बूंदे गिरतीं

बादल आये, वर्षा लाये।

बूंदे गिरतीं,

टप-टप-टप-टप।

बच्चे भागे ,

छप-छप-छप-छप।

मेंढक कूदे ,

ढप-ढप-ढप-ढप।

बकरी भागीकुत्ता भागा।

गाय बोली मुझे बचाओ

भीग गई मैं

छाता लाओ, छाता लाओ।

रोशनी की एक लकीर

राहें कितनी भी सूनी हों

अंधेरे कितने भी गहराते हों

वक्त के किसी कोने से

रोशनी की एक लकीर

कभी न कभी,

ज़रूर निकलती ही है।

फिर वह एक रेखा हो,

चांद का टुकड़ा

अथवा चमकता सूरज।

इसलिए कभी भी

निराश न होना

अपने जीवन के सूनेपन से

अथवा अंधेरों से

और साथ ही

ज़रूरत से ज़्यादा रोशनी से भी ।

लिखने के लिए

कविता लिखने के लिए

शब्दों की एक सीमा है

मेरे भीतर,

जो कट जाती है उस समय ,

जब मुझे कविता नहीं लिखनी होती

मरना बड़ा जरूरी है

जब-जब

जीने का प्रयास किया मैंने,

तब-तब

मुझे बता दिया गया,

कि ज़िन्दगी में

मरना बड़ा जरूरी है।

यह ज़रूरी नहीं कि

आप ज़िन्दगी में

एक ही बार मरें,

ज़िन्दा रहते हुए भी

बार-बार

मरने के अनेक रास्ते हैं ।

ज़िंदा रहते हुए भी 

मरना ही तो

असली मौत है ।

जिसे हम स्वयं भोगते हैं।

वह मौत क्या

जिसे और लोग भुगतें।

 

निर्दोष

तुमने,

मुझसे उम्मीदें की।

मैंने,

तुम्हारे लिए

उम्मीदों के बीज बोये।

फिर, उन पर

डाल दिया पानी।

अब,

बीज नहीं उगे,

तो, मेरा दोष कहां !

-

अपने-आपको परखना

कभी-कभी अच्छा लगता है,

अपने-आप से बतियाना,

अपने-आपको समझना-समझाना।

डांटना-फ़टकारना।

अपनी निगाहों से

अपने-आपको परखना।

अपने दिये गये उत्तर पर

प्रश्न तलाशना।

अपने आस-पास घूम रहे

प्रश्नों के उत्तर तलाशना।

मुर्झाए पौधों में

कलियों को तलाशना।

बिखरे कांच में

जानबूझकर अंगुली घुमाना।

उफ़नते दूध को

गैस पर गिरते देखना।

और

धार-धार बहते पानी को

एक अंगुली से

रोकने की कोशिश करना।

आस नहीं छोड़ी मैंने

प्रकृति के नियमों को

हम बदल नहीं सकते।

जीवन का आवागमन

तो जारी है।

मुझको जाना है,

नव-अंकुरण को आना है।

आस नहीं छोड़ी मैंने।

विश्वास नहीं छोड़ा मैंने।

धरा का आसरा लेकर,

आकाश ताकता हूं।

अपनी जड़ों को

फिर से आजमाता हूं।

अंकुरण तो होना ही है,

बनना और मिटना

नियम प्रकृति का,

मुझको भी जाना है।

न उदास हो,

नव-अंकुरण फूटेंगे,

यह क्रम जारी रहेगा,

 

कल किसने देखा है

इस सूनेपन में

मन बहक गया।

धुंधलेपन में

मन भटक गया।

छोटी-सी रोशनी

मन चहक गया।

गहन, बीहड़ वन में

मन अटक गया।

आकर्षित करती हैं,

लहकी-लहकी-सी डालियां

बुला रहीं,

चल आ झूम ले।

दुनियादारी भूल ले।

कल किसने देखा है

आजा,

आज जी भर घूम ले।

सांसों की गिनती कर पाते

सांसों की गिनती कर पाते तो कितना अच्छा होता।

इच्छाओं पर बांध बना पाते तो कितना अच्छा होता।

जीवन-भर यूं ही डूबते-तिरते समय निकला जाता है,

अपनी इच्छा से जीते-मरते, तो कितना अच्छा होता।

 

