मन के इस बियाबान में

मन के बियाबान में

जब राहें बनती हैं

तब कहीं समझ पाते हैं।

मौसम बदलता है।

कभी सूखा,

तो कभी

हरीतिमा बरसती है।

जि़न्दगी बस

राहें सुझाती है।

उपवन महकता है,

पत्ती-पत्ती गुनगुन करती है।


फिर पतझड़, फिर सूखा।

 

फिर धरा के भीतर से ,

पनपती है प्यार की पौध।

उसी के इंतजार में खड़े हैं।

मन के इस बियाबान में

एकान्त मन।

 

हमारी राहें ये संवारते हैं

यह उन लोगों का

स्वच्छता अभियान है

जो नहीं जानते

कि राजनीति क्या है

क्या है नारे

कहां हैं पोस्टर

जहां उनकी तस्वीर नहीं छपती

छपती है उन लोगों की छवि

जिनकी

छवि ही नहीं होती

कुछ सफ़ेदपोश

साफ़ सड़कों पर

साफ़ झाड़ू लगाते देखे जाते रहे

और ये लोग उनका मैला ढोते रहे।

प्रकृति भी इनकी परीक्षा लेती है,

तरू अरू पल्लव झरते हैं

एक नये की आस में

हम आगे बढ़ते हैं

हमारी राहें ये

संवारते हैं

और हम इन्हीं को नकारते हैं।

इसे राजनीति कहते हैं

आजकल हम

एक अंगुली से

एक मशीन पर

टीका करते हैं,

किसी की

कुर्सी खिसक जाती है,

किसी की टिक जाती है।

कभी सरकारें गिर जाती हैं,

कभी खड़ी हो जाती हैं।

हम हतप्रभ से

देखते रह जाते हैं,

हमने तो किसी और को

टीका किया था,

अभिषेक

किसी और का चल रहा है।

 

अभिलाषाओं के कसीदे

आकाश पर अभिलाषाओं के कसीदे कढ़े थे
भावनाओं के ज्वार से माणिक-मोती जड़े थे
न जाने कब एक धागा छूटा हाथ से मेरे
समय से पहले ही सारे ख्वाब ज़मीन पर पड़े थे

प्रेम की एक नवीन धारा

हां, प्रेम सच्चा रहे,

 

हां , प्रेम सच्चा रहे,

हर मुस्कुराहट में

हर आहट में

रूदन में या स्मित में

प्रेम की धारा बही

मन की शुष्क भूमि पर

प्रेम-रस की

एक नवीन छाया पड़ी।

पल-पल मानांे बोलता है

हर पल नवरस घोलता है

एक संगीत गूंजता है

हास की वाणी बोलता है

दूरियां सिमटने लगीं

आहटें मिटने लगीं

सबका मन

प्रेम की बोली बोलता है

दिन-रात का भान न रहा

दिन में भी

चंदा चांदनी बिखेरने लगा

टिमटिमाने लगे तारे

रवि रात में भी घाम देने लगा

इन पलों का एहसास

शब्दातीत होने लगा

बस इतना ही

हां, प्रेम सच्चा रहे

हां, प्रेम सच्चा लगे

 

कुछ पल बस अपने लिये

उदित होते सूर्य की रश्मियां

मन को आह्लादित करती हैं।

विविध रंग

मन को आह्लादमयी सांत्वना

प्रदान करते हैं।

शांत चित्त, एकान्त चिन्तन

सांसारिक विषमताओं से

मुक्त करता है।

सांसारिकता से जूझते-जूझते

जब मन उचाट होता है,

तब पल भर का ध्यान

मन-मस्तिष्क को

संतुलित करता है।

आधुनिकता की तीव्र गति

प्राय: निढाल कर जाती है।

किन्तु एक दीर्घ उच्छवास

सारी थकान लूट ले जाता है।

जब मन एकाग्र होता है

तब अधिकांश चिन्ताएं

कहीं गह्वर में चली जाती हैं

और स्वस्थ मन-मस्तिष्क

सारे हल ढूंढ लाता है।

 

इन व्यस्तताओं में

कुछ पल तो निकाल

बस अपने लिये।

 

 

 

