पुष्प निःस्वार्थ भाव से

पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते।

पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते।

चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हरपल,

हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते।

 

लीक पीटना छोड़ दें

 

युग बदलते हैं भाव कहां बदलते हैं

राम-रावण तो हर युग में पनपते हैं

कथाओं को घोट-घोट कर पी रहे हम]

लीक पीटना छोड़ दें तब जीवन संवरते हैं

निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

कुछ शहरों की हैं दूरियां, कुछ काम-काज की दूरियां

मेल-मिलाप कैसे बने, निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

परिवार निरन्तर छिटक रहे, दूर-पार सब जा रहे,

तकनीक आज मिटा रही हम सबके बीच की दूरियां

 

बचाकर रखी है भीतर तरलता

कितना भी काट लो, कुछ है, जो जड़ें  जमाये रखता है

न भीतर से टूटने देता है, मन में इक आस बनाये रखता है

बचाकर रखी है भीतर तरलता, नयी पौध तो पनपेगी ही,

धरा से जुड़े हैं तो कदम संभलेंगे, यह विश्वास जगाये रखता है

 

जलने-बुझने के बीच

न इस तरह जलाओ कि सिलसिला बन जाये।

न इस तरह बुझाओ कि राख ही नज़र जाये।

जलने-बुझने के बीच बहुत कुछ घट जाता है,

न इस तरह तम हटाओ कि आंख ही धुंधला जाये।

 

हे घन ! कब बरसोगे

अब तो चले आओ प्रियतम कब से आस लगाये बैठे हैं

चांद-तारे-सूरज सब चुभते हैं, आंख टिकाये बैठे हैं

इस विचलित मन को कब राहत दोगे बतला दो,

हे घन ! कब बरसोगे, गर्मी से आहत हुए बैठे हैं

 

ज़िन्दगी कोई गणित नहीं

ज़िन्दगी

जब कभी कोई

प्रश्नचिन्ह लगाती है,

उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।

यह बात

हम समझ ही नहीं पाते।

किसी न किसी गणित में उलझे

अपने-आपको महारथी समझते हैं।

 

हम क्यों आलोचक बनते जायें

खबरों की हम खबर बनाएं,

उलट-पलटकर बात सुझाएं,

काम किसी का, बात किसी की,

हम यूं ही आलोचक बनते जाएं।

एकान्त के स्वर

मन के भाव रेखाओं में ढलते हैं।

कलश को नेह-नीर से भरते हैं।

रंगों में जीवन की गति रहती है,

एकान्त के स्वर गीत मधुर रचते हैं।

कलश तेरी माया अद्भुत है

 

कलश तेरी माया अद्भुत है, अद्भुत है तेरी कहानी।

माटी से निर्मित, हमें बताता जीवन की पूरी कहानी।

जल भरकर प्यास बुझाता, पूजा-विधि तेरे बिना अधूरी,

पर, अंतकाल में कलश फूटता, बस यही मेरी कहानी।

आई दुल्हन

 

पायल पहले रूनझुन करती आई दुल्हन।

कंगन बजते, हार खनकते, आई दुल्हन।

श्रृंगार किये, सबके मन में रस बरसाती]

घर में खुशियों के रंग बिखेरे आई दुल्हन।

किसान क्यों है परेशान

कहते हैं मिट्टी से सोना उगाता है किसान।

पर उसकी मेहनत की कौन करता पहचान।

कैसे कोई समझे उसकी मांगों की सच्चाई,

खुले आकाश तले बैठा आज क्यों परेशान।

मदमाता शरमाता अम्बर

रंगों की पोटली लेकर देखो आया मदमाता अम्बर

भोर के साथ रंगों की पोटली बिखरी, शरमाता अम्बर

रवि को देख श्वेताभा के अवगुंठन में छिपता, भागता

सांझ ढले चांद-तारों संग अठखेलियां कर भरमाता अम्बर

 

दर्दे दिल के निशान

 

काश! मेरा मन रेत का कोई बसेरा होता।

सागर तट पर बिखरे कणों का घनेरा होता।

दर्दे दिल के निशान मिटा देतीं लहरें, हवाएं,

सागर तल से उगता हर नया सवेरा होता।

भावनाएं पत्थर हो गईं

सड़कों पर आदमी भूख से मरता रहा।

मंदिरों में स्वर्ण, रजत, हीरा चढ़ता रहा।

भावनाएं पत्थर हो गईं, कौन समझा यहां

बेबस इंसान भगवान की मूतियां गढ़ता रहा।

मन हर्षित होता है

दूब पर चमकती ओस की बूंदें, मन हर्षित कर जाती हैं।

सिर झुकाई घास, देखो सदा पैरों तले रौंद दी जाती है।

कहते हैं डूबते को तृण का सहारा ही बहुत होता है,

पूजा-अर्चना में दूर्वा से ही आचमन विधि की जाती है।

 