न होना

किसी का

न होना,

नहीं होता

इतना दुःखदायी,

जितना किसी के 

होते हुए भी,

न होने के

बराबर होना।

यह मेरा शिमला है

बस एक छोटी सी सूचना मात्र है

तुम्हारे लिए,

कि यह शहर

जहां तुम आये हो,

इंसानों का शहर है।

इसमें इतना चकित होने की

कौन बात है।

कि यह कैसा अद्भुत शहर है।

जहां अभी भी इंसान बसते हैं।

पर तुम्हारा चकित होना,

कहीं उचित भी लगता है ।

क्योंकि ,जिस शहर से तुम आये हो,

वहां सड़कों पर,

पत्थरों को चलते देखा है मैंने,

बातें गाड़ियां और मोटरें करती हैं हवा से।

हंसते और खिलखिलाते हैं

भोंपू और बाजे।

सिक्का रोटी बन गया है।

 पर यह शहर जहां तुम अब आये हो,

यहां अभी भी इंसान ही बसते हैं।

स्वागत है तुम्हारा।

 

आशाओं का जाल

जो है वह नहीं,

जो नहीं है,

उसकी ही प्रतीक्षा में

विचलित रहता है मन।

शिशि‍र में ग्रीष्म ,

और ग्रीष्‍म में चाहिए झड़ी।

जी जलता है आशाओं के जाल में।

देता है जीवन दिल खोलकर, 

बस हम पकड़ते ही नहीं।

पकड़ते नहीं जीवन के

लुभावने पलों को ।

एक मायावी संसार में जीते हैं,

और-और की आस में।

और इस और-और की आस में,

जो मिला है

उसे भी खो बैठते हैं।

आत्‍माओं का मिलन चाहते हैं,

और सम्‍बन्‍धों को संवारते नहीं।

 

धूप-छांव में उलझता मन

कोहरे की चादर

कुछ मौसम पर ,

कुछ मन पर।

शीत में अलसाया-सा मन।

धूप-छांव में उलझता,

नासमझों की तरह।

बहती शीतल बयार।

न जाने कौन-से भाव ,

दबे-ढके कंपकंपाने लगे।

कहना कुछ था ,

कह कुछ दिया,

सर्दी के कारण

कुछ शब्‍द अटक से गये थे,

कहीं भीतर।

मूंगफ़ली के छिलके-सी

दोहरी परतें।

दोनों नहीं

एक तो उतारनी ही होगी।

नदी हो जाना

बहती नदी के

सौन्दर्य की प्रशंसा करना

कितना सरल है]

और  नदी हो जाना

उतना ही कठिन।

+

नदी

मात्र नदी ही तो नहीं है]

यह प्रतीक है]

एक लम्बी लड़ाई की,

बुराईयों के विरुद्ध

कटुता और शुष्कता के विरुद्ध

निःस्वार्थ भावना की

निष्काम भाव से

कर्म किये जाने की

समर्पण और सेवा की

विनम्रता और तरलता की।

अपनी मंज़िल तक पहुंचने के लिए

प्रकृति से युद्ध की।

हर अमृत और विष पी सकने वाली।

नदी

कभी रुकती नहीं

थकती नहीं।

मीलों-मील दौड़ती

उंचाईयों-निचाईयों को नापती

विघ्न-बाधाओं से टकराती

दुनिया-भर की धुल-मिट्टी

 