बेकरार दिल
दिल हो रहा बड़ा बेकरार

बारिश हो रही मूसलाधार

भीग लें जी भरकर आज

न रोक पाये हमें तेज़ बौछार

सागर का मन

पूर्णिमा के चांद को देख

चंचल हो उठता है

सागर का मन,

उत्ताल तरंगें

उमड़ती हैं

उसके मन में,

वैसे ही सीमा-विहीन है

सागर का मन।

ऐसे में

और  बिखर-बिखर जाता है,

कौन समझा है यहां।

 

 

आदान-प्रदान का युग है

जरूरी नहीं कि शिखर पर बैठा हर इंसान उत्थान का प्रतीक को

जाने कौन-सी सीढ़ियां चढ़ा, कहां पग धरा, अनुगमन की लीक हो

पद, पदक, सम्मान, उपाधियाँ सदा उपलब्धियों की प्रतीक नहीं होते

आदान-प्रदान का युग है, ले-देकर काम चल रहा, यही सीख हो

चिड़िया से पूछा मैंने

चिड़िया रानी क्या-क्या खाती

राशन-पानी कहाँ से लाती

मुझको तो कुछ न बतलाती

थाली-कटोरी कहाँ से पाती

चोंच में तिनका लेकर घूमे

कहाँ बनाया इसने घर

इसके घर में कितने मैंम्बर

इधर-उधर फुदकती रहती

डाली-डाली घूम रही

फूल-फूल को छू रही

मैं इसके पीछे भागूं

कभी नीचे आती

कभी ऊपर जाती

मेरे हाथ कभी न आती।

अहं सर्वत्र रचयिते : एक व्यंग्य

हम कविता लिखते हैं।

कविता को गज़ल, गज़ल को गीत, गीत को नवगीत, नवगीत को मुक्त छन्द, मुक्त छन्द को मुक्तक और चतुष्पदी बनाना जानते हैं। और इन सबको गद्य की विविध विधाओं में परिवर्तित करना भी जानते हैं।

अर्थात् , मैं ही लेखक हूँ, मैं ही कवि, गीतकार, गज़लकार, साहित्यकार, गद्य-पद्य की रचयिता, , प्रकाशक, मुद्रक, विक्रेता, क्रेता, आलोचक, समीक्षक भी मैं ही हूँ।

मैं ही संचालक हूँ, मैं ही प्रशासक हूँ।

सब मंचों पर मैं ही हूँ।

इस हेतु समय-समय पर हम कार्यशालाएँ भी आयोजित करते हैं।

अहं सर्वत्र रचयिते।

 

  

सपने अपने - अपने सपने

रेत के घर बनाने की एक कोशिश तो ज़रूर करना।

आकाश पर कसीदे काढ़ने की एक कोशिश तो ज़रूर करना।

जितनी चादर हो उतने पैर फैलाकर तो सभी सो लेते हैं,

आकाश पैरों पर थाम एक बार सोने की कोशिश ज़रूर करना।

 

सत्य के भी पांव नहीं होते

कहते हैं

झूठ के पांव नहीं होते

किन्तु मैंने तो

कभी सत्य के पांव

भी नहीं देखे।

झूठ अक्सर सबका

एक-सा होता है

पर ऐसा क्यों होता है

कि सत्य

सबका अपना-अपना होता है।

किसी के लिए

रात के अंधेरे ही सत्य हैं

और कोई

चांद की चांदनी को ही

सत्य मानता है।

किसी का सच सावन की घटाएं हैं

तो किसी का सच

सावन का तूफ़ान

जो सब उजाड़ देता है।

किसी के जीवन का सत्य

खिलते पुष्प हैं

तो किसी के जीवन का सत्य

खिलकर मुर्झाते पुष्प ।

किन्तु झूठ

सबका एक-सा होता है,

इसलिए

आज झूठ ही वास्तविक सत्य है

और यही सत्य है।

जैसे ऐसे और कैसे रिश्ते

हमारे पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों में एक शब्द बहुत महत्व रखता है –“जैसा”,जैसे”,“समान” क्या आपका किन्हीं सम्बन्धों के बीच इन शब्दों का सामना हुआ है।

सीधे-सीधे अपने मन की बात कहती हूं।

किसी ने मुझसे पूछा “क्या यह आपकी बेटी है?”

