छोड़ी हमने मोह-माया
नहीं करने हमें
किसी के सपने साकार।
न देखें हमारी आयु छोटी
न समझे कोई हमारे भाव।
मां कहती
पढ़ ले, पढ़ ले।
काम कर ले ।
पिता कहते
बढ़ ले बढ़ ले।
सब लगाये बैठे
बड़ी-बड़ी आस।
ले लिया हमने
इस दुनिया से सन्यास।
छोड़ी हमने मोह-माया
हो गई हमारी कृश-काया।
हिमालय पर हम जायेंगे।
वहीं पर धूनी रमायेंगे।
आश्रम वहीं बनायेंगे।
आसन वहीं जमायेंगे।
चेले-चपाटे बनायेंगे।
सेवा खूब करायेंगे।
खीर-पूरी खाएंगें।
लौटकर घर न आयेंगे।
नाम हमारा अमर होगा,
धाम हमारा अमर होगा,
ज्ञान हमारा अमर होगा।
जीवन की नैया ऐसी भी होती है
जल इतना
विस्तारित होता है
जाना पहली बार।
अपने छूटे,
घर-वर टूटे।
लकड़ी से घर चलता था।
लकड़ी से घर बनता था।
लकड़ी से चूल्हा जलता था,
लकड़ी की चौखट के भीतर
ठहरी-ठहरी-सी थी ज़िन्दगी।
निडर भाव से जीते थे,
अपनों के दम पर जीते थे।
पर लकड़ी कब लाठी बन जाती है,
राह हमें दिखलाती है,
जाना पहली बार।
अब राहें अकेली दिखती हैं,
अब, राहें बिखरी दिखती हैं,
पानी में कहां-कहां तिरती हैं।
इस विस्तारित सूनेपन में
राहें आप बनानी है,
जीवन की नैया ऐसी भी होती है,
जाना पहली बार।
अब देखें, कब तक लाठी चलती है,
अब देखें, किसकी लाठी चलती है।
मुझको मेरी नज़रों से परखो
मन विचलित होता है।
मन आतंकित होता है।
भूख मरती है।
दीवारें रिसती हैं।
न भावुक होता है।
न रोता है।
आग जलती भी है।
आग बुझती भी है।
कब तक दर्शाओगे
मुझको ऐसे।
कब तक बहाओगे
घड़ियाली आंसू।
बेचारी, अबला, निरीह
कहकर
कब तक मुझ पर
दया दिखलाओगे।
मां मां मां मां कहकर
कब तक
झूठे भाव जताओगे।
बदल गई है दुनिया सारी,
बदल गये हो तुम।
प्यार, नेह, त्याग का अर्थ
पिछड़ापन,
थोथी भावुकता नहीं होता।
यथार्थ, की पटरी पर
चाहे मिले कुछ कटुता,
या फिर कुछ अनचाहापन,
मुझको, मेरी नज़रों से देखो,
मुझको मेरी नज़रों से परखो,
तुम बदले हो
मुझको भी बदली नज़रों से देखो।
यादों के पृष्ठ सिलती रही
ज़िन्दगी,
मेरे लिए
यादों के पृष्ठ लिखती रही।
और मैं उन्हें
सबसे छुपाकर,
एक धागे में सिलती रही।
कुछ अनुभव थे,
कुछ उपदेश,
कुछ दिशा-निर्देश,
सालों का हिसाब-बेहिसाब,
कभी पढ़ती,
कभी बिखरती रही।
समय की आंधियों में
लिखावट मिट गई,
पृष्ठ जर्जर हुए,
यादें मिट गईं।
तब कहीं जाकर
मेरी ज़िन्दगी शुरू हुई।
ज़िन्दगी कहीं सस्ती तो नहीं
बहुत कही जाती है एक बात
कि जब
रिश्तों में गांठें पड़ती हैं,
नहीं आसान होता
उन्हें खोलना, सुलझाना।
कुछ न कुछ निशान तो
छोड़ ही जाती हैं।
लेकिन सच कहूं
मुझे अक्सर लगता है,
जीवन में
कुछ बातों में
गांठ बांधना भी
ज़रूरी होता है।
टूटी डोर को भी
हम यूं ही नहीं जाने देते
गांठे मार-मारकर
सम्हालते हैं,
जब तक सम्हल सके।
ज़िन्दगी कहीं