अपने अंक में समेटती

जिन्दगी बिखेरती

नीचे की ओर बढ़कर भी

अपने कर्मों सेे

निरन्तर

उपर की ओर उठती हुई

- नदी-

कभी तो

रास्ते में ही

सूखकर रह जाती है

और कभी जा पहुंचती है

सागर-तल तक

तब उसे कोइ नहीं पहचानता

यहां

मिट जाता है

उसका अस्तित्व।

नदी समुद्र हो जाती है

बदल जाता है उसका नाम।

समुद्र और कोई नहीं है

नदी ही तो है

बार-बार आकर

समुद्र बनती हुई

चाहो तो तुम भी समुद्र हो सकते हो

पर इसके लिए पहले

नदी बनना होगा।

एहसास

किसी के भूलने के

एहसास की वह तीखी गंध,

उतरती चली जाती है,

गहरी, कहीं,अंदर ही अंदर,

और कचोटता रहता है मन,

कि वह भूल

सचमुच ही एक भूल थी,

या केवल एक अदा।

फिर

उस एक एहसास के साथ

जुड़ जाती हैं,

न जाने, कितनी

पुरानी यादें भी,

जो सभी मिलकर,

मन-मस्तिष्क पर ,

बुन जाती हैं,

नासमझी का

एक मोटा ताना-बाना,

जो गलत और ठीक को

समझने नहीं देता।

ये सब एहसास मिलकर

मन पर,

उदासी का,

एक पर्दा डाल जाते हैं,

जो आक्रोश, झुंझलाहट

और निरुत्साह की हवा लगते ही

नम हो उठता है ,

और यह नमी,

न चाहते हुए भी

आंखों में उतर आती है।

न जाने क्या है ये सब,

पर लोग, अक्सर इसे

भावुकता का नाम दे जाते हैं।

 

 

 

 

कैसा बिखराव है यह

 

मन घुटता है ,बेवजह।

कुछ भीतर रिसता है,बेवजह।

उधेड़ नहीं पाती

पुरानी तरपाई।

स्‍वयं ही टूटकर

बिखरती है ।

समेटती लगती हूं

पुराने धागों को,

जो किसी काम के नहीं।

कितनी भी सलवटें निकाल लूं

किन्‍तु ,तहों के निशान

अक्‍सर जाते नहीं।

क्‍यों होता है मेरे साथ ऐसा,

कहना कुछ और चाहती हूं

कह कुछ और जाती हूं।

बात आज की है,

और कल की बात कहकर

कहानी को पलट जाती हूं,

कि कहीं कोई

समझ न ले मेरे मन को,

मेरे आज को

या मेरे बीते कल को ।

शायद इसीलिए

उलट-पलट जाती हूं।

कहना कुछ और चाहती हूं,

कह कुछ और जाती हूं।

यह सिलसिला

‘गर ज़िन्दगी भर  चलेगा,

तो कहां तक, और कब तक ।

 

 

नज़र-नज़र की बात

निराशाओं में भी

रोशनी की आस होती है।

अंधेरे में भी

किरणों की भास होती है।

भरोसे पर नहीं चलती दुनिया,

ज़िन्दगी बड़े रंग दिखाती है,

जांच-परख कर ही

आगे बात होती है।

बस, उम्मीद न छोड़ना कभी,

हार में भी

जीत ही की बात होती है।

खंडहरों में भी

हीरे-मोती तलाशते हैं,

यहां भी चकाचैंध होती है,

बस, नज़र-नज़र की बात होती है।

 