मैंने कहा “जी नहीं, मेरी बहू है।“

उन्होंने मुझे कुछ तिरस्कार, कुछ उपेक्षा भरी दृष्टि से देखा और बोले, बहू भी तो बेटी-समान ही होती है। क्या आप अपनी बहू को “बेटी-जैसी” नहीं मानते

मैंने कहा ,नहीं, मैं अपनी बहू को, बेटी “जैसी” नहीं मानती। बहू ही मानती हूं

उनके लिए एवं समाज के लिए मेरा यह उत्तर पर्याप्त नकारात्मक है।

मेरे इस कथन पर मुझे बहुत उपदेश मिले, तिरस्कार-पूर्ण भाव मिले, और मुझे समझाया गया कि सास-बहू में आज इसीलिए इतनी खटपट होती है क्योंकि सासें बहुंओं को अपनाती ही नहीं।

मैंने अपना स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया कि मैंने अपनाया है अपनी बहू को बहू के रूप में, बहू के अधिकार के रूप में , उसकी जो ‘‘पोस्ट’’ है उसी पर। इसी सम्बन्ध को बनाये रखने में हमारी गरिमा है, किन्तु प्रायः मेरा उत्तर किसी की समझ में नहीं आता। घर में कहते हैं तू क्यों सबसे पंगा लेती है, कहने दे जो कोई कहता है। मेरा प्रश्न है कि हर क्षेत्र के सम्बन्धों की अपनी गरिमा, रूप होता है, उस पर अन्य सम्बन्ध क्यों थोपे जाते हैं ? हम पारिवारिक–सामाजिक सम्बन्धों में यह “जैसा”, “समान” जैसे शब्दों का प्रयोग क्यों करने लगे हैं। जो सम्बन्ध हैं, उनको उसी रूप में सम्मान क्यों नहीं दे पाते।

मैं कार्यरत हूं। अनेक बार कोई सहकर्मी कह देता है “आप तो मेरी मां जैसी हैं।“ कोई कहता है आप तो हमारी बड़ी बहन जैसी हैं, किसी का वाक्य होता है : “मैं तो आपके बेटे जैसा हूं।“

मैं कहती हूं “नहीं, आप केवल मेरे सहकर्मी हैं।“

मेरा यह उत्तर नकारात्मक ही नहीं हास्यास्पद भी होता है।

हम अपने बच्चों को कहते हैं: भाभी को मां समान समझना, देवर को बेटे समान मानना। सास-ससुर की माता-पिता समान सेवा करना। एक महिला अपने ढाई वर्ष के बेटे को पड़ोस की दो वर्ष की बच्ची के लिए कह रही है, बेटा यह तेरी दीदी है। लेकिन साली को बहन समान समझना यह मैंने कभी नहीं सुना।

और सबसे बड़ी बात: बेटी को बेटा जैसा मानें। जहां तक मेरी समझ कहती है इसका अभिप्राय यह कि बेटे और बेटी के अधिकार समान रहें। तो मैंने कभी किसी को यह कहते नहीं सुना कि बेटे को बेटी जैसा मानें, जब समानता की बात करनी है तो दोनों ओर से की जा सकती है, अर्थात हम कहीं तो भेद-भाव लेकर चल ही रहे हैं।

हम वे ही रिश्ते क्यों न मानें, जो वास्तव में हैं, उन्हीं सम्बन्धों में पूर्ण सम्मान दें, अधिकार एवं अपनत्व दें, तो क्या सम्बन्धों में ज़्यादा गहराई, ज़्यादा अपनत्व, ज़्यादा विश्वास का भाव नहीं उपजेगा।

क्या सामाजिक –पारिवारिक सम्बन्धों को लेकर हमारे मन में कोई डर, कोई खौफ़ है जो हम हर सम्बन्ध पर एक लबादा ओढ़ाने में लगे हैं, अथवा परत-दर-परत चढ़ाने में लगे हैं।

लोग कहते हैं कि हम सम्बन्धों का नाम देकर सम्मान-भाव प्रदर्शित करते हैं। मेरा प्रश्र होता है कि जो सम्बन्ध वास्तव में है, उस पर कोई और सम्बन्ध लादकर क्या हम वास्तविक सम्बन्धों का अपमान नहीं कर रहे।

 

चल आज लड़की-लड़की खेलें

चल आज लड़की-लड़की खेलें।

-

साल में

तीन सौ पैंसठ दिन।

कुछ तुम्हारे नाम

कुछ हमारे नाम

कुछ इसके नाम

कुछ उसके नाम।

रोज़ सोचना पड़ता है

आज का दिन

किसके नाम?

