त करती हैं

ये तन्हाईयां

अपने लिए सोचने का

समय देती हैं ये तन्हाईयां

और जीवन में

आनन्द दे जाती हैं

छू कर जातीं

मौसम की ये पुरवाईयां

जीवन के रंग

द्वार पर आहट हुई,

कुछ रंग खड़े थे

कुछ रंग उदास-से पड़े थे।

मैंने पूछा

कहां रहे पूरे साल ?

बोले,

हम तो यहीं थे

तुम्हारे आस-पास।

बस तुम ही

तारीखें गिनते हो,

दिन परखते हो,

तब खुशियां मनाते हो

मानों प्रायोजित-सी

हर दिन होली-सा देखो

हर रात दीपावली जगमगाओ

जीवन में रंगों की आहट पकड़ो।

हां, जीवन के रंग बहुत हैं

कभी ग़म, कभी खुशी

के संग बहुत हैं,

पर ये आना-जाना तो लगा रहेगा

बस जीवन में

रंगों की हर आहट  पकड़ो।

हर दिन होली-सा रंगीन मिलेगा

हर दिन जीवन का रंग खिलेगा।

बस

मन से रंगों की हर आहट पकड़ो।

 

खण्डित दर्पण सच बोलता है

कहते हैं
खण्डित दर्पण में
चेहरा देखना अपशकुन होता है।
शायद इसलिए
कि इस खण्डित दर्पण के
टुकड़ों में
हमें अपने
सारे असली चेहरे
दिखाई देने लगते हैं
और हम समझ नहीं पाते
कहां जाकर
अपना यह चेहरा छुपायें।
*-*-**-*-
एक बात और
जब दर्पण टूटता है
तो अक्सर खरोंच भी
पड़ जाया करती है
फिर चेहरे नहीं दिखते
खरोंचे सालती हैं जीवन-भर।
*-*-*-*-*-
एक बात और
कहते हैं दर्पण सच बोलता है
पर मेरी मानों
तो दर्पण पर
भरोसा मत करना कभी
उल्टे को सीधा
और सीधे को उल्टा दिखाता है