यह ज़िन्दगी है

यह ज़िन्दगी है,

भीड़ है, रेल-पेल है ।

जाने-अनजाने लोगों के बीच ,

बीतता सफ़र है ।

कभी अपने पराये-से,

और कभी पराये

अपने-से हो जाते हैं।

दुख-सुख के ठहराव ,

कभी छोटे, कभी बड़े पड़ाव,

कभी धूप कभी बरसात ।

बोझे-सी लदी जि़न्‍दगी, 

कभी जगह बन पाती है

कभी नहीं।

कभी छूटता सामान

कभी खुलती गठरियां ।

अन्‍तहीन पटरियों से सपनों का जाल ।

दूर कहीं दूर पटरियों पर

बेटिकट दौड़ती-सी ज़िन्दगी ।

मिल गई जगह तो ठीक,

नहीं तो खड़े-खड़े ही,

बीतती है ज़िन्दगी ।

एक मुस्कान का आदान-प्रदान

क्या आपके साथ

हुआ है कभी ऐसा,

राह चलते-चलते,  

सामने से आते

किसी अजनबी का चेहरा,

अपना-सा लगा हो।

बस यूं ही,

एक मुस्कान का आदान-प्रदान।

फिर पीछे मुड़कर देखना ,

कहीं देखा-सा लगता है चेहरा।

दोनों के चेहरे पर एक-से भाव।

फिर,  

एक हिचकिचाहट-भरी मुस्कान।

और अपनी-अपनी राह बढ़ जाना।

-

सालों-साल,  

याद रहती है यह मुस्कान,

और अकारण ही

चेहरे पर मुस्कान ले आती है।

 

हमारा हिन्दी दिवस

 

वर्ष 1975 में पहली बार किसी राज्य स्तरीय  कवि सम्मेलन में हिस्सा लिया और उसके बाद मेरी प्रतिक्रिया ।

उस समय कवि सम्मेलन में कवियों को सौ रूपये मानदेय मिलता था

**************

हमारा हिन्दी दिवस।

14 सितम्बर हमारा हिन्दी दिवस।

भाषण माला हमारा हिन्दी दिवस।

कवि गोष्ठी हमारा हिन्दी दिवस।

कवि कवि, कवि श्रोता, श्रोता कवि

सारे कवि सारे श्रोता , बस कवि कवि,

सारे श्रोता सारे कवि हमारा हिन्दी दिवस।

-

कुछ नेता कुछ नेता वेत,्ता

कुछ मंत्री, मंत्री के साथ संतरी

हल्ला गुल्ला, तालियां हार मालाएं, उद्घाटन,

फ़ोटो, कैमरा, रेडियो, टी.वी. हमारा हिन्दी दिवस।

 

वादा है सौ रूपये का, कुछ पुरस्कारों, 

मान चिन्हों का, सम्मान पदकों का। मिलेंगे।

कविता, भाषण, साहित्य, सम्मान भाड़ में।

सौ रूपया है, किराया, नई जगह घूमना।

रसद पानी, वाह वाही,

कुछ उखड़ी बिखरी कुछ टूटी फूटी हिन्दी।

हमारा हिन्दी दिवस सम्पन्न।

फिर वर्ष भर का अवकाश।

न हिन्दी न दिवस। न गोष्ठी न रूपये।

वर्ष भर की बेकारी।

मुझे लगता है

हमारा हिन्दी दिवस

सरकार का एक दत्तक पुत्र है

14 सितम्बर 1949 को गोद लिया

और उसी दिन उसकी हत्या कर दी।

अब सरकार हर 14 सितम्बर को

उसकी पुण्य तिथि धूमधाम से मनाती है

उनके नाम पर वर्ष भर से रूके

अपने कई काम पूरे करवाती है

वर्ष भर बाद

कुछ दक्षिणा मिल पाती है।

-

आह ! एक वर्ष !

फिर हिन्दी दिवस ! फिर सौ रूपये

फिर एक वर्ष ! फिर हिन्दी दिवस !

फिर ! फिर ! शायद अब तक

हिन्दी का रेट कुछ बढ़ गया हो।

अच्छा ! अगले वर्ष फिर मिलेंगे

हर वर्ष मिलेंगे।

हम हिन्दी के चौधरी हैं

हिन्दी सिर्फ हमारी बपौती है।

 

दुनिया कहती है

काश !

