चूड़ियां उतार दी मैंने

चूड़ियां उतार दी मैंने, सब कहते हैं पहनने वाली नारी अबला होती है

यह भी कि प्रदर्शन-सजावट के पीछे भागती नारी कहां सबला होती है

न जाने कितनी कहावतें, मुहावरे बुन दिये इस समाज ने हमारे लिये

सहज साज-श्रृंगार भी यहां न जाने क्यों बस उपहास की बात होती है

चूड़ी की हर खनक में अलग भाव होते हैं,कभी आंसू,  कभी  हास होते हैं

कभी न समझ सका कोई, यहां तो नारी की हर बात उपहास होती है

धरा पर पांव टिकते नहीं

और चाहिये और चाहिए की भूख में छूट रहे हैं अवसर

धरा पर पांव टिकते नहीं, आकाश को छू पाते नहीं अक्सर

यह भी चाहिये, वह भी चाहिए, लगी है यहां बस भाग-दौड़

क्या छोड़ें, क्या लें लें, इसी उधेड़-बुन में रह जाते हैं अक्सर

बसन्त पंचमी पर
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‘गर कांटे न होते

इतना न याद करते गुलाब को,  गर कांटे न होते

न सुहाती मुहब्बत गर बिछड़ने के अफ़साने न होते

गर आंसू न होते तो मुस्कुराहट की बात कौन करना

कौन स्मरण करता यहां गर भूलने के बहाने न होते

 

फूल तो फूल हैं
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चलते चलते
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मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है
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अरे अपने भीतर जांच

शब्दों की क्या बात करें, ये मन बड़ा वाचाल है

इधर-उधर भटकता रहता, न अपना पूछे हाल है

तांक-झांक की आदत बुरी, अरे अपने भीतर जांच

है सबका हाल यही, तभी तो सब यहां बेहाल हैं

 

जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये

जब मूक रहे तब मूर्ख कहलाये

बोले तो हम बड़बोले बन जायें

यूं ही क्यों चिन्तन करता रे मन !

जिसको जो कहना है कहते जायें

पीछे से झांकती है दुनिया
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सम्मान उन्हें देना है
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खींच-तान में मन उलझा रहता है

आशाओं का संसार बसा है, मन आतुर रहता है

यह भी ले ले, वह भी ले ले, पल-पल ये ही कहता है

क्या छोड़ें, क्या लेंगे, और क्या मिलना है किसे पता

बस इसी खींच-तान में जीवन-भर मन उलझा रहता है

जब तक चिल्लाओ  न, कोई सुनता नहीं

अब शांत रहने से यहां कुछ मिलता नहीं

जब तक चिल्लाओ  न, कोई सुनता नहीं

सब गूंगे-बहरे-अंधे अजनबी हो गये हैं यहां

दो की चार न सुनाओ जब तक, काम बनता नहीं

हां, मैं हूं कुत्ता
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एक चित्रात्‍मक कथा
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भावों की छप-छपाक
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मन न जाने कहां-कहां-तिरता है
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प्यार के इज़हार के लिए
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योग दिवस पर एक रचना
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रंगीनियां तो बिखेर कर ही जाता है
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मेरी कागज़ की नाव खो गई
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हिन्दी के प्रति
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एक डर में जीते हैं हम
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और हम यूं ही लिखने बैठ जाते हैं कविता
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अंधविश्वासों में जीते
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तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा
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खुले हैं वातायन
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वे पिता ही थे
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कुछ तो मुंह भी खोल
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बनी-बनाई धारणाएं लिए घूमते हैं
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