भावों की छप-छपाक

यूं ही जीवन जीना है।

नयनों से छलकी एक बूंद

कभी-कभी

सागर के जल-सी गहरी होती है,

भावों की छप-छपाक

न  जाने क्या-क्या कह जाती है।

और कभी ओस की बूंद-सी

झट-से ओझल हो जाती है।

हो सकता है

माणिक-मोती मिल जायें,

या फिर

किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।

कौन जाने, कब

फूलों की सुगंध से मन महक उठे,

तरल-तरल से भाव छलक उठें।

इसी निराश-आस-विश्वास में

ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।