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लीपा-पोती जितनी कर ले
रंग रूप की ऐसी तैसी
मन के भाव देख प्रेयसी
लीपा-पोती जितनी कर ले
दर्पण बोले दिखती कैसी
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कहां गये वे दिन बारिश के
कहां गये वे दिन जब बारिश की बातें होती थीं, रिमझिम फुहारों की बातें होती थीं,
मां की डांट खाकर भी, छिप-छिपकर बारिश में भीगने-खेलने की बातें होती थीं
अब तो बारिश के नाम से ही बाढ़, आपदा, भूस्खलन की बातों से मन डरता है,
कहां गये वे दिन जब बारिश में चाट-पकौड़ी खाकर, आनन्द मनाने की बातें होती थीं।
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हे घन ! कब बरसोगे
अब तो चले आओ प्रियतम कब से आस लगाये बैठे हैं।
चांद-तारे-सूरज सब चुभते हैं, आंख टिकाये बैठे हैं।
इस विचलित मन को कब राहत दोगे बतला दो,
हे घन ! कब बरसोगे, गर्मी से आहत हुए बैठे हैं ।
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बस नेह मांगती है
कोई मांग नहीं करती बस नेह मांगती है बहन।
आशीष देती, सुख मांगती, भाई के लिए बहन।
दुख-सुख में साथी, पर जीवन अधूरा लगता है,
जब भाई भाव नहीं समझता, तब रोती है बहन।
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झाड़ पर चढ़ा करता है आदमी
सुना है झाड़ पर चढ़ा करता है आदमी
देखूं ज़रा कहां-कहां पड़ा है आदमी
घास, चारा, दाना-पानी सब खा गया
देखूं अब किस जुगाड़ में लगा है आदमी
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बसन्त
आज बसन्त मुझे
कुछ उदास लगा
रंग बदलने लगे हैं।
बदलते रंगों की भी
एक सुगन्ध होती है
बदलते भावों के साथ
अन्तर्मन को
महका-महका जाती है।
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ज़िन्दगी बोझ नहीं लगती
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
ज़िन्दगी को बोझ नहीं मानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने साथ
अपने-आप जीना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने लिए जीना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपनी बात
अपने-आपसे कहना जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों से अपेक्षाएॅं नहीं करते जाते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
एक के बदले चार की
चाहत नहीं रखते हैं
प्यार की कीमत नहीं मॉंगते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों को उतना ही समझते हैं
जितना हम चाहते हैं
कि वे हमें समझें।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने-आप पर हॅंसना जानते हैं।
ज़िन्दगी तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
अपने-आप पर
हॅंसना और रोना नहीं जानते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
रो-रोकर अपने-आपको
अपनी ज़िन्दगी को
कोसते नहीं रहते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
औरों की ज़िन्दगी देख-देखकर
ईर्ष्या से मर नहीं जाते हैं।
ज़िन्दगी
तब तक बोझ नहीं लगती
जब तक हम
मन में स्वीरोक्ति का भाव नहीं लाते हैं।
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मन की भोली-भाली हूं
डील-डौल पर जाना मत
मुझसे तुम घबराना मत
मन की भोली-भाली हूं
मुझसे तुम कतराना मत
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मौन पर दो क्षणिकाएं
मौन को शब्द दूं
शब्द को अर्थ
और अर्थ को अभिव्यक्ति
न जाने राहों में
कब, कौन
समझदार मिल जाये।
*-*-*-*
मौन को
मौन ही रखना।
किन्तु
मौन न बने
कभी डर का पर्याय।
चाहे
न तोड़ना मौन को
किन्तु
मौन की अभिव्यक्ति को
सार्थक बनाये रखना।
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जब मन में कांटे उगते हैं
हमारी आदतें भी अजीब सी हैं
बस एक बार तय कर लेते हैं
तो कर लेते हैं।
नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।
वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं
किन्तु इस समय मेरी दृष्टि
इन कांटों पर है।
फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य
की तो हम बहुत चर्चा करते हैं
किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है
तो उन्हें बस फूलों के
परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।
पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं
अथवा कांटों के संग फूल।
लेकिन बात दाेनों की अक्सर
साथ साथ होती है।
बस इतना ही याद रखते हैं हम
कि कांटों से चुभन होती है।
हां, होती है कांटों से चुभन।
लेकिन कांटा भी तो
कांटे से ही निकलता है।
आैर कभी छीलकर देखा है कांटे को
भीतर से होता है रसपूर्ण।
यह कांटे की प्रवृत्ति है
कि बाहर से तीक्ष्ण है,
पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।
संजोकर देखना इन्हें,
जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।
और
जब मन में कांटे उगते हैं
तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।
जीवन रस
सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।
कोई जान न पाये इसे
इसलिए कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत
हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं
और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।