वीरों को नमन

उन वीरों को हम

सदा नमन करें

जो हमें खुली हवाओं में

सांस लेने का अवसर

देकर गये।

उनके बलिदान का हम

सदा सम्मान करें

जो देश के लिए

दीवारों में चिन दिये गये।

उनके लिए

अपना देश ही धर्म था

और था आज़ादी का सपना।

आज़ादी और अपने धर्म के लिए

उनकी जलाई ज्योति

अखंड जली

और भारत आज़ाद हुआ।

महत्व इस बात का नहीं

कि उनकी आयु क्या थी

महत्व इस बात का

कि उनका लक्ष्य क्या था।

बस इतना स्मरण रहे

कि हम उनसे मिले भाव को

मिटा न दें

ऐसा कोई कर्म न करें

कि उनका बलिदान शर्मिंदा हो।

 

राजनीति अब बदल गई
राजनीति अब बदल गई, मानों दंगल हो रहे

देश-प्रेम की बात कहां, सब अपने सपने बो रहे

इसको काटो, उसको बांटों, बस सत्ता हथियानी है

धमा- चौकड़ी मची है मानों हथेली सरसों बो रहे

तिरंगे का  एहसास

जब हम दोनों

साथ खड़े होते हैं

तब

तिरंगे का

एहसास होता है।

केसरिया

सफ़ेद और हरा

मानों

साथ-साथ चलते हैं

बाहों में बाहें डाले।

चलो, यूँ ही

आगे बढ़ते हैं

अपने इस मैत्री-भाव को

अमर करते हैं।

 

न कुछ बदला है न बदलेगा

कांटा डाले देखो बैठे नेताजी

वोट का तोल लगाने बैठे नेताजी

-

नेताजी के रंग बदल गये

खाने-पीने के ढंग बदल गये

-

नोट दिखाकर ललचा रहे हैं

वोट हमसे मांग रहे हैं।

-

इसको ऐसे समझो जी,

नोटों का चारा बनता

वोटों का झांसा डलता

मछली को दाना डलता

-

पहले मछली को दाना डालेंगे

उससे अपने काम निकलवा लेंगे

होगी  मछली ज्यों ही मोटी

होगी किस्मत उसकी  खोटी

-

दाना-पानी सब बन्द होगा

नदिया का पानी सूखेगा

फिर कांटे से इनको बाहर लायेंगे

काट-काटकर खायेंगे

प्रीत-भोज में मिलते हैं

पांच साल किसने देखे

आना-जाना लगा रहेगा

न कुछ बदला है, न बदलेगा।

 

कड़वा सच पिलवाऊँगा

न मैंने पी है प्यारी

न मैंने ली है।

नई यूनिफ़ार्म

बनवाई है

चुनाव सभा के लिए आई है।

जनसभा से आया हूँ,

कुछ नये नारे

लेकर आया हूँ।

चाय नहीं पीनी है मुझको

जाकर झाड़ू ला।

झाड़ू दूँगा,

हाथ भी दिखलाऊँगा,

फूलों-सा खिल जाऊँगा,

साईकिल भी चलाऊँगा,

हाथी पर तुझको

बिठलाऊँगा,

फिर ढोलक बजवाऊँगा।

वहाँ तीर-कमान भी चलते हैं

मंजी पर बिठलाऊँगा।

आरी भी देखी मैंने

हल-बैल भी घूम रहे,

तुझको

क्या-क्या बतलाउँ मैं।

सूरज-चंदा भी चमके हैं

लालटेन-बल्ब

सब वहाँ लटके हैं।

चल ज़रा मेरे साथ

वहाँ सोने-चाँदी भी चमके है,

टाट-पैबन्द भी लटके हैं,

चल तुझको

असली दुनियाँ दिखलाऊँगा,

चाय-पानी भूलकर

कड़वा सच पिलवाऊँगा।

 

देश और ध्वज

देश

केवल एक देश नहीं होता

देश होता है

एक भाव, पूजा, अर्चना,

और भक्ति का आधार।

-

ध्वज

केवल एक ध्वज नहीं होता

ध्वज होता है प्रतीक

देश की आन, बान,

सम्मान और शान का।

.

