बताते हैं क्या कीजिए

सुना है ज्ञान, ध्यान, स्नान एक अनुष्ठान है, नियम, काल, भाव से कीजिए

तुलसी-नीम डालिए, स्वच्छ जल लीजिए, मंत्र पढ़िए, राम-राम कीजिए।।

शून्य तापमान, शीतकाल, शीतल जल, काम इतना कीजिए बस चुपचाप

चेहरे को चमकाईए, क्रीम लगाईए, और हे राम ! हे राम ! कीजिए ।।

प्रश्न सुलझा नहीं पाती मैं

वैसे तो

आप सबको

बहुत बार बता चुकी हूँ

कि समझ ज़रा छोटी है मेरी।

आज फिर एक

नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ

मेरे सामने।

पता नहीं क्यों

बहुत छोटे-छोटे प्रश्न

सुलझा नहीं पाती मैं

इसलिए

बड़े प्रश्नों से तो

उलझती ही नहीं मैं।

जब हम छोटे थे

तब बस इतना जानते थे

कि हम बच्चे हैं

लड़का-लड़की

बेटा-बेटी तो समझ ही नहीं थी

न हमें

न हमारे परिवार वालों को।

न कोई डर था न चिन्ता।

पूजा-वूजा के नाम पर

ज़रूर लड़कियों की

छंटाई हुआ करती थी

किन्तु और किसी मुद्दे पर

कभी कोई बात

होती हो

तो मुझे याद नहीं।

 

अब आधुनिक हो गये हैं हम

ठूँस-ठूँसकर भरा जाता है

सोच में

लड़का-लड़की एक समान।

बेटा-बेटी एक समान।

किसी को पता हो तो

बताये मुझे

अलग कब हुए थे ये।

 

उदित होते सूर्य से पूछा मैंने

उदित होते सूर्य से पूछा मैंने, जब अस्त होना है तो ही आया क्यों
लौटते चांद-तारों की ओर देख, सूरज मन ही मन मुस्काया क्यों
कभी बादल बरसे, इन्द्रधनुष निखरा, रंगीनियां बिखरीं, मन बहका
परिवर्तन ही जीवन है, यह जानकर भी तुम्हारा मन भरमाया क्यों

बादल राग सुनाने के लिए

बादल राग सुनाने के लिए

योजनाओं का

अम्बार लिए बैठे हैं हम।

पानी पर

तकरार किये बैठै हैं हम।

गर्मियों में

पानी के

ताल लिए बैठे हैं हम।

वातानुकूलित भवनों में

पानी की

बौछार लिए बैठे हैं हम।

सूखी धरती के

चिन्तन के लिए

उधार लिए बैठे हैं हम।

कभी पांच सौ

कभी दो हज़ार

तो कभी

छः हज़ारी के नाम पर

मत-गणना किये बैठे हैं हम।

हर रोज़

नये आंकड़े

जारी करने के लिए

मीडिया को साधे बैठे हैं हम।

और कुछ न हो सके

तो तानसेन को

बादल राग सुनाने के लिए

पुकारने बैठे हैं हम।

जीवन अंधेरे और रोशनियों के बीच

अंधेरे को चीरती

ये झिलमिलाती रोशनियां,

अनायास,

उड़ती हैं

आकाश की ओर।

एक चमक और आकर्षण के साथ,

कुछ नये ध्वन्यात्मक स्वर बिखेरतीं,

फिर लौट आती हैं धरा पर,

धीरे-धीरे सिमटती हैं,

एक चमक के साथ,

कभी-कभी

धमाकेदार आवाज़ के साथ,

फिर अंधेरे में घिर जाती हैं।

 

जीवन जब

अंधेरे और रोशनियों में उलझता है,

तब चमक भी होती है,

चिंगारियां भी,

कुछ मधुर ध्वनियां भी

और धमाके भी,

आकाश और धरा के बीच

जीवन ऐसे ही चलता है।

 

सागर की गहराईयों सा मन

सागर की गहराईयों सा मन।

सागर के सीने में

अनगिन मणि-रत्नम्

कौन ढूंढ पाया है आज तलक।

.

