अब कांटों की बारी है

फूलों की बहुत खेती कर ली

अब कांटों की बारी है।

पत्‍ता–पत्‍ता बिखर गया

कांटों की सुन्‍दर मोहक क्‍यारी है।

न जाने कितने बीज बोये थे

रंग-बिरंगे फूलों के।

सपनों में देखा करती थी

महके महके गुलशन के रंगों के।

मिट्टी महकी, बरसात हुई

तब भी, धरा न जाने कैसे सूख गई।

नहीं जानती, क्‍योंकर

फूलों के बीजों से कांटे निकले

परख –परख कर जीवन बीता

कैसे जानूं कहां-कहां मुझसे भूल हुई। 

दोष नहीं किसी को दे सकती

अब इन्‍हें सहेजकर बैठी हूं।

वैसे भी जबसे कांटों को अपनाया

सहज भाव से जीवन में

फूलों का अनुभव दे गये

रस भर गये जीवन में।