लौट आये

अट्ठाहरवीं शती ।

गोबर सानती,

उपले बनाती,

लकडि़या चुन,ती

वन-वन घूमती ।

पांच हाथ घूंघट ओढ़ती,

गागर उठा कुंएं से पानी लाती,

बस रोटियां बनाती,

खिलाती और खाती।

रोटियां खाती, खिलाती और बनाती।

सच ! कितनी सही होती जि़न्‍दगी।

-

दुनिया कहती है

बाकी सब तो मर्दों के काम हैं।

 

अपनापन

जब किसी अपने

या फिर

किसी अजनबी के साथ

समय का

अपनत् होने लगता है,

तब जीवन की गाड़ी

सही पहियों पर

आप ही दौड़ने लगती है,

और गंतव् तक

सुरक्षित

लेकर ही जाती है।

 

हाथों में हाथ हो

जब अपनों का साथ हो

हाथों में हाथ हो

तब धरा से गगन तक

मार्ग सुगम हो जाते हैं

चांद राहें रोशन करता है

ज्‍वार भावनाओं का

उमड़ता है

राहों में फूल बिछते हैं

दिल से दिल मिलते हैं

-

तो तुम्‍हें क्‍या ! ! ! !

 

जिजीविषा के लिए

 

 

रंगों की रंगीनियों में बसी है जि़न्दगी।

डगर कठिन है,

पर जिजीविषा के लिए

प्रतिदिन, यूं ही

सफ़र पर निकलती है जिन्‍दगी।

आज के निकले कब लौटेंगे,

यूं ही एकाकीपन का एहसास

देती रहती है जिन्दगी।

मृगमरीचिका है जल,

सूने घट पूछते हैं

कब बदलेगी जिन्दगी।

सुना है शहरों में, बड़े-बडे़ भवनों में

ताल-तलैया हैं,

घर-घर है जल की नदियां।

देखा नहीं कभी, कैसे मान ले मन ,

दादी-नानी की परी-कथाओं-सी

लगती हैं ये बातें।

यहां तो,

रेत के दानों-सी बिखरी-बिखरी

रहती है जिन्दगी।

 

वक्त कहां किसी का

वक्‍त को

जब मैं वक्‍त नहीं दे पाई

तो वह कहां मेरा होता ।

कहा मेरे साथ चल, हंस दिया।

कहा, ठहर ज़रा,

मैं तैयार तो हो लूं  

साथ तेरे चलने के लिए,

उपहास किया मेरा।

 

समाचार पत्र की आत्मकथा

 

अब समाचार-पत्र

समाचारों की बात नहीं करते,

क्या बात करते हैं

यही समझने में दिन बीत जाता है।

बस एक नज़र में

पूरा समाचार-पत्र पढ़ लिया जाता है।

जब समाचार-पत्र लेने की बात आती है,

तब उसकी गुणवत्ता से अधिक

उसकी रद्दी

कितने अच्छे भाव में बिकेगी,

यह ख्याल आता है।

कौन सा समाचार-पत्र

क्या उपहार लेकर आयेगा,

इस पर विचार किया जाता है।

कभी समय था

समाचार-पत्र घर में आने पर

कोहराम मच जाता था।

किसको कौन-सा पृष्ठ चाहिए ,

इस बात पर युद्ध छिड़ जाता था।

पिता की टेढ़ी आंख

कोई समाचार-पत्र को

उनसे पूछे बिना

हाथ नहीं लगा सकता था।

सम्पादकीय पृष्ठ पर

पिताजी का अधिकार,

सामान्य ज्ञान बड़े भाई के पास ,

और मां के नाम महिलाओं का पृष्ठ,

बच्चों का कोना, कार्टून और चुटकुले।

सालों-साल समाचार-पत्रों की कतरनें

अलमारियों से झांकती थी।

हिन्दी का समाचार-पत्र

बड़ी कठिनाई से

मां के आग्रह पर लिया जाता था।

और वह सस्ते भाव बिकता था।

धारावाहिक कहानियां,

बुनाई-कढ़ाई के डिज़ाईन,

रंग-बिरंगे चित्र,

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए,

सामान्य ज्ञान की फ़ाईलें,

पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई जाती थीं।

यही समाचार-पत्र अलमारियों में

बिछाये जाते थे,

पुस्तकों-कापियों पर चढ़ाये जाते थे,

और दोपहर के भोजन के लिए भी

यही टिफ़न, फ़ायल हुआ करते थे।

शनिवार-रविवार का समाचार-पत्र

वैवाहिक विज्ञापनों के लिए

लिया जाता था।

 