कुछ झुनझुने लेकर

घूमते हैं हम।

आम से खास बनाने की

चाह लिए

जूझते हैं हम।

समस्याओं से भागते

कुछ नारे

गूंथते हैं हम।

कभी सरकार को कोसते

कभी हालात पर बोलते

नित नये नारे

जोड़ते हैं हम।

हालात को समझते नहीं

खोखले नारों से हटते नहीं

वास्तविकता के धरातल पर

चलते नहीं

सच्चाई को परखते नहीं

ज़िन्दगी को समझते नहीं

उधेड़-बुन में लगे हैं

मन से जुड़ते नहीं

जो करना चाहिए

वह करते नहीं

बस बेचारगी का मज़ा लेते हैं

फिर आनन्द से

अगले दिन पर लिखने के लिए

मचलते हैं।

 

शिकायतों का  पुलिंदा

शिकायतों का

पुलिंदा है मेरे पास।

है तो सबके पास

बस सच बोलने का

मेरा ही ठेका है।

काश!

कि शिकायतें

आपसे होतीं

किसी और से होतीं,

इससे-उससे होतीं,

तब मैं कितनी प्रसन्न होती,

बिखेर देती

सारे जहाँ में।

इसकी, उसकी

बुराईयाँ कर-कर मन भरती।

किन्तु

क्या करुँ

सारी शिकायतें

अपने-आपसे ही हैं।

जहाँ बोलना चाहिए

वहाँ चुप्पी साध लेती हूँ

जहाँ मौन रहना चाहिए

वहाँ बक-झक कर जाती हूँ।

हँसते-हँसते

रोने लग जाती हूँ,

रोते-रोते हँस लेती हूँ।

न खड़े होने का सलीका

न बैठने का

न बात करने का,

बहक-बहक जाती हूँँ

मन कहीं टिकता नहीं

बस

उलझी-उलझी रह जाती हूँ।

 

युगे-युगे

मां ने कहा मीठे वचन बोलाकर

अमृत होता है इनमें

सुनने वाले को जीवन देते हैं ।

-

पिता ने कहा

चुप रहा कर

ज़माने की धार-से बोलने लगी है  अभी से।

वैसे भी

लड़कियों का कम बोलना ही

अच्छा होता है।

-

यह सब लिखते हुए

मैं बताना तो नहीं चाहती थी

अपनी लड़की होने की बात।

क्योंकि यह पता लगते ही

कि बात कहने वाली लड़की है,

सुनने वाले की भंगिमा

बदल जाती है।

-

पर अब जब बात निकल ही गई,

तो बता दूं

लड़की नहीं, शादीशुदा ओैरत हूं मैं।

-

पति ने कहा,

कुछ पढ़ा-लिखाकर,

ज़माने से जुड़।

अखबार,

बस रसोई में बिछाने

और रोटी बांधने के लिए ही नहीं होता,

ज़माने भर की जानकारियां होती हैं इसमें,

कुछ अपना दायरा बढ़ा।

-

मां की गोद में थी

तब मां की सुनती थी।

पिता का शासनकाल था

तब उनका कहना माना।

और अब, जब

पति-परमेश्वर कह रहे हैं

तब उनका कहना सिर-माथे।

मां के दिये, सभी धर्म-ग्रंथ

उठाकर रख दिये मैंने ताक पर,

जिन्हें, मेरे समाज की हर औरत

पढ़ती चली आई है

पतिव्रता,

सती-सीता-सावित्री बनने के लिए।

और सुबह की चाय के साथ

समाचार बीनने लगी।

-  

माईक्रोवेव के युग में

मेरी रसोई

मिट्टी के तेल के पीपों से भर गई।

मेरा सारा घर

आग की लपटों से घिर गया।

आदिम युग में

किस तरह भूना जाता होगा

मादा ज़िंदा मांस,

मेरी जानकारी बढ़ी।

 