उससे सस्ती तो नहीं,
फिर क्यों नहीं कोशिश करते,
यहां भी कभी-कभार,
या बार-बार।
छोटी रोशनियां सदैव आकाश बड़ा देती हैं
छोटी-सी है अर्चना,
छोटा-सा है भाव।
छोटी-सी है रोशनी।
अर्पित हैं कुछ फूल।
नेह-घृत का दीप समर्पित,
अपनी छाया को निहारे।
तिरते-तिरते जल में
भावों का गहरा सागर।
हाथ जोड़े, आंख मूंदे,
क्या खोया, क्या पाया,
कौन जाने।
छोटी रोशनियां
सदैव आकाश बड़ा देती हैं,
हवाओं से जूझकर
आभास बड़ा देती हैं।
सहज-सहज
जीवन का भास बड़ा देती हैं।
जिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल
आज ग़ज़ल लिखने के लिए एक मिसरा मिला
*******************
जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम।
*******************
अब हम गज़ल तो लिखते नहीं
तो कौन कहता है कि मिसरे पर छन्दमुक्त रचना नहीं लिखी जा सकती
लीजिए एक नई विधा छन्दमुक्त ग़ज़ल
*******************
जाम नजरों से मुझको पिलाओ न तुम।
कुछ बढ़िया से कट ग्लास लेकर आओ तुम।
अब तो लाॅक डाउन भी खुल गया,
गिलास न होने के
बहाने न बनाओ तुम।
‘गर जाम नज़रों से पिलाओगे,
तो आंख से आंख कैसे मिलाओगे तुम।
किसी को टेढ़ी नज़र से देखने
का मज़ा कैसे पाओगे तुम।
आंखों में आंखें डालकर
बात करने का मज़ा ही अलग है,
उसे कैसे छीन पाओगे तुम।
नज़रें फे़रकर कभी निकलेंगे
तो आंख से मोती कैसे लुढ़काओगे तुम।
कभी आंख झुकाओगे,
कभी आंख ही आंख में शरमाओगे,
कभी आंख बन्द कर,
कैसे फिर सपनों में आओगे तुम।
और कहीं नशेमन में आंख मूंद ली
तो आंसुओं की जगह
बह रहे सोमरस को दुनिया से
कैसे छुपाओगे तुम।
मन बहक-बहक जाये
इन फूलों को देखकर
अकारण ही मन मुस्काए।
न जाने
किस की याद आये।
तब, यहां
गुनगुनाती थी चिड़ियां।
तितलियां पास आकर पूछती थीं,
क्यों मन ही मन शरमाये।
उलझी-उलझी सी डालियां,
मानों गलबहियां डाले,
फूलों की ओट में छुप जायें।
हवाओं का रूख भी
अजीब हुआ करता था,
फूलों संग लाड़ करती
शरारती-सी
महक-महक जाये।
खिली-खिली-सी धूप,
बादलों संग करती अठखेलियां,
न जाने क्या कह जाये।
झरते फूलों को
अंजुरि में समेट
मन बहक-बहक जाये।
कृष्ण एक अवतार बचा है ले लो
अपने जन्मदिवस पर,
आनन्द पूर्वक,
परिवार के साथ,
आनन्दमय वातावरण में,
आनन्द मना रही थी।
पता नहीं कहां से
कृष्ण जी पधारे,
बोले, परसों मेरा भी जन्मदिन था।
करोड़ों लोगों ने मनाया।
मैं बोली
तो मेरे पास क्या करने आये हो?
मैंने तो नहीं मनाया।
बोले,
इसी लिए तो तुम्हें ही
अपना आशीष देने आया हूं,
बोले] जुग-जुग जीओ बेटा।
पहले तो मैंने उन्हें डांट दिया,
अपना उच्चारण तो ठीक करो,
जुग नहीं होता, युग होता है।
इससे पहले कि वह
डर कर चले जाते,
मैंने रोक लिया और पूछा,
हे कृष्ण! यह तो बताओ
कौन से युग में जीउं ?
