तेरी माया तू ही जाने
कभी तो चांद पलट न।
कभी तो सूरज अटक न।
रात-दिन का आभास देते,
तम-प्रकाश का भाव देते,
कभी तो दूर सटक न।
चांद को अक्सर
दिन में देखती हूं,
कभी तो सूरज
रात में निकल न।
तुम्हारा तो आवागमन है
प्रकृति का चलन है
हमने न जाने कितने
भाव बांध लिये हैं
रात-दिन का मतलब
सुख-दुख, अच्छा-बुरा
और न जाने क्या-क्या।
कभी तो इन सबसे
हो अलग न।
तेरी माया तू ही जाने
कभी तो रात-दिन से
भटक न।
जब एक तिनका फंसता है
दांत में
जब एक तिनका फंस जाता है
हम लगे रहते हैं
जिह्वा से, सूई से,
एक और तिनके से
उसे निकालने में।
किन्तु , इधर
कुछ ऐसा फंसने लगा है गले में
जिसे, आज हम
देख तो नहीं पा रहे हैं,
जो धीरे-धीरे, अदृश्य,
एक अभेद्य दीवार बनकर
घेर रहा है हमें चारों आेर से।
और हम नादान
उसे दांत का–सा तिनका समझकर
कुछ बड़े तिनकों को जोड़-जोड़कर
आनन्दित हो रहे हैं।
किन्तु बस
इतना ही समझना बाकी रह गया है
कि जो कृत्य हम कर रहे हैं
न तो तिनके से काम चलने वाला है
न सूई से और न ही जिह्वा से।
सीधे झाड़ू ही फ़िरेगा
हमारे जीवन के रंगों पर।
कुहासे में उलझी जि़न्दगी
कभी-कभी
छोटी-छोटी रोशनी भी
मन आलोकित कर जाती है।
कुहासे में उलझी जि़न्दगी
एक बेहिसाब पटरी पर
दौड़ती चली जाती है।
राहों में आती हैं
कितनी ही रोशनियां
कितने ठहराव
कुछ नये, कुछ पुराने,
जाने-अनजाने पड़ाव
कभी कोई अनायास बन्द कर देता है
और कभी उन्मुक्तु हो जाते हैं सब द्वार
बस मन आश्वस्त है
कि जो भी हो
देर-सवेर
अपने ठिकाने पहुंच ही जाती है।
प्रकृति मुस्काती है
मधुर शब्द
पहली बरसात की
मीठी फुहारों-से होते हैं
मानों हल्के-फुल्के छींटे,
अंजुरियों में
भरती-झरती बूंदें
चेहरे पर रुकती-बहतीं,
पत्तों को रुक-रुक छूतीं
फूलों पर खेलती,
धरा पर भागती-दौड़ती
यहां-वहां मस्ती से झूमती
प्रकृति मुस्काती है
मन आह्लादित होता है।
ले जीवन का आनन्द
सपनों की सीढ़ी तानी
चलें गगन की ओर
लहराती बदरियां
सागर की लहरियां
चंदा की चांदनी
करती उच्छृंखल मन।
लरजती डालियों से
झांकती हैं रोशनियां
कहती हैं
ले जीवन का आनन्द।
पुतले बनकर रह गये हैं हम
हां , जी हां
पुतले बनकर रह गये हैं हम।
मतदाता तो कभी थे ही नहीं,
कल भी कठपुतलियां थे
आज भी हैं
और शायद कल भी रहेंगे।
कौन नचा रहा है
और कौन भुना रहा है
सब जानते हैं।
स्वार्थान्धता की कोई सीमा नहीं।
बुद्धि कुण्ठित हो चुकी है
जिह्वा को लकवा मार गया है
और श्रवण-शक्ति क्षीण हो चुकी है।
फिर भी आरोप-प्रत्यारोप की एक
लम्बी सूची है
और यहां जिह्वा खूब चलती है।
किन्तु जब
निर्णय की बात आती है
तब हम कठपुतलियां ही ठीक हैं।
ससम्मान बात करनी पड़ती है
पता नहीं वह धोबी कहां है
जिस पर यह मुहावरा बना था
घर का न घाट का।
वैसे इस मुहावरे में
दो जीव भी हुआ करते थे।
जब से समझ आई है
यही सुना है
कि धोबी के गधे हुआ करते थे
जिन पर वे
अपनी गठरियां ठोते थे।
किन्तु मुहावरे से
गर्दभ जी तो गायब हैं
हमारी जिह्वा पर
श्वान महोदय रह गये।
और आगे सुनिये मेरा दर्शन।
धोबी के दर्शन तो
कभी-कभार
अब भी हो जाते हैं
किन्तु गर्दभ और श्वान