औरत होने के नाते

मेरी भी हिस्सेदारी थी इस आग में।

किन्तु, कहीं कुछ गलत हो गया।

आग, मेरे भीतर प्रवेश कर गई।

भागने लगी मैं पानी की तलाश में।

एक फावड़ा ओैर एक खाली घड़ा

रख दिया गया मेरे सामने

जा, हिम्मत है तो कुंआं खोद

ओैर पानी ला।

भरे कुंएं तो कूदकर जान देने के लिए होते हैं।

-

अविवाहित युवतियां

लड़के मांगती हैं मुझसे।

पैदाकर ऐसे लड़के

जो बिना दहेज के शादी कर लें।

या फिर रोज़-रोज़ की नौटंकी से तंग आकर

आत्महत्या के बारे में

विमर्श करती हैं मेरे घर के पंखों से।

मैं पंखे हटा भी दूं,

तो और भी कई रास्ते हैं विमर्श के।

-

मेरे द्वार पर हर समय

खट्-खट् होने लगी है।

घर से निकाल दी गई औरतें

रोती हैं मेरे द्वार पर,

शरण मांगती हैं रात-आधी रात।

टी वी, फ्रिज, स्कूटर,

पैसा मांगती हैं मुझसे।

आदमी की भूख से कैसे निपटें

राह पूछती हैं मुझसे।

-

मेरे घर में

औरतें ही औरतें हो गईं हैं।

-

बीसियों बलात्कारी औरतों के चेहरे

मेरे घर की दीवारों पर

चिपक गये हैं तहकीकात के लिए।

पुलिसवाले,

कोंच-कोंचकर पूछ रहे हैं

उनसे उनकी कहानी।

फिर करके पूछते हैं,

ऐसे ही हुआ था न।

-

निरीह बच्चियां

बार-बार रास्ता भूल जाती हैं

स्कूल का।

ओढ़ने लगती हैं चूनरी।

मां-बाप इत्मीनान की सांस लेते हैं।

-

अस्पतालों में छांटें जाते हैं

लड़के ओैर लड़कियां।

लड़के घर भेज दिये जाते हैं

और लड़कियां

पुनर्जन्म के लिए।

-

अपने ही चाचा-ताउ से

चचेरों-ममेरों से, ससुर-जेठ

यानी जो भी नाते हैं नर से

बचकर रहना चाहिए

कब उसे किससे ‘काम’ पड़े

कौन जाने

फिर पांच वर्ष की बच्ची हो

अथवा अस्सी वर्ष की बुढ़िया

सब काम आ जाती है।

 

यह मैं क्या कर बैठी !

यूंही सबकी मान बैठती हूं।

कुछ अपने मन का करती।

कुछ गुनती, कुछ बुनती, कुछ गाती।

कुछ सोती, कुछ खाती।

मुझे क्या !

कोई मरे या जिये,

मस्तराम घोल पताशा पीये।

यही सोच मैंने छोड़ दी अखबार,

और इस बार, अपने मन से

उतार लिए,

ताक पर से मां के दिये सभी धर्मग्रंथ।

पर यह कैसे हो गया?

इस बीच,

अखबार की हर खबर

यहां भी छप चुकी थी।

यहां भी तिरस्कृत,

घर से निकाली जा रहीं थीं औरतेंै

अपहरण, चीरहरण की शिकार,

निर्वासित हो रही थीं औरतें।

शिला और देवी बन रहीं थीं औरतें।

अंधी, गूंगी, बहरीं,

यहां भी मर रहीं थीं औरतें।

-

इस बीच

पूछ बैठी मुझसे

मेरी युवा होती बेटी

मां क्या पढूं मैं।

मैं खबरों से बाहर लिकली,

बोली,

किसी का बताया

कुछ मत पढ़ना, कुछ मत करना।

जिन्दगी आप पढ़ायेगी तुझे पाठ।

बनी-बनाई राहों पर मत चलना।

किसी के कदमों का अनुगमन मत करना।

जिन्दगी का पाठ आप तैयार करना।

छोड़कर जाना अपने कदमों के निशान

कि सारा इतिहास, पुराण

और धर्म मिट जाये।

मिट जाये वर्तमान।

और मिट जाये

भविप्य के लिए तैयार की जा रही आचार-संहिता,

जिसमें सती, श्रापित, अपमानित

होती हैं औरतें।

शिला मत बनना।

बनाकर जाना शिलाएं ,

कि युग बदल जाये।

 

 

तुम तो चांद से ही जलने लगीं

तुम्हें चांद क्या कह दिया मैंने, तुम तो चांद से ही जलने लगीं

सीढ़ियां तानकर गगन से चांद को उतारने की बात करने लगीं

अरे, चांद का तो हर रात आवागमन रहता है टिकता नहीं कभी

हमारे जीवन में बस पूर्णिमा है,इस बात को क्यों न समझने लगीं

अन्तर्मन की आवाजें

 