मन में रहते भाव-संगम

उलझे-उलझे, बिखरे-बिखरे,

कौन समझ पाया है

आज तलक।

.

लहरें आती हैं जाती हैं,

हिचकोले लेती नाव।

जग-जगत् में

मन भागम-भाग किया करता है,

कहां मिलता आराम।

.

खुले नयनों पर वश है अपना,

देखें या न देखें।

पर बन्द नयन

न जाने क्या-क्या दिखला जाते हैं,

अनजाने-अनचाहे भाव सुना जाते हैं,

जिनसे बचना चाहें,

वे सब रूप दिखा जाते हैं।

अगला-पिछला, अच्छा-बुरा

सब हाल बता जाते हैं,

अनचाहे मोड़ों पर खड़ा कर

कभी हंसी देकर,

तो कभी रूलाकर चले जाते हैं।

 

 

ककहरा जान लेने से ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं

इस चित्र को देखकर सोचा था,

 

आज मैं भी

कोई अच्छी-सी रचना रचूंगी।

मां-बेटी की बात करूंगी।

लड़कियों की शिक्षा,

प्रगति को लेकर बड़ी-बड़ी

बात करूंगी।

पर क्या करूं अपनी इस सोच का,

अपनी इस नज़र का,

मुझे न तो मां दिखाई दी इस चित्र में,

किसी बेटी के लिए आधुनिकता-शिक्षा के

सपने बुनती हुई ,

और न बेटी एवरेस्ट पर चढ़ती हुई।

मुझे दिखाई दे रही है,

एक तख्ती परे सरकती हुई,

कुछ गुम हुए, धुंधलाते अक्षरों के साथ,

और एक छोटी-सी बालिका।

यहां कहां बेटी पढ़ाने की बात है।

कहां कुछ सिखाने की बात है।

नहीं है कोई सपना।

नहीं है कोई आस।

जीवन की दोहरी चालों में उलझे,

तख्ती, चाक और लिखावट

तो बस दिखावे की बात है।

एक ओर  तो पढ़ ले,पढ़ ले,

का राग गा रहे हैं,

दूसरी ओर

इस छोटी सी बालिका को

सजा-धजाकर बिठा रहे हैं।

कोई मां नहीं बुनती

ऐसे हवाई सपने

अपनी बेटियों के लिए।

जानती है गहरे से,

ककहरा जान लेने से

ज़िन्दगियां नहीं बदल जातीं,

भाव और परम्पराएं नहीं उलट जातीं।

.

आज ही देख रही है ,

उसमें अपना प्रतिरूप।

.

सच कड़वा होता है

किन्तु यही सच है।

 

अभिलाषाओं के कसीदे

आकाश पर अभिलाषाओं के कसीदे कढ़े थे
भावनाओं के ज्वार से माणिक-मोती जड़े थे
न जाने कब एक धागा छूटा हाथ से मेरे
समय से पहले ही सारे ख्वाब ज़मीन पर पड़े थे

सजावट रह गईं हैं पुस्तकें

दीवाने खास की सजावट बनकर रह गईं हैं पुस्तकें
बन्द अलमारियों की वस्तु बनकर रह गई हैं पुस्तकें
चार दिन में धूल झाड़ने का काम रह गई हैं पुस्तकें
कोई रद्दी में न बेच दे,छुपा कर रखनी पड़ती हैं पुस्तकें।

 