मेरे इस प्रश्न पर कृष्ण जी
तांक-झांक करने लगे।
मैंने कहा, केक खाओ,
और मेरे प्रश्न सुलझाओ।
हर युग में आये तुम।
हर युग में छाये तुम।
पर मेरी समझ कुछ छोटी है
बुद्धि ज़रा मोटी है।
कुछ समझाओ मुझे तुम।
पढ़ा है मैंने
24 अवतार लिए तुमने।
कहते हैं
सतयुग सबसे अच्छा था,
फिर भी पांच अवतार लिये तुमने।
दुष्टों का संहार किया
अच्छों को वरदान दिया।
त्रेता युग में तीन रूप लिये
और द्वापर में अकेले ही चले आये।
कहते हैं,
यह कलियुग है,
घोर पाप-अपराध का युग है।
मुझे क्या लेना
किस युग में तुमने क्या किया।
किसे दण्ड दिया,
और किसे अपराध मुक्त किया।
एक अवतार बचा है
ले लो, ले लो,
नयी दुनिया देखो
इस युग में जीओ,
केक खाओ और मौज करो।
जीवन आशा प्रत्याशा या निराशा
हमारे बड़े-बुज़ुर्ग
सुनाया करते थे कहानियां,
चेचक, हैज़ा,
मलेरिया, डायरिया की,
जब महामारी फैलती थी,
तो सैंकड़ों नहीं
हज़ारों प्राण लेकर जाती थी।
गांव-गांव, शहर-शहर
लील जाती थी।
सूने हो जाते थे घर।
संक्रामक माना जाता था
इन रोगों को,
अलग कोठरी में
डाल दिया जाता था रोगी को,
और वहीं मर जाता था,
या कभी भाग्य अच्छा रहे,
तो बच भी जाया करता था।
और एक समय बाद
सन्नाटे को चीरता,
आप ही गायब हो जाता था रोग।
देसी दवाएं, हकीम, वैद्य
घरेलू काढ़े, हवन-पूजा,
बस यही थे रोग प्रतिरोधक उपाय।
और आज,
क्या वही दिन लौट आये हैं?
किसी और नाम से।
विज्ञान के चरम पर बैठे,
पर फिर भी हम बेबस,
हाथ बांधे।
उपाय तो बस दूरियां हैं
अपनों से अपनी मज़बूरियां हैं।
काल काल बनकर खड़ा है,
उपाय न कोई बड़ा है।
रोगी को अलग कर,
हाथ बांधे बस प्रतीक्षा में
बचेगा या पता नहीं मरेगा।
निर्मम, निर्मोही
जीवन-आशा,
जीवन-प्रत्याशा
या जीवन-निराशा ?
कहां गये वे दिन बारिश के
कहां गये वे दिन जब बारिश की बातें होती थीं, रिमझिम फुहारों की बातें होती थीं,
मां की डांट खाकर भी, छिप-छिपकर बारिश में भीगने-खेलने की बातें होती थीं
अब तो बारिश के नाम से ही बाढ़, आपदा, भूस्खलन की बातों से मन डरता है,
कहां गये वे दिन जब बारिश में चाट-पकौड़ी खाकर, आनन्द मनाने की बातें होती थीं।
औरत
अपने आस-पास
नित नये-नये रंगों को,
घिरते-बिखरते अंघेरों को
देखते-देखते,
अक्सर मेरी मुट्ठियां
भिंच जाया करती हैं
पर कैसी विडम्बना है यह
कि मैं चुपचाप
सिर झुकाकर
उन कसी मुट्ठियों से
आटा गूंथने लग जाती हूं
और इसे ही
अपनी सफ़लता मान लेती हूं।
एक वृक्ष बरगद का सपना
मेरे आस-पास
एक बंजर है - रेगिस्तान।
मैंने अक्सर बीज बोये हैं।
पर वर्षा नहीं होती।
पर पानी के बिना भी
पता नहीं
कहां से नमी पाकर
अक्सर
हरी-हरी, विनम्र, कोमल-सी
कांेपल उग आया करती है
एक वृक्ष बरगद का सपना लेकर।
लेकिन वज्रपात !