और यह देश भारत है

और है आकाश में लहराता

हमारा तिरंगा

और जब वह भारत हो

और हो हमारा तिरंगा

तब शीश स्वयं झुकता है

शीश मान से उठता है

जब आकाश में लहराता है तिरंगा।

.

रंगों की आभा बिखेरता

शक्ति, साहस

सत्य और शांति का संदेश देता

हमारे मन में

गौरव का भाव जगाता है तिरंगा।

.

जब हम

निरखते हैं तिरंगे की आभा,

गीत गाते हैं

भारत के गौरव के,

शस्य-श्यामला

धरा की बात करते हैं

तल से अतल तक विस्तार से

गर्वोन्नत होते हैं

तब हमारा शीश झुकता है

उन वीरों की स्मृति में

जिनके रक्त से सिंची थी यह धरा।

.

स्वर्णिम आज़ादी का

उपहार दे गये हमें।

आत्मसम्मान, स्वाभिमान

का भान दे गये हमें

देश के लिए जिएँ

देश के लिए मरें

यह ज्ञान दे गये हमें।

-

स्वर्णिम आज़ादी का

उपहार दे गये हमें।

आत्मसम्मान, स्वाभिमान

का भान दे गये हमें

  

 

 

हां हुआ था भारत आज़ाद

कभी लगा ही नहीं

कि हमें आज़ाद हुए इतने वर्ष हो गये।

लगता है अभी कल ही की तो बात है।

हमारे हाथों में सौंप गये थे

एक आज़ाद भारत

कुछ आज़ादी के दीवाने, परवाने।

फ़ांसी चढ़े, शहीद हुए।

और न जाने क्या क्या सहन किया था

उन लोगों ने जो हम जानते ही नहीं।

जानते हैं तो बस एक आधा अधूरा सच

जो हमने पढ़ा है पुस्तकों में।

और ये सब भी याद आता है हमें

बस साल के गिने चुने चार दिन।

हां हुआ था भारत आज़ाद।

कुछ लोगों की दीवानगी, बलिदान और हिम्मत से।

 

और हम ! क्या कर रहे हैं हम ?

कैसे सहेज रहे हैं आज़ादी के इस उपहार को।

हम जानते ही नहीं

कि मिली हुई आजादी का अर्थ क्या होता है।

कैसे सम्हाला, सहेजा जाता है इसे।

दुश्मन आज भी हैं देश के

जिन्हें मारने की बजाय

पाल पोस रहे हैं हम उन्हें अपने ही भीतर।

झूठ, अन्नाय के विरूद्ध

एक छोटी सी आवाज़ उठाने से तो डरते हैं हम।

और आज़ादी के दीवानों की बात करते हैं।

बड़ी बात यह

कि आज देश के दुश्मनों के विरूद्ध खड़े होने के लिए

हमें पहले अपने विरूद्ध हथियार उठाने पड़ेंगे।

शायद इसलिए

अधिकार नहीं है हमें

शहीदों को नमन का

नहीं है अधिकार हमें तिरंगे को सलामी का

नहीं है अधिकार

किसी और पर उंगली उठाने का।

पहले अपने आप को तो पहचान लें

देश के दुश्मनों को अपने भीतर तो मार लें

फिर साथ साथ चलेंगे

न्याय, सत्य, त्याग की राह पर

शहीदों को नमन करेंगे

और तिरंगा फहरायेंगे अपनी धरती पर

और अपने भीतर।

 

 

 

आज़ादी की कीमत

कौन थे वे लोग !