यह जिजीविषा की विवशता है

यह जिजीविषा की विवशता है

या त्याग-तपस्या, ज्ञान की सीढ़ी

जीवन से विरक्तता है

अथवा जीवित रहने के लिए

दुर्भाग्य की सीढ़ी।

ज्ञान-ध्यान, धर्म, साधना संस्कृति,

साधना का मार्ग है

अथवा ढकोसलों, अज्ञान, अंधविश्‍वासों को
व्यापती एक पाखंड की पीढ़ी।

या एकाकी जीवन की

विडम्बानाओं को झेलते

भिक्षा-वृत्ति के दंश से आहत

एक निरूपाय पीढ़ी।

लाखों-करोड़ों की मूर्तियां बनाने की जगह

इनके लिए एक रैन-बसेरा बनवा दें

हर मन्दिर के किसी कोने में

इनके लिए भी एक आसन लगवा दें।

कोई न कोई काम तो यह भी कर ही देंगे

वहां कोई काम इनको भी दिलवा दें,

इस आयु में एक सम्मानजनक जीवन जी लें

बस इतनी सी एक आस दिलवा दें।

आह! डाकिया!

आह! डाकिया!

खबरें संसार भर की।

डाक तरह-तरह की।

छोटी बात तो

पोस्टकार्ड भेजते थे,

औरों के अन्तर्देशीय पत्रों को

झांक-झांककर देखते थे।

और बन्द लिफ़ाफ़े को

चोरी से पढ़ने के लिए

थूक लगाकर

गीला कर खोलते थे।

जब चोरी की चिट्ठी आनी हो

तो द्वार पर खड़े होकर

चुपचाप डाकिए के हाथ से

पत्र ले लिया करते थे,

इससे पहले कि वह

दरार से चिट्ठी घर में फ़ेंके।

फ़टा पोस्टकार्ड

काली लकीर

किसी अनहोनी से डराते थे

और तार की बात से तो

सब कांपते थे।

सालों-साल सम्हालते थे

संजोते थे स्मृतियों को

अंगुलियों से छूकर

सरासराते थे पत्र

अपनों की लिखावट

आंखों को तरल कर जाती थी

होठों पर मुस्कान खिल आती थी

और चेहरा गुलाल हो जाया करता था

इस सबको छुपाने के लिए

किसी पुस्तक के पन्नों में

गुम हो जाया करते थे।

 

 

झूठ के आवरण चढ़े हैं

चेहरों पर चेहरे चढ़े हैं

असली तो नीचे गढ़े हैं

कैसे जानें हम किसी को

झूठ के आवरण चढ़े हैं

हांजी बजट बिगड़ गया

हांजी , बजट बिगड़ गया। सुना है इधर मंहगाई बहुत हो गई है। आलू पच्चीस रूपये किलो, प्याज भी पच्चीस तीस रूपये किलो और  टमाटर भी। अब बताईये भला आम आदमी जाये तो जाये कहां और  खाये तो खाये क्या। अब महीने में चार पांच किलो प्याज, इतने ही आलू टमाटर का तो खर्चा हो ही जाता है।सिलेंडर भी शायद 14_16 रूपये मंहगा हो रहा है।  कहां से लाये आम आदमी इतने पैसे , कैसे भरे बच्चों का पेट और  कैसे जिये इस मंहगाई के ज़माने में। 

