मेरी कागज़ की नाव खो गई

कागज़ की नाव में

जितने सपने थे

सब अपने थे।

छोटे-छोटे थे

पर मन के थे ।

न डूबने की चिन्ता

न सपनों के टूटने की चिन्ता।

तिरती थी,

पलटती थी,

टूट-फूट जाती थी,

भंवर में अटकती थी,

रूक-रूक जाती थी,

एक जाती थी,

एक और आ जाती थी।

पर सपने तो सपने थे

सब अपने थे]

न टूटते थे न फूटते थे,

जीवन की लय

यूं ही बहती जाती थी।

फिर एक दिन

हम बड़े हो गये

सपने भारी-भारी हो गये।

अपने ही नहीं

सबके हो गये।

पता ही नहीं लगा

वह कागज़ की नाव

कहां खो गई।

कभी अनायास यूं ही

याद आ जाती है

तो ढूंढने निकल पड़ते हैं,

किन्तु भारी सपने कहां

पीछा छोड़ते हैं।

सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं,

अब नाव नहीं बनती।

मेरी कागज़ की नाव

न जाने कहां खो गई

मिल जाये तो लौटा देना।