गोलियों से जूझते, फांसी पर झूलते

अंग्रज़ों को ललकारते, भूख प्यास नकारते

देश के लिए जन जन जागते

बस एक सपना लेकर स्वतन्त्र भारत का।

 

हम कहानियों में पढ़ते हैं, इतिहास में रटते हैं

और उकताकर जल्दी ही भूल जाते हैं।

उनका जुनून, उनका त्याग, और उनका बलिदान।

उनका संघर्ष

हमारी समझ में नहीं आता।

 

नहीं समझ पाते कि

आ़ज़ादी मिलती नहीं

लेनी पड़ती है

अपने प्राण देकर।

 

बस कुछ दिन और कुछ तारीखें

याद कर ली हैं हमने।

झंडे उठा लेते हैं, नारे लगा लेते हैं

प्रभात फेरियां निकालते हैं

फूल मालाएं चढ़ाते हैं

और देश भक्ति के कुछ पुराने गीत गा लेते हैं।

श्रद्धांजलि के नाम पर नौटंकी कर जाते हैं।

फिर छुट्टी मनाते हैं।

 

मौका मिलते ही भ्रष्टाचार को कोसते हैं

नेताओं के नाम पर रोते हैं

झूठ, पाखण्ड , धोखे के साथ जीते हैं

सत्य को नकारते हैं, दूसरों को कोसते हैं

आज़ादी को रोते हैं

लेकिन जब कर्त्तव्य निर्वाह की बात आती है

तो मुंह ढककर सो जाते हैं।

फिर कहते हैं

किस काम की ऐसी आज़ादी

इससे तो अंग्रेज़ों का समय ही अच्छा था।

 

काश ! हम समझ पाते

घर बैठे मिली आज़ादी के पीछे

कितनी खून की नदियां बही हैं।

सैंकड़ों वर्षों के संघर्ष का अभिमान है ये।

देश के गौरव की रक्षा के लिए

तन मन धन के बलिदान की

एक लम्बी गाथा है ये।

सत्य, निष्ठा और प्रेम की परिभाषा है ये।

सहेजना है हमें इसे।

और यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी

उन वीरों के प्रति

जो जीवन से पहले ही मृत्यु को चुनकर चले गये

हमारे आज के लिए।

 

 

 

आज़ादी की क्या कीमत

कहां समझे हम आज़ादी की क्या कीमत होती है।

कहां समझे हम बलिदानों की क्या कीमत होती है।

मिली हमें बन्द आंखों में आज़ादी, झोली में पाई हमने

कहां समझे हम राष्ट््भक्ति की क्या कीमत होती है।

 

पुतले बनकर रह गये हैं हम

हां , जी हां

पुतले बनकर रह गये हैं हम।

मतदाता तो कभी थे ही नहीं,

कल भी कठपुतलियां थे

आज भी हैं

और शायद कल भी रहेंगे।

कौन नचा रहा है

और कौन भुना रहा है

सब जानते हैं।

स्वार्थान्धता की कोई सीमा नहीं।

बुद्धि कुण्ठित हो चुकी है

जिह्वा को लकवा मार गया है

और श्रवण-शक्ति क्षीण हो चुकी है।

फिर भी आरोप-प्रत्यारोप की एक

लम्बी सूची है

और यहां जिह्वा खूब चलती है।

किन्तु जब

निर्णय की बात आती है

तब हम कठपुतलियां ही ठीक हैं।

 

 

 

 

अभिनन्दन करते मातृभूमि का

 

वन्दन करते, अभिनन्दन करते मातृभूमि का जिस पर हमने जन्म लिया

लोकतन्त्र देता अधिकार असीमित, क्या कर्त्तव्यों की ओर कभी ध्यान दिया

देशभक्ति के नारों से, कुछ गीतों, कुछ व्याखानों से, जय-जय-जयकारों से ,

पूछती हूं स्वयं से, इससे हटकर देशहित में और कौन-कौन-सा कर्म किया

फहराता है तिरंगा

प्रकृति के प्रांगण में लहराता है तिरंगा

धरा से गगन तक फहराता है तिरंगा

हरीतिमा भी गौरवान्वित है यहां देखो

भारत का मानचित्र सजाता है तिरंगा

अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति

हिन्‍दी को वे नाम दे गये, हिन्‍दी को पहचान दे गये

अटल वाणी से वे जग में अपनी अलग पहचान दे गये

शत्रु से हाथ मिलाकर भी ताकत अपनी दिखलाई थी ,

विश्‍व-पटल पर अपनी वाणी से भारत को पहचान दे गये

जब लहराता है तिरंगा

एक भाव है ध्वजा,

देश के प्रति साख है ध्वजा।

प्रतीक है,

आन का, बान का, शान का।

.