घर में जितने सदस्य हैं उनसे ज़्यादा मोबाईल घर में हैं। बीस पच्चीस रूपये महीने के नहीं, हज़ारों के। और  हर वर्ष नये फीचर्स के साथ नया मोबाईल तो लेना ही पड़ता है। यहां मंहगाई की बात कहां से गई। हर मोबाईल का हर महीने का बिल हज़ार पंद्रह सौ रूपये तो ही जाता है। नैट भी चाहिए। यह तो आज के जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। जितने सदस्य उतनी गाड़ियां। और  एकफोर व्हीलरभी रखना ही पड़ता है। अब समय किसके पास है कि एक दूसरे को लिफ्ट दें  सबका अपना अपना समय और  सुविधाएं। और  स्टेटस भी तो कोई चीज़ है। अब पैट्रोल पर महीने का पांच सात हज़ार खर्च हो भी जाता है तो क्या। 18 वर्ष से छोटे बच्चों को तो आजकल गाड़ी देनी ही पड़ती है। साईकिल का युग तो रह नहीं गया। चालान होगा तो भुगत लेंगे। कई तरीके आते हैं। अब यहां मंहगाई कहां से आड़े गई। हर महीने एक दो आउटिंग तो हो ही जाती है। अब घर के चार पांच लोग बाहर घूमने जाएंगे , खाएंगे पीयेंगे तो पांच सात हज़ार तो खर्च हो ही जाता है। भई कमा किस लिए रहे हैं। महीने में एकाध फिल्म। अब जन्मदिन अथवा किसी शुभ दिन पर हलवा पूरी का तो ज़माना रह नहीं गया। अच्छा आयोजन तो करना ही पड़ता है। हज़ारों नहीं, लाखों में भी खर्च हो सकता है। तब क्या। और  मरण_पुण्य तिथि पर तो शायद इससे भी ज़्यादा। और  शादी_ब्याह की तो बात ही मत कीजिए, आजकल तो दस बीस लाख से नीचे की बात ही नहीं है। 

लेकिन आलू प्याज टमाटर मंहगा हो गया है। बजट बिगड़ गया।

मैमोरैण्डम

हर डायरी के

प्रारम्भ और अन्त में

जड़े कुछ पृष्ठ पर

जिन पर लिखा होता है

‘मैमोरैण्डम’ अर्थात् स्मरणीय।

मैमोरी के लिए

स्मरण रखने के लिए है क्या ?

वे बीते क्षण

जो बीतकर

या तो बीत गये हैं

या बीतकर भी

अनबीते रह गये हैं।

अथवा वे आने वाले क्षण

जो या तो आये ही नहीं

या बिना आये ही चले गये हैं।

बीत गये क्षण: एक व्यर्थता -

बडे़-बड़े विद्वानों ने कहा है

भूत को मत देखो

भविष्य में जिओ।

भविष्य: एक अनबूझ पहेली

उपदेश मिलता है

आने वाले कल की

चिन्ता क्यों करते हो

आज को तो जी लो।

और आज !

आज तो आज है

उसे क्या याद करें।

तो फिर मैमोरैण्डम फाड़ डालें।

मैं भी तो

यहां

हर आदमी की ज़ुबान

एक धारदार छुरी है

जब चाहे, जहां चाहे,

छीलने लगती है

कभी कुरेदने तो कभी काटने।

देखने में तुम्हें लगेगी

एकदम अपनी सी।

विनम्र, झुकती, लचीली

तुम्हारे पक्ष में।

लेकिन तुम देर से समझ पाते हो

कि सांप की गति भी

कुछ इसी तरह की होती है।

उसकी फुंकार भी

आकर्षित करती है तुम्हें

किसी मौके पर।

उसका रंग रूप, उसका नृत्य _

बीन की धुन पर उसका झूमना

तुम्हें मोहने लगता है।

तुम उसे दूध पिलाने लगते हो

तो कभी देवता समझ कर

उसकी पूजा करते हो।

यह जानते हुए भी

कि मौका मिलते ही

वह तुम्हें काट डालेगा।

और  तुम भी

सांप पाल लेते हो

अपनी पिटारी में।

कशमकश में बीतता है जीवन

सुख-दुख तो जीवन की बाती है

कभी जलती, कभी बुझती जाती है

यूँ ही कशमकश में बीतता है जीवन

मन की भटकन कहाँ सम्हल पाती है।

 

आनन्द के कुछ पल

संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।



 