इस बेमौसम
ओलावृष्टि का क्या करूं
जो सब-कुछ
छिन्न-भिन्न कर देती है।
पर मैं
चुप बैठने वाली नहीं हूं।
निरन्तर बीज बोये जा रही हूं।
यह निमन्त्रण है।
अवसर है अकेलापन अपनी तलाश का
एक सपने में जीती हूं,
अंधेरे में रोशनी ढूंढती हूं।
बहारों की आस में,
कुछ पुष्प लिए हाथ में,
दिन-रात को भूलती हूं।
काल-चक्र घूमता है,
मुझसे कुछ पूछता है,
मैं कहां समझ पाती हूं।
कुछ पाने की आस में
बढ़ती जाती हूं।
गगन-धरा पुकारते हैं,
कहते हैं
चलते जाना, चलते जाना
जीवन-गति कभी ठहर न पाये,
चंदा-सूरज से सीख लेना
तारों-सा टिमटिमाना,
अवसर है अकेलापन
अपनी तलाश का ,
अपने को पहचानने का,
अपने-आप में
अपने लिए जीने का।
यहां रंगीनियां सजती हैं
दीवारों पर
उकेरित ये कृतियां
भाव अनमोल।
नेह, अपनत्व, संस्कारों का
न लगा सके कोई मोल।
घर की रंगीनियां,
खुशियां यहां बरसती हैं,
सबके हित की कामना
यहां करती हैं।
प्रतिदिन यहां
रंगीनियां सजती हैं,
पर्वों पर हर बार
जीवन में नये रंग भरती हैं।
किन्तु
जब समय चलता है
तो जीवन में बहुत कुछ बदलता है।
नहीं कहते कि ठीक है या नहीं,
किन्तु
रह गई अब स्मृतियां अशेष,
नवरंगों से सजी दीवारों पर
अब ये कृतियां
किन्हीं मूल्यवान
बंधन में बंधी दीवारों पर लटकती हैं।
स्मृतियां यूं ही भटकती हैं।
जब तक जीवन है मस्ती से जिये जाते हैं
कितना अद्भुत है यह गंगा में पाप धोने, डुबकी लगाने जाते हैं।
कितना अद्भुत है यह मृत्योपरान्त वहीं राख बनकर बह जाते हैं।
कितने सत्कर्म किये, कितने दुष्कर्म, कहां कर पाता गणना कोई।
पाप-पुण्य की चिन्ता छोड़, जब तक जीवन है, मस्ती से जिये जाते हैं।
ज़िन्दगी आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती
नयनों पर परदे पड़े हैं
आंसुओं पर ताले लगे हैं
मुंह पर मुखौट बंधे हैं।
बोलना मना है,
आंख खोलना मना है,
देखना और बताना मना है।
इसलिए मस्तिष्क में बीज बोकर रख।
दिल में आस जगाकर रख।
आंसुओं को आग में तपाकर रख।
औरों के मुखौटे उतार,
अपनी धार साधकर रख।
ज़िन्दगी आंख मूंदकर,
जिह्वा दबाकर,
आंसुओं के सैलाब में नहीं बीतती,
बस इतना याद रख।
पंखों की उड़ान परख
पंखों की उड़ान परख
गगन परख, धरा निरख ।
तुझको उड़ना सिखलाती हूं,
आशाओं के गगन से
मिलवाना चाहती हूं,
साहस देती हूं,
राहें दिखलाती हूं।
जीवन में रोशनी
रंगीनियां दिखलाती हूं।
पर याद रहे,
किसी दिन
अनायास ही
एक उछाल देकर
हट जाउंगी
तेरी राहों से।
फिर अपनी राहें
आप तलाशना,
जीवन भर की उड़ान के लिए।
लौटाकर खड़ा कर दिया शून्य पर
अभिमान
अपनी सफ़लता पर।
नशा
उपलब्धियों का।
मस्ती से जीते जीवन।
उन्माद
अपने सामने सब हेठे।
घमण्ड ने
एक दिन लौटाकर
खड़ाकर दिया
शून्य पर।