तीन रंगों से सजा,

नारंगी, श्वेत, हरा

देते हमें जीवन के शुद्ध भाव,

शक्ति, साहस की प्रेरणा,

सत्य-शांति का प्रतीक,

धर्म चक्र से चिन्हित,

प्रकृति, वृद्धि एवं शुभता

की प्रेरणा।

भाव है अपनत्व का।

शीश सदा झुकता है

शीष सदा मान से उठता है,

जब लहराता है तिरंगा।

 

 

स्वाधीनता हमारे लिए स्वच्छन्दता बन गई

एक स्वाधीनता हमने

अंग्रेज़ो से पाई थी,

उसका रंग लाल था।

पढ़ते हैं कहानियों में,

सुनते हैं गीतों में,

वीरों की कथाएं, शौर्य की गाथाएं।

किसी समूह,

जाति, धर्म से नहीं जुड़े थे,

बेनाम थे वे सब।

बस एक नाम जानते थे

एक आस पालते थे,

आज़ादी आज़ादी और आज़ादी।

तिरंगे के मान के साथ

स्वाधीनता पाई हमने

गौरवशाली हुआ यह देश।

मुक्ति मिली हमें वर्षों की

पराधीनता से।

हम इतने अधीर थे

मानों किसी अबोध बालक के हाथ

जिन्न लग गया हो।

समझ ही नहीं पाये,

कब स्वाधीनता हमारे लिए

स्वच्छन्दता बन गई।

पहले देश टूटा था,

अब सोच बिखरने लगी।

स्वतन्त्रता, आज़ादी और

स्वाधीनता के अर्थ बदल गये।

मुक्ति और स्वायत्तता की कामना लिए

कुछ शब्दों के चक्रव्यूह में फ़ंसे हम,

नवीन अर्थ मढ़ रहे हैं।

भेड़-चाल चल रहे हैं।

आधी-अधूरी जानकारियों के साथ

रोज़ मर रहे हैं और मार रहे हैं।

-

वे, जो हर युग में आते थे

वेश और भेष बदल कर,

लगता है वे भी

हार मान बैठ हैं।

 

 

कैसे मना रहे हम अपने राष्ट्रीय दिवस

हमें स्वतन्त्र हुए

इतने

या कितने वर्ष हो गये,

इस बार हम

कौन सा

गणतन्त्र दिवस

या स्वाधीनता दिवस

मनाने जा रहे हैं,

गणना करने लगे हैं हम।

उत्सवधर्मी तो हम हैं ही।

सजने-संवरने में लगे हैं हम।

गली-गली नेता खड़े हैं,

अपने-अपने मोर्चे पर अड़े हैं,

इस बार कौन ध्वज फ़हरायेगा

चर्चा चल रही है।

स्वाधीनता सेनानियों को

आज हम इसलिए

स्मरण नहीं कर रहे

कि उन्हें नमन करें,

हम उन्हें जाति, राज्य और

धर्म पर बांध कर नाप रहे।

सड़कों पर चीखें बिखरी हैं,

सुनाई नहीं देती हमें।

सैंकड़ों जाति, धर्म वर्ग बताकर

कहते हैं

हम एक हैं, हम एक हैं।

किसको सम्मान मिला,

किसे नहीं

इस बात पर लड़-मर रहे।

मूर्तियों में

इनके बलिदानों को बांध रहे।

पर उनसे मिली

अमूल्य धरोहर को कौन सम्हाले

बस यही नहीं जान रहे।

 

बेनाम वीरों को नमन करूं

किस-किस का नाम लूं

किसी-किस को छोड़ दूं

कहां तक गिनूं,

किसे न नमन करूं

सैंकड़ों नहीं लाखों हैं वे

देश के लिए मर मिटे

इन बेनाम वीरों को

क्‍यों न नमन करूं।

कोई घर बैठे कर्म कर रहा था

तो कोई राहों में अड़ा था

किसी के हाथ में बन्‍दूक थी

तो कोई सबके आगे

प्रेरणा-स्रोत बन खड़ा था।

कोई कलम का सिपाही था

तो कोई राजनीति में पड़ा था।

कुछ को नाम मिला

और कुछ बेनाम ही

मर मिटे थे

सालों-साल कारागृह में पड़े रहे,  

लाखों-लाखों की एक भीड़ थी

एक ध्‍वज के मान में

देश की शान में

मर मिटी थी

इसी बेनाम को नमन करूं

इसी बेनाम को स्‍मरण करूं। 

 