दोनों ही
अपने-अपने
अलग दल बनाकर
उंचाईयां छू रहे हैं।
इसीलिए जी का प्रयोग किया है
ससम्मान बात करनी पड़ती है।
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं
इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है
******-*********
सुनते हैं
अक्ल घास चरने गई है
मति मारी गई है
और समझ भ्रष्ट हो गई है
विवेक-अविवेक का अन्तर
भूल गये हैं
और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा
हमारे ऋषि-मुनियों की
धरोहर हुआ करती थीं
जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये
अपनी धरोहर को।
बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये
और हम
यूं ही
कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।
प्रेम-सम्बन्ध
दो क्षणिकाएं
******-******
प्रेम-सम्बन्ध
कदम बहके
चेहरा खिले
यूं ही मुस्काये
होंठों पर चुप्पी
पर आंखें
कहां मानें
सब कह डालें।
*-*
प्रेम-सम्बन्ध
मानों बहता दरिया
शीतल समीर
बहकते फूल
खिलता पराग
ठण्डी छांव
आकाश से
बरसते तुषार।
क्षमा-मंत्र
कोई मांगने ही नहीं आता
हम तो
क्षमाओं का पिटारा लिए
कब से खड़े हैं।
सबकी ग़लतियां तलाश रहे हैं
भरने के लिए
टोकरा उठाये घूम रहे हैं।
आपको बता दें
हम तो दूध के धुले हैं,
महान हैं, श्रेष्ठ हैं,
सर्वश्रेष्ठ हैं,
और इनके
जितने पर्यायवाची हैं
सब हैं।
और समझिए
कितने दानी , महादानी हैं,
क्षमाओं का पिटारा लिए घूम रहे हैं,
कोई तो ले ले, ले ले, ले ले।
वृक्षों के लिए जगह नहीं
अट्टालिकाओं की दीवारों से
लटकती है
मंहगी हरियाली।
घरों के भीतर
बैठै हैं बोनसाई।
वन-कानन
कहीं दूर खिसक गये हैं।
शहरों की मज़बूती
वृक्षों के लिए जगह नहीं दे पाती।
नदियां उफ़नने लगी हैं।
पहाड़ दरकने लगे हैं।
हरियाली की आस में
बैठा है हाथ में पौध लिए
आम आदमी,
कहां रोपूं इसे
कि अगली पीढ़ी को
ताज़ी हवा,
सुहाना परिवेश दे सकूं।
.
मैंने कहा
डर मत,
हवाओं की मशीनें आ गई हैं
लगवा लेगी अगली पीढ़ी।
तू बस अपना सोच।
यही आज की सच्चाई है
कोई माने या न माने
कितना मुश्किल होता है
कितना मुश्किल होता है
जब रोटी गोल न पकती है
दूध उफ़नकर बहता है
सब बिखरा-बिखरा रहता है।
तब बच्चा दिनभर रोता है
न खाता है न सोता है
मन उखड़ा-उखडा़ रहता है।
कितना मुश्किल होता है
जब पैसा पास न होता है
रोज़ नये तकाज़े सुनता
मन सहमा-सहमा रहता है।
तब आंखों में रातें कटती हैं
पल-भर काम न होता है
मन हारा-हारा रहता है।
कितना मुश्किल होता है,
जब वादा मिलने का करते हैं
पर कह देते हैं भूल गये,
मन तनहा-तनहा रहता है।
तब तपता है सावन में जेठ,
आंखों में सागर लहराता है
मन भीगा-भीगा रहता है ।
कितना मुश्किल होता है
जब बिजली गुल हो जाती है
रात अंधेरी घबराती है
मन डरा-डरा-सा रहता है।
तब तारे टिमटिम करते हैं
चांदी-सी रात चमकती है
मन हरषा-हरषा रहता है।
कुछ नया
मैं,
निरन्तर
टूट टूटकर,
फिर फिर जुड़ने वाली,
वह चट्टान हूं
जो जितनी बार टूटती है
जुड़ने से पहले,
उतनी ही बार
अपने भीतर
कुछ नया समेट लेती है।
मैं चाहती हूं
कि तुम मुझे
बार बार तोड़ते रहो
और मैं