मेरे हिस्से का सूरज

कैसे कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज खा भी गये।

यूं देखा जाये

तो रोशनी पर सबका हक़ है।

पर सबके पास

अपने-अपने हक का

सूरज भी तो होता है।

फ़िर, क्यों, कैसे

कुछ लोग

मेरे हिस्से का सूरज खा गये।

बस एक बार

इतना ही समझना चाहती हूं

कि गलती मेरी थी कहीं,

या फिर

लोगों ने मेरे हक का सूरज

मुझसे छीन लिया।

शायद गलती मेरी ही थी।

बिना सोचे-समझे

रोशनियां बांटने निकल पड़ी मैं।

यह जानते हुए भी

कि सबके पास

अपना-अपना सूरज भी है।

बस बात इतनी-सी

कि अपने सूरज की रोशनी पाने के लिए

कुछ मेहनत करनी पड़ती है,

उठाने पड़ते हैं कष्ट,

झेलनी पड़ती हैं समस्याएं।

पर जब यूं ही

कुछ रोशनियां मिल जायें,

तो क्यों अपने सूरज को जलाया जाये।

जब मैं नहीं समझ पाई,

इतनी-सी बात।

तो होना यही था मेरे साथ,

कि कुछ लोग

मेरे हिस्से का सूरज खा गये।

 

जीना है तो बुझी राख में भी आग दबाकर रखनी पड़ती है

मन के गह्वर में एक ज्वाला जलाकर रखनी पड़ती है

आंसुओं को सोखकर विचारधारा बनाकर रखनी पड़ती है

ज़्यादा सहनशीलता, कहते हैं निर्बलता का प्रतीक होती है

जीना है तो, बुझी राख में भी आग दबाकर रखनी पड़ती है

हिम्मतों का सफ़र है ज़िन्दगी

हिम्मतों का सफ़र है ज़िन्दगी।

राहों में खतरा है ज़िन्दगी।

पर्वतों-सी बाधाएं झेलती है ज़िन्दगी।

साहस और श्रम का नाम है ज़िन्दगी।

कहते हैं जहां चाह वहां राह,

यह बात यहां बताती है ज़िन्दगी।

कहीं गहरी खाई और कहीं

सिर पर पहाड़-सी समस्याओं से

डराती है ज़िन्दगी।

राह देना

और सही राह लेना

समझाती है ज़िन्दगी।

चलना सदा सम्हल कर

यह समझाती है जिन्दगी।

एक गलत मोड़

एक अन्त का संकेत

दे जाती है ज़िन्दगी।

सुख-दुख तो आने-जाने हैं

धरा पर मधुर-मधुर जीवन की महक का अनुभव करती हूं

पुष्प कहीं भी हों, अपने जीवन को उनसे सुरभित करती हूं

सुख-दुख तो आने-जाने  हैं, फिर आशा-निराशा क्यों

कुछ बिगड़ा है तो बनेगा भी, इस भाव को अनुभव करती हूं

 

सोच हमारी लूली-लंगड़ी

विचार हमारे भटक गये

सोच हमारी लूली-लंगड़ी

टांग उठाकर भाग लिए

पीठ मोड़कर चल दिये

राह छोड़कर चल दिये

राहों को हम छोड़ चले

चिन्तन से हम भाग रहे

सोच-समझ की बात नहीं

सब मिल-जुलकर यही करें

गलबहियां डालें घूम रहे

सत्य से हम भाग रहे

बोल हमारे कुंद हुए

पीठ पर हम वार करें

बच-बचकर चलना आ गया

दुनिया कुछ भी कहती रहे

पीठ दिखाना आ गया

बच-बचकर रहना आ गया।

चरण-चिन्ह हम छोड़ रहे

पीछे-पीछे जग आयेगा

बांसुरी अब भावशून्य हो गई

कृष्ण तेरी बांसुरी अब

भावशून्य हो गई।

राधा तेरे नृत्य की गति भी

कहीं खो गई।

छोड़ अब ये रास लीला,

प्रेम मनुहार की बातें।

चक्र उठा,

कंस, दु:शासन,दुर्योधनों की

भीड़ भारी हो गई।