लाल बहादुर शास्त्री की स्मृति में

राजनीति में,

अक्सर

लोग बात करते हैं,

किसी के

पदचिन्हों पर चलने की।

किसी के विचारों का

अनुसरण करने की।

किसी को

अपनी प्रेरणा बनाने की।

एक सादगी, सीधापन,

सरलता और ईमानदारी!

क्यों रास नहीं आई हमें।

क्यों पूरे वर्ष

याद नहीं आती हमें

उस व्यक्तित्व की,

नाम भूल गये,

काम भूल गये,

उनका हम बलिदान भूल गये।

क्या इतना बदल गये हम!

शायद 2 अक्तूबर को

गांधी जी की

जयन्ती न होती

तो हमें

लाल बहादुर शास्त्री

याद ही न आते।

 

भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना

सेनानियों की वीरता को हम सदा नमन करते हैं

पर अपना कर्तव्य भी वहन करें यह बात करते हैं

भ्रष्टाचार मुक्त समाज की परिकल्पना को सत्य करें

इस तरह राष्ट्र् के सम्मान की हम बात करते हैं

कोई हमें आंख दिखाये  सह नहीं सकते

त्याग, अहिंसा, शांति के नाम पर आज हम पीछे हट नहीं सकते

शक्ति-प्रदर्शन चाहिए, किसी की चेतावनियों से डर नहीं सकते

धरा से गगन तक एक आवाज़ दी है हमने, विश्व को जताते हैं

आत्मरक्षा में सजग, कोई हमें आंख दिखायेसह नहीं सकते

 

चलो आज कुछ नया-सा करें

चलो

आज कुछ नया-सा करें

न करें दुआ-सलाम

न प्रणाम

बस, वन्दे मातरम् कहें।

 

देश-भक्ति के न कोई गीत गायें

सब सत्य का मार्ग अपनाएं।

 

शहीदों की याद में

न कोई स्मारक बनाएं

बस उनसे मिली इस

अमूल्य धरोहर का मान बढ़ाएं।

 

न जाति पूछें, न धर्म बताएं

बस केवल

इंसानियत का पाठ पढ़ाएं।

 

झूठे जयकारों से कुछ नहीं होता

नारों-वादों कहावतों से कुछ नहीं होता

बदलना है अगर देश को

तो चलो यारो

आज अपने-आप को परखें

अपनी गद्दारी,

अपनी ईमानदारी को परखें

अपनी जेब टटोलें

पड़ी रेज़गारी को खोलें

और अलग करें

वे सारे सिक्के

जो खोटे हैं।

घर में कुछ दर्पण लगवा लें

प्रात: प्रतिदिन अपना चेहरा

भली-भांति परखें

फिर किसी और को दिखाने का साहस करें।

निःस्वार्थ था उनका बलिदान

 