फिर फिर जुड़ती रहूं।
वक्त की रफ्तार देख कर
वक्त की रफ्तार देख कर
मैंने कहा, ठहर ज़रा,
साथ चलना है मुझे तुम्हारे।
वक्त, ऐसा ठहरा
कि चलना ही भूल गया।
आज इस मोड़ पर समझ आया,
वक्त किसी के साथ नहीं चलता।
वक्त ने बहुत आवाज़ें दी थीं,
बहुत बार चेताया था मुझे,
द्वार खटखटाया था मेरा,
किन्तु न जाने
किस गुरूर में था मेरा मन,
हवा का झोंका समझ कर
उपेक्षा करती रही।
वक्त के साथ नहीं चल पाते हम।
बस हर वक्त
किसी न किसी वक्त को कोसते हैं।
एक भी
ईमानदार कोशिश नहीं करते,
अपने वक्त को,
अपने सही वक्त को पहचानने की ।
अंधेरों और रोशनियों का संगम है जीवन
भाव उमड़ते हैं,
मिटते हैं, उड़ते हैं,
चमकते हैं।
पंख फैलाती हैं
आशाएं, कामनाएं।
लेकिन, रोशनियां
धीरे-धीरे पिघलती हैं,
बूंद-बूंद गिरती हैं।
अंधेरे पसरने लगते हैं।
रोशनियां यूं तो
लुभावनी लगती हैं,
लेकिन अंधेरे में
खो जाती हैं
कितनी ही रोशनियां।
मिटती हैं, सिमटती हैं,
जाते-जाते कह जाती हैं,
अंधेरों और रोशनियों का
संगम है जीवन,
यह हम पर है
कि हम किसमें जीते हैं।
सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी
जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी
कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे
आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।
तरल-तरल भाव सी
बहकती है ज़िन्दगी
राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी
चलें हिल-मिल
कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी
किसी और से क्या लेना
जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी
आज भीग ले अन्तर्मन,
कदम-दर-कदम
मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी
राहें सूनी हैं तो क्या,
तुम साथ हो
तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
आगे बढ़ते रहें
तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी
जब प्रेम कहीं से मिलता है
अनबोले शब्दों की चोटें
भावों को ठूंठ बना जाती हैं।
कब रस-पल्लव झड़ गये
जान नहीं पाते हैं।
जब प्रेम कहीं से मिलता है,
तब मन कोमल कोंपल हो जाता है।
रूखे-रूखे भावों से आहत,
मन तरल-तरल हो जाता है।
बिखरे सम्बन्धों के तार कहीं जुड़ते हैं।
जीवन हरा-भरा हो जाता है।
मुस्काते हैं कुछ नव-पल्ल्व,
कुछ कलियां करवट लेती हैं,
जीवन इक खिली-खिली
बगिया-सा हो जाता है।
अर्थ का अनर्थ
शब्द बदल देने से
भाव बदल जाते हैं।
नाम-मात्र से
युद्धों के
परिणाम बदल जाते हैं।
बात कुंजर की थी,
नर कहा गया,
महाभारत का युद्ध पलट गया।
नाम वही है,
पर आधी बात सुनने से
कभी-कभी
अर्थ का अनर्थ हो जाता है।
गज-गामिनी,
मदमस्त चाल कहने से
कभी-कभी
व्यंग्य-कटाक्ष हो जाता है।
इसलिए
जब भी शब्द चुनो
सोच-समझकर चुनना,
कहने से पहले दो बार सोचना,
क्योंकि
मद-मस्त चलने वाला
जब भड़कता है
तब
शहर किसने देखे,
जंगल के जंगल
उजड़ जाते हैं।
शुक्र मनाईये,
ये शहर की ओर नहीं देखते,
नहीं तो हम-आप
अभयारण्य में होते।
कहां गई तुम्हारी अम्मां
छोटी-सी छतरी तानी मैंने।
दाना-चुग्गा लाउंगा,