समाचार-पत्रों पर लिखना

यूं लगा

मानों जीवन के किसी अनुभूत

सुन्दर सत्य, संस्मरण,

यात्रा-वृतान्त का लिखना

जिसका कोई आदि नहीं, अन्त नहीं।

 

ज़िन्दगी खुली मुट्ठी है या बन्द

 

अंगुलियां कभी मुट्ठी बन जाती हैं,

तो कभी हाथ।

कभी खुलते हैं,

कभी बन्द होते हैं।

कुछ रेखाएं इनके भीतर हैं,

तो कुछ बाहर।

-

रोज़ रात को

मुट्ठियों को

ठीक से

बन्द करके सोती हूं,

पर प्रात:

प्रतिदिन

खुली ही मिलती हैं।

-

देखती हूं,

कुछ रेखाएं नई,

कुछ बदली हुईं,

कुछ मिट गईं।

-

फिर दिन भर

अंगुलियां ,

कभी मुट्ठी बन जाती हैं,

तो कभी हाथ।

कभी खुलते हैं,

कभी बन्द होते हैं।

-

यही ज़िन्दगी है।

 

बंजारों पर चित्राधारित रचना

किसी चित्रकार की

तूलिका से बिखरे

यह शोख रंग

चित्रित कर पाते हैं

बस, एक ठहरी-सी हंसी,

थोड़ी दिखती-सी खुशी

कुछ आराम

कुछ श्रृंगार, सौन्‍दर्य का आकर्षण

अधखिली रोशनी में

दमकता जीवन।

किन्‍तु, कहां देख पाती है

इससे आगे

बन्‍द आंखों में गहराती चिन्‍ताएं

भविष्‍य का धुंधलापन

अधखिली रोशनी में जीवन तलाशता

संघर्ष की रोटी

राहों में बिखरा जीव

हर दिन

किसी नये ठौर की तलाश में

यूं ही बीतता है जीवन ।

  

बस जीवन बीता जाता है

 

सब जीवन बीता जाता है ।

कुछ सुख के कुछ दुख के

पल आते हैं, जाते हैं,

कभी धूप, कभी झड़़ी ।

कभी होती है घनघोर घटा,

तब भी जीवन बीता जाता है ।

कभी आस में, कभी विश्‍वास में,

कभी घात में, कभी आघात में,

बस जीवन बीता जाता है ।

हंसते-हंसते आंसू आते,

रोते-रोते खिल-खिल करते ।

चढ़़ी धूप में पानी गिरता,

घनघोर घटाएं मन आतप करतीं ।

फिर भी जीवन बीता जाता है ।

नित नये रंगों से जीवन-चित्र संवरता

बस यूं ही जीवन बीता जाता है ।

 

प्रण का भाव हो

 

निभाने की हिम्‍मत हो

तभी प्रण करना कभी।

हर मन आहत होता है

जब प्रण पूरा नहीं करते कभी ।

कोई ज़रूरी नहीं

कि प्राण ही दांव पर लगाना,

प्रण का भाव हो,

जीवन की

छोटी-छोटी बातों के भाव में भी

मन बंधता है, जुड़ता है,

टूटता है कभी ।

-

जीवन में वादों का, इरादों का

कायदों का

मन सोचता है सभी।

-

चाहे न करना प्रण कभी,

बस छोटी-छोटी बातों से,

भाव जता देना कभी ।