ये वे नाम हैं

जिन्हें हम स्मरण करते हैं

बस किसी एक दिन,

उनकी वीरता, साहस,

देश भक्ति और बलिदान।

विदेशी आक्रांताओं से मुक्ति,

स्वाधीन, महान भारत का सपना

हमें देकर गये।

निःस्वार्थ था उनका बलिदान

वे केवल जानते थे

हमारा भारत महान

और हर नागरिक समान।

**          **          **          **

देशभक्ति क्या होती है

क्या होता है बलिदान,

काश! हम समझ पाते।

तो आज

न बहता सड़कों पर रक्त

न पूछते हम जाति

न करते किसी धर्म-अधर्म की बात

न पत्थर चिनते,

न दीवारें बनाते,

बस इंसानियत को जीते

और इंसानियत को समझते।

किसी ने कहा था

अच्छा हुआ

आज गांधी ज़िन्दा नहीं हैं

नहीं तो वे

सच को इस तरह सड़कों पर

मरता देख बहुत रोते।

अच्छा हुआ

इनमें से कोई आज ज़िन्दा नहीं है,

वे हमारी सोच देख

सच में ही मर जाते।

**          **          **          **

ऐसा क्या हुआ

कि हम

इन्हें अपने भीतर

ज़िन्दा नहीं रख पाये।

सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी

साईकिल, हाथी, पंखा, छाता, लिए हाथ  में खड़े  रहे

जब  से आया झाड़ूवाला सब इधर-उधर हैं दौड़ रहे

छूट न जाये,रूठ न जाये, सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी

देखेंगे गिनती के बाद कौन-कौन कहां-कहां हैं गढ़े रहे

दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है

मैं भाषण देता हूं

मैं राशन देता हूं

मैं झाड़ू देता हूं

मैं पैसे देता हूं

रोटी दी मैंने

मैंने गैस दिया

पहले कर्ज़ दिये

फिर सब माफ़ किया

टैक्स माफ़ किये मैंने

फिर टैक्स लगाये

मैंने दुनिया देखी

मैंने ढोल बजाये

नये नोट बनाये

अच्छे दिन मैं लाया

सारी दुनिया को बताया

ये बेईमानों का देश था,

चोर-उचक्कों का हर वेश था

मैंने सब बदल दिया

बेटी-बेटी करते-करते

लाखों-लाखों लुट गये

पर बेटी वहीं पड़ी है।

सूची बहुत लम्बी है

यहीं विराम लेते हैं

और अगले पड़ाव पर चलते हैं।

*-*-*-*-*-*-*-**-

चुनावों का अब बिगुल बजा

किसका-किसका ढोल बजा

किसको चुन लें, किसको छोड़ें

हर बार यही कहानी है

कभी ज़्यादा कभी कम पानी है

दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है

आंखों पर पट्टी बंधी है

बस बातें करके सो जायेंगे

और सुबह फिर वही राग गायेंगे।

मर रहा है आम आदमी : कहीं अपनों हाथों

हम एक-दूसरे को नहीं जानते

नहीं जानते

किस देश, धर्म के हैं सामने वाले

शायद हम अपनी

या उनकी

धरती को भी नहीं पहचानते।

जंगल, पहाड़, नदियां सब एक-सी,

एक देश से

दूसरे देश में आती-जाती हैं।

पंछी बिना पूछे, बिना जाने

देश-दुनिया बदल लेते हैं।

किसने हमारा क्या लूट लिया

क्या बिगाड़ दिया,

नहीं जानते हम।

जानते हैं तो बस इतना

कि कभी दो देश बसे थे

कुछ जातियां बंटी थीं

कुछ धर्म जन्मे थे

किसी को सत्ता चाहिये थी

किसी को अधिकार।

और वे सब तमाशबीन बनकर

उंचे सिंहासनों पर बैठे हैं

शायद एक साथ,

जहां उन्हें कोई छू भी नहीं सकता।

वे अपने घरों में

बारूद की खेती करते हैं

और उसकी फ़सल

हमारे हाथों में थमा देते हैं।

हमारे घर, खेत, शहर

जंगल बन रहे हैं।

जाने-अनजाने

हम भी उन्हीं फ़सलों की बुआई

अपने घर-आंगन में करने लगे हैं

अपनी मौत का सामान जमा करने लगे हैं

मर रहा है आम आदमी

कहीं अपनों से

और कहीं अपने ही हाथों