लौटा दो मेरे बीते दिन
अब पानी में लहरें
हिलोरें नहीं लेतीं,
एक अजीब-सा
ठहराव दिखता है,
चंचलता मानों प्रश्न करती है,
किश्तियां ठहरी-ठहरी-सी
उदास
किसी प्रिय की आस में।
पर्वत सूने,
ताकते आकाश ,
न सफ़ेदी चमकती है
न हरियाली दमकती हैं।
फूल मुस्कुराते नहीं
भंवरे गुनगुनाते नहीं,
तितलियां
पराग चुनने से डरने लगी हैं।
केसर महकता नहीं,
चिड़िया चहकती नहीं,
इन सबकी यादें
कहीं पीछे छूटने लगी हैं।
जल में चांद का रूप
नहीं निखरता,
सौन्दर्य की तलाश में
आस बिखरने लगी है।
बस दूरियां ही दूरियां,
मन निराश करती हैं।
लौटा दो
मेरे बीते दिन।
ठहरी ठहरी सी लगती है ज़िन्दगी
अब तो
ठहरी-ठहरी-सी
लगती है ज़िन्दगी।
दीवारों के भीतर
सिमटी-सिमटी-सी
लगती है ज़िन्दगी।
द्वार पर पहरे लगे हैं,
मन पर गहरे लगे हैं,
न कोई चोट है कहीं,
न घाव रिसता है,
रक्त के थक्के जमने लगे हैं।
भाव सिमटने लगे हैं,
अभिव्यक्ति के रूप
बदलने लगे हैं।
इच्छाओं पर ताले लगने लगे हैं।
सत्य से मन डरने लगा है,
झूठ के ध्वज फ़हराने लगे हैं।
न करना शिकायत किसी की
न बताना कभी मन के भेद,
लोग बस
तमाशा बनाने में लगे हैं।
न ग्रहण है न अमावस्या,
तब भी जीवन में
अंधेरे गहराने लगे हैं।
जीतने वालों को न पूछता कोई
हारने वालों के नाम
सुर्खियों में चमकने लगे हैं।
अनजाने डर और खौफ़ में जीते
अपने भी अब
पराये-से लगने लगे हैं।
खास नहीं आम ही होता है आदमी
खास कहां होता है आदमी
आम ही होता है आदमी।
जो आम नहीं होता
वह नहीं होता है आदमी।
वह होता है
कोई बड़ा पद,
कोई उंची कुर्सी,
कोई नाम,
मीडिया में चमकता,
अखबारों में दमकता,
करोड़ों में खेलता,
किसी सौदे में उलझा,
कहीं झंडे गाढ़ता,
लम्बी-लम्बी हांकता
विमान से नीचे झांकता
योजनाओं पर रोटियां सेंकता,
कुर्सियों की
अदला-बदली का खेल खेलता,
अक्सर पूछता है
कहां रहता है आम आदमी,
कैसा दिखता है आम आदमी।
क्यों राहों में आता है आम आदमी।
चंचल हैं सागर की लहरें
चंचल हैं सागर की लहरें।
कुछ कहना चाहती हैं।
किनारे तक आती हैं,
किन्तु नहीं मिलता किनारा,
लौट जाती हैं,
अपने-आपमें,
कभी बिखर कर,
कभी सिमट कर।
सागर का मन
पूर्णिमा के चांद को देख
चंचल हो उठता है
सागर का मन,
उत्ताल तरंगें
उमड़ती हैं
उसके मन में,
वैसे ही सीमा-विहीन है
सागर का मन।
ऐसे में
और बिखर-बिखर जाता है,
कौन समझा है यहां।
मन के पिंजरे खोल रे मनवा
मन विहग!
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
कुछ तो टूटेगा,
कुछ तो बिखरेगा,
कुछ तो बदलेगा।
गगन विशाल,
उड़ान बड़ी है,
पंख मिले छोटे,
कुछ कतरे गये।
कुछ टूटे,
कुछ बिखर गये।
चाहत न छोड़,
मन को न मोड़,
उड़ान भर,
आज नहीं तो कल,
कल नहीं तो कभी,
या