अन्तर्मन की आवाजें अब कानों तक पहुंचती नहीं

सन्नाटे को चीरकर आती आवाजें अन्तर्मन को भेदती नहीं

यूं तो पत्ता भी खड़के, तो हम तलवार उठा लिया करते हैं

पर बडे़-बडे़ झंझावातों में उजडे़ चमन की बातें झकझोरती नहीं

सिंदूरी शाम

अक्सर मुझे लगता है

दिन भर

आकाश में घूमता-घूमता

सूरज भी

थक जाता है

और संध्या होते ही

बेरंग-सा होने लगता है

हमारी ही तरह।

ठिठके-से कदम

धीमी चाल

अपने गंतव्य की ओर बढ़ता।

जैसे हम

थके-से

द्वार खटखटाते हैं

और परिवार को देखकर

हमारे क्लांत चेहरे पर

मुस्कान छा जाती है

दिनभर की थकान

उड़नछू हो जाती है

कुछ वैसे ही सूरज

जब बढ़ता है

अस्ताचल की ओर

गगन

चाँद-तारों संग

बिखेरने लगता है

इतने रंग

कि सांझ सराबोर हो जाती है

रंगों से।

और

बेरंग-सा सूरज

अनायास झूम उठता है

उस सिंदूरी शाम में

जाते-जाते हमें भी रंगीनियों से

भर जाता है।

 

हमारी अपनी आवाज़ें  गायब हो गई हैं

आवाज़ें निरन्तर गूंजती हैं

मेरे आस-पास।

कभी धीमी, कभी तेज़।

कुछ सुनाई देती हैं

कुछ नहीं।

हमारे कान फ़टते हैं

दुनिया भर की

आवाज़ें सुनते-सुनते।

इस शोर में

इतना खो गये हैं हम

कि अपनी ही आवाज़ से

कतराने में लगे हैं

अपनी ही आवाज़ को

भुलाने में लगे हैं।

हमारे भीतर का सच

झूठ बनने लगा है

दूर से आती आवाज़ों से

मन भरमाने में लगे हैं।

छोटी-छोटी आवाज़ों से

मिलने वाला आनन्द

कहीं खो गया है

हम बस यूं ही

चिल्लाने में लगे हैं।

गुमराह करती

आवाजों के पीछे

हम भागने में लगे हैं।

ऊँची आवाज़ें

हमारी नियामक हो गई हैं

हमारी अपनी आवाज़ें

कहीं गायब हो गई हैं।

  

कहां समझ पाता है कोई

न आकाश की समझ

न धरा की,

अक्सर नहीं दिखाई देता

किनारा कोई।

हर साल,बार-बार,

जिन्दगी  यूं भी तिरती है,

कहां समझ पाता है कोई।

सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,

देखते हैं, पानी पर रेंगती

हमारी इस दुनिया को,

कहां मिल पाता है किनारा कोई।

सुना है,

आकाश से निहारते हैं हमें,

अट्टालिकाओं से जांचते हैं

इस जल- प्रलय को।

जब पानी उतर जाता है

तब बताता है कोई।

विमानों में उड़ते

देख लेते हैं गहराई तक

कितने डूबे, कितने तिर रहे,

फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं

नहीं मरेगा

भूखा या डूबकर कोई।

पानी में रहकर

तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,

कब तक

हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।

अब न दिखाना किसी घर का सपना,

न फेंकना आकाश से

रोटियों के टुकड़े,

जी रहे हैं, अपने हाल में

आप ही जी लेंगे हम

न दिखाना अब

दया हम पर आप में से कोई।

दोराहों- चौराहों  को सुलझाने बैठी हूं

छोटे-छोटे कदमों से

जब चलना शुरू किया,

राहें उन्मुक्त हुईं।

ज़िन्दगी कभी ठहरी-सी

कभी भागती महसूस हुई।

अनगिन सपने थे,

कुछ अपने थे,

कुछ बस सपने थे।

हर सपना सच्चा लगता था।

हर सपना अच्छा लगता था।

मन की भटकन थी

राहों में अटकन थी।

हर दोराहे पर, हर चौराहे पर,

घूम-घूमकर जाते।

लौट-लौटकर आते।

जीवन में कहीं खो जाते।

समझ में ही थी तकरार

दुविधा रही अपार।

सब पाने की चाहत थी,

पर भटके कदमों की आहट थी।

क्या पाया, क्या खोया,

कभी कुछ समझ न आया।

अब भी दोराहों- चौराहों  को

सुलझाने बैठी हूं,

न जाने क्यों ,

अब तक इस में उलझी बैठी हूं।