कहीं भी, किसी भी रूप में।

संधान करें अपने भीतर के शत्रुओं का

ऐसा क्यों होता है

कि जब भी कोई गम्भीर घटना

घटती है कहीं,

देश आहत होता है,

तब हमारे भीतर

देशभक्ति की लहर

हिलोरें  लेने लगती है,

याद आने लगते हैं

हमें वीर सैनिक

उनका बलिदान

देश के प्रति उनकी जीवनाहुति।

हुंकार भरने लगते हैं हम

देश के शत्रुओं के विरूद्ध,

बलिदान, आहुति, वीरता

शहीद, खून, माटी, भारत माता

जैसे शब्द हमारे भीतर खंगालने लगते हैं

पर बस कुछ ही दिन।

दूध की तरह

उबाल उठता है हमारे भीतर

फिर हम कुछ नया ढूंढने लगते हैं।

और मैं

जब भी लिखना चाहती हूं

कुछ ऐसा, 

नमन करना चाहती हूं

देश के वीरों को

बवंडर उठ खड़ा होता है

मेरे चारों ओर

आवाज़ें गूंजती हैं,

पूछती हैं मुझसे

तूने क्या किया आज तक

देश हित में ।

वे देश की सीमाओं पर

अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं

और तुम यहां मुंह ढककर सो रहे हो।

तुम संधान करो उन शत्रुओं का

जो तुम्हारे भीतर हैं।

शत्रु और भी हैं देश के

जिन्हें पाल-पोस रहे हैं हम

अपने ही भीतर।

झूठ, अन्याय के विरूद्ध

एक छोटी-सी आवाज़ उठाने से डरते हैं हम

भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी अनैतिकता

के विरूद्ध बोलने का

हमें अभ्यास नहीं।

काश ! हम अपने भीतर बसे

इन शत्रुओं का दमन कर लें

फिर कोई बाहरी शत्रु

इस देश की ओर

आंख उठाकर नहीं देख पायेगा।

देशभक्ति की बात करें

बन्दूकों के साये तले आज हम देखो गणतन्त्र मनाते

देशभक्ति की बात करें पर कर्त्तव्य-पालन से हैं घबराते

कुछ नारों, गीतों,व्याख्यानों, जय-जय-जयकारों से

देश नहीं चलता,क्यों यह बात हम समझ नहीं पाते

श्मशान में देखो

देश-प्रेम की आज क्यों बोली लगने लगी है

मौत पर देखो नोटों की गिनती होने लगी है

राजनीति के गलियारों में अजब-सी हलचल है

श्मशान में देखो वोटों की गिनती होने लगी है

अपने ही घर को लूटने से

कुछ रोशनियां अंधेरे की आहट से ग्रस्त हुआ करती हैं

जलते घरों की आग पर कभी भी रोटियां नहीं सिकती हैं

अंधेरे में हम पहचान नहीं पाते हैं अपने ही घर का द्वार

अपने ही घर को लूटने से तिज़ोरियां नहीं भरती हैं।

इसे कहते हैं एक झाड़ू

कभी थामा है झाड़ू हाथ में

कभी की है सफ़ाई अंदर-बाहर की

या बस एक फ़ोटो खिंचवाई

और चल दिये।

साफ़ सड़कों की सफ़ाई

साफ़ नालियों की धुलाई

इन झकाझक सफ़ेद कपड़ों पर

एक धब्बा न लगा।

कभी हलक में हाथ डालकर

कचरा निकालना पड़े

तो जान जाती है।

कभी दांत में अटके तिनके को

तिनके से निकालना पड़े तो

जान हलक में अटक जाती है।

हां, मुद्दे की बात करें,

कल को होगी नीलामी

इस झाड़ू की,

बिकेगा लाखों-करोड़ों में

जिसे कोई काले धन का

कचरा जमा करने वाला

सम्माननीय नागरिक

ससम्मान खरीदेगा

या किसी संग्रहालय में रखा जायेगा।

देखेगी इसे अगली पीढ़ी

टिकट देकर, देखो-देखो

इसे कहते हैं एक झाड़ू

पिछली सदी में

साफ़ सड़कों पर कचरा फैलाकर

साफ़ नालियों में साफ़ पानी बहाकर

एक स्वच्छता अभियान का

आरम्भ किया गया था।

लाखों नहीं

शायद करोड़ों-करोड़ों रूपयों का

अपव्यय किया गया था

और सफ़ाई अभियान के

वास्तविक परिचालक

पीछे कहीं असली कचरे में पड़े थे

जिन्होंने अवसर पाते ही

बड़ों-बड़ों की कर दी थी सफ़ाई

किन्तु जिन्हें अक्ल न आनी थी

न आई !!!!!