तुमको मैं खिलाउंगा।
मां कहती है,
बारिश में भीगो न,
ठंडी लग जायेगी।
मेरी मां तो
मुझको गुस्सा करती,
कहां गई तुम्हारी अम्मां।
ऐसे कैसे बैठे हो,
अपने घर जाओ,
कम्बल मैं दे जाउंगा।
कल जब धूप खिलेगा
तब आना
साथ-साथ खेलेंगे,
मेरे घर चलना,
मां से मैं मिलवाउंगा।
चांद मानों मुस्कुराया
चांद मानों हड़बड़ाया
बादलों की धमक से।
सूरज की रोशनी मिट चुकी थी,
चांद मानों लड़खड़ाया
अंधेरे की धमक से।
लहरों में मची खलबली,
देख तरु लड़खड़ाने लगे।
जल में देख प्रतिबिम्ब,
चांद मानों मुस्कुराया
अपनी ही चमक से।
अंधेरों में भी रोशनी होती है,
चमक होती है, दमक होती है,
यह समझाया हमें चांद ने
अपनेपन से मनन से ।
हम नहीं लकीर के फ़कीर
हमें बचपन से ही
घुट्टी में पिलाई जाती हैं
कुछ बातें,
उन पर
सच-झूठ के मायने नहीं होते।
मायने होते हैं
तो बस इतने
कि बड़े-बुजुर्ग कह गये हैं
तो गलत तो हो ही नहीं सकता।
उनका अनुभूत सत्य रहा होगा
तभी तो सदियों से
कुछ मान्यताएं हैं हमारे जीवन में,
जिनका विरोध करना
संस्कृति-संस्कारों का अपमान
परम्पराओं का उपहास,
और बड़े-बुज़ुर्गों का अपमान।
आज की शिक्षित पीढ़ी
नकारती है इन परम्पराओं-आस्थाओं को।
कहती है
हम नहीं लकीर के फ़कीर।
किन्तु
नया कम्प्यूटर लेने पर
उस पर पहले तिलक करती है।
नये आफ़िस के बाहर
नींबू-मिर्च लटकाती है,
नया काम शुरु करने से पहले
उन पण्डित जी से मुहूर्त निकलवाती है
जो संस्कृत-पोथी पढ़ना भूले बैठे हैं,
फिर नारियल फोड़ती है
कार के सामने।
पूजा-पाठ अनिवार्य है,
नये घर में हवन तो करना ही होगा
चाहे सामग्री मिले या न मिले।
बिल्ली रास्ता काट जाये
तो राह बदल लेते हैं
और छींक आने पर
लौट जाते हैं
चाहे गाड़ी छूटे या नौकरी।
हाथों में ग्रहों की चार अंगूठियां,
गले में चांदी
और कलाई में काला-लाल धागा
नज़र न लगे किसी की।
लेकिन हम नहीं लकीर के फ़कीर।
ये तो हमारी परम्पराएं, संस्कृति है
और मान रखना है हमें इन सबका।
झुकना तो पड़ता ही है
कहां समय मिलता है
कमर सीधी करने का।
काम कोई भी करें,
घर हो या खलिहान,
झुकना तो पड़ता ही है,
झुककर ही
काम करना पड़ता है।
फिर धीरे-धीरे
आदत हो जाती है,
झुके रहने की।
और फिर एक समय
ऐसा आता है
कि सिर उठाकर
चलना ही भूल जाती हैं।
फिर,
कहां कभी सिर उठाकर
चल पाती हैं।
मुस्कानों की भाषा लिखूं
छलक-छलक-छलकती बूंदें,
मन में रस भरती बूंदें
लहर-लहर लहराता आंचल
मन हरषे जब घन बरसे
मुस्कानों की भाषा लिखूं
हवाओं संग उड़ान भरूं मैं
राग बजे और साज बजे
मन ही मन संगीत सजे
धारा संग बहती जाती
अपने में ही उड़ती जाती
कोई न रोके कोई न टोके
जीवन-भर ये हास सजे।
हमने न कभी डर-डर कर जीवन जिया है
प्यार क्यों किया है ?
किया है तो किया है।
प्यार किया है
तो इकरार भी किया है।
कभी रूठने
कभी मनाने का
लाड़ भी किया है।
प्यार भरी निगाहों से
छूते रहे हमें,
हमने कब
इंकार किया है।
जाने-अनजाने
हमारे चेहरे पर
खिल आई उनकी
मुस्कुराहटें,
हमने मानने से
कब इंकार किया है।
कहते हैं
लोग जानेंगे तो
चार बातें करेंगे,
हमने न कभी
डर-डर कर
जीवन जिया है।
कुछ यादें
काश !