व्यवसाय बनी है शिक्षा

शिक्षक का नअब मान रहा।

छात्र का न अब प्रतिदान रहा।

व्यवसाय बनी है शिक्षा अब,

व्यापार बना, यह काम रहा

समानता का भाव

बस एक इंसानियत का भाव जगाना होगा।

समानता का भाव सबके मन में लाना होगा।

मानवता को बांटकर देश प्रगति नहीं करते,

हर तरह का भेद-भाव अब मिटाना होगा।

कभी हमारी रचना पर आया कीजिए

समीक्षा कीजिए, जांच कीजिए, पड़ताल कीजिए।

इसी बहाने कभी-कभार रचना पर आया कीजिए।

बहुत आशाएं तो हम करते नहीं समीक्षकों से,

बहुत खूब, बहुत सुन्दर ही लिख जाया कीजिए।

समय समय की बात

वस्त्र सुन्दर, मूल्यवान, यूं अलमारी में चन्द पड़े हैं,

क्या पहने, अब बात नहीं होती घर में बन्द खड़े हैं,

तह लगाते, तह पलटते, देखें कहीं दीमक न खाए

स्वर्णाभूषण यूं लगते मानों देखो सारे जंग गड़े हैं।

बाधाएं राहों से कैसे हटतीं

 

विनम्रता से सदा दुनिया नहीं चलती

समझौतों से सदा बात यहां नहीं बनती

हम रोते हैं, जग हंसता है ताने कसता है,

आंख दिखा, तभी राहों से बाधाएं हैं हटतीं।

चिड़िया फूल रंग और मन

 

चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक

राग बजे मधुर-मधुर, मन गया बहक-बहक

सरगम की तान छिड़ी, साज़ बजे, राग बने

सतरंगी आभा छाई , ताल बजे ठुमुक-ठुमुक

प्रकृति का मन न समझें हम

कभी ऋतुएं मनोहारी लगती थीं, अब डरता है मन।

ग्रीष्म ऋतु में सूखे ताल-तलैया, जलते हैं कानन।

बदरा घिरते, बरसेगा रिमझिम, धरा की प्यास बुझेगी,

पर अब तो हर बार, विभीषिका लेकर आता है सावन

प्रभास है जीवन

हास है, परिहास है, विश्वास है जीवन

हर दिन एक नया प्रयास है जीवन

सूरज भी चंदा के पीछे छिप जाता है,

आप मुस्कुरा दें तो तो प्रभास है जीवन

सावन की बातें मनभावन की बातें

वो सावन की बातें, वो मनभावन की बातें, छूट गईं।

वो सावन की यादें, वो प्रेम-प्यार की बातें, भूल गईं।

मन डरता है, बरसेगा या होगा महाप्रलय कौन जाने,

वो रिमझिम की यादें, वो मिलने की बातें, छूट गईं ।

समझिए समय की दरकार

 

हाथ मिलाना मना है, समझाया था, कीजिए नमस्कार।

चेहरों के भाव परखिए, आंखों के भाव समझिए सरकार।

कौन जाने किसके हाथों में कांटें छुपे हैं, कहां चुभेंगें,

मन को परखना सीखिए, यही है समय की दरकार।

विश्वगुरू बनने की बात करें

 

विश्वगुरू बनने की बात करें, विज्ञान की प्राचीन कथाएं पढ़े हम शान से।

सवा सौ करोड़ में सवा लाख सम्हलते नहीं, रहें न जाने किस मान में।

अपने ही नागरिक प्रवासी कहलाते, विश्व-पर्यटन का कीर्तिमान बना

अब लोकल-वोकल की बात करें, यही कथाएं चल रहीं हिन्दुस्तान में।

जग में न मिला अपनापन

 

सुख के दिन बीते, दुख के बीहड़ में नहीं दिखता अपनापन

अपने सब दूर हुए, दृग तरसें, ढूंढे जग में न मिला अपनापन

द्वार बन्द मिले, पहचान खो गई, दूर तलक न मिला कोई,

सत्य को जानिए, आप ही बनिए हर हाल में अपना संकटमोचन

 

अभिनन्दन करते मातृभूमि का

 

वन्दन करते, अभिनन्दन करते मातृभूमि का जिस पर हमने जन्म लिया

लोकतन्त्र देता अधिकार असीमित, क्या कर्त्तव्यों की ओर कभी ध्यान दिया

देशभक्ति के नारों से, कुछ गीतों, कुछ व्याखानों से, जय-जय-जयकारों से ,

पूछती हूं स्वयं से, इससे हटकर देशहित में और कौन-कौन-सा कर्म किया

इंसानों से काम करेंगें

 

इंसानों में रहते हैं तो इंसानों से काम करेंगें

आग जलाई तुमने हम सेंककर शीत हरेंगे

बाहर झड़ी लगी है, यहीं बितायेंगे दिन-रात

यहीं बैठकर रोटी-पानी खाकर पेट भरेंगे।