मन न जाने कहां-कहां-तिरता है

इस एकान्त में

एक अपनापन  है,

फूलों-पत्तियों में

मेरे मन का चिन्तन है।

कुछ हरे-भरे,

कुछ गिरे-पड़े,

कुछ डाली से टूटे,

और कुछ मानों कलियों-से

अधजीवन में ही

अपनेपन से छूटे।

लकड़ी की नैया पर बैठे-बैठे

मन न जाने कहां-कहां-तिरता है।

इस निश्चल, निश्छल जल में

अपनी प्रतिच्छाया ढूंढता है।

कुछ उलटता है, कुछ पलटता है

डूबता-उतरता है,

फिर लौटता है

सहज-सहज

एक मधुर मुस्कान के साथ।