भूल पाते
कुछ यादें, कुछ बातें
तो आज जि़न्दगी
कितनी आसान होती ।
कुछ भूलें तुमने की ।
कुछ भूलें हमने की।
कुछ की गठरी
तुमने अपनी पीठ पर बांध ली
और कुछ की मैंने ।
और विपरीत दिशा में चल दिये ।
कुछ भूलें
कुछ भूलें हमसे हुई होंगी ।
कुछ भूलें उनसे हुईं होंगीं ।
गिला हम करते नहीं,
पर इंतज़ार करते रहे
कि करेंगे वे गिला।
बड़ी जल्दी भूल जाते हैं
वे अपनी गलतियों को,
पर औरों की भूलों को
कहानी की तरह
याद रखते हैं।
ज़्यादा मत उड़
कौन सी वास्तविकता है
और कौन सा छल,
अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।
रोज़ हर रोज़
समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं
देखो हमने
नारी को
कहां से कहां पहुंचा दिया।
किसी ने चूल्हा बांटा ,
किसी ने गैस,
किसी की सब्सिडी छीनी
तो किसी की आस।
नौकरियां बांट रहे।
घर संवार रहे।
मौज करवा रहे।
स्टेटस दिलवा रहे।
कभी चांद पर खड़ी दिखी।
कभी मंच पर अड़ी दिखी।
आधुनिकता की सीढ़ी पर
आगे और आगे बढ़ी।
अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।
अंधविश्वासों ,
कुरीतियों का विरोध कर
मदमाती रही।
प्रंशसा के अंबार लगने लगे।
तुम्हारे नाम के कसीदे
बनने लगे।
साथ ही सब कहने लगे
ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं
पर तुम अड़ी रही
ज़रा भी डिगी नहीं।
-
ज़्यादा मत उड़ ।
कहीं भी हो आओ
लौटकर यहीं,
यही चूल्हा-चौका करना है।
परम्पराओं के नाम पर
घूंघट की ओट में जीना है।
और ऐसे ही मरना है।।।
फिर आ गये वे दस दिन
फिर आ गये वे दस दिन
पूजा-अर्चना ,
व्रतोपवास,
निराहार, निरामिष,
मितभाषी, पूजा-पाठी,
राम-नाम, बस मां का नाम।
कन्या-पूजन,चरण-वन्दना।
फिर तिरोहित कर देंगे जल में।
और हम मुक्त हो जायेंगे
फिर,
कंस, दुर्योधन, दुःशासन ,
रावण बनने के लिए।
खेल-कूद क्या होती है
बचपन की
यादों के झरोखे खुल गये,
कितने ही खेल खेलने में
मन ही मन जुट गये।
चलो, आपको सब याद दिलाते हैं।
खेल-कूद क्या होती है,
तुम क्या समझोगे फेसबुक बाबू।
वो चार कंचे जीतना,
बड़ा कंचा हथियाना,
स्टापू में दूसरे के काटे लगाना,
कोक-लाछी-पाकी में पीठ पर धौंस जमाना।
वो गुल्ली-डंडे में गुल्ली उड़ाना,
तेरी-मेरी उंच-नीच पर रोटियां पकाना,
लुका-छिपी में आंख खोलना।
आंख पर पट्टी बांधकर पकड़म-पकड़ाई ,
लंगड़ी टांग का आनन्द लेना।
कक्षा की पिछली सीट पर बैठकर
गिट्टियां बजाना, लट्टू घुमाना ।
कापी के आखिरी पन्ने पर
काटा-ज़ीरों बनाना,
पिट्ठू में पत्थर जमाना ।
पुरानी कापियों के पन्नों के
किश्तियां बनाना और हवाई-ज़हाज उड़ाना।
सांप-सीढ़ी के खेल में 99 से एक पर आना,
और कभी सात से 99 पर जाना।
पोशम-पा भई पोशम-पा में चोर पकड़ना।
व्यापार में ढेर-से रूपये जीतना।
विष-अमृत और रस्सी-टप्पा।
है तो और भी बहुत-कुछ।
किन्तु
खेल-कूद क्या होती है
तुम क्या समझोगे फेसबुक बाबू।
बहुत बाद समझ आया
कितनी बार ऐसा हुआ है
कि समय मेरी मुट्ठी में था
और मैं उसे दुनिया भर में
तलाश कर रही थी।
मंजिल मेरे सामने थी
और मैं बार-बार
पीछे मुड़-मुड़कर भांप रही थी।
समस्याएं बाहर थीं
और समाधान भीतर,
और मैं
आकाश-पाताल नाप रही थी।
बहुत बाद समझ आया,
कभी-कभी,
प्रयास छोड़कर
प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए,
भटकाव छोड़
थोड़ा विश्राम कर लेना चाहिए।
तलाश छोड़
विषय बदल लेना चाहिए।
जीवन की आधी समस्याएं
तो यूं ही सुलझ जायेंगीं।
बस मिलते रहिए मुझसे,
ऐसे परामर्श का
मैं कोई शुल्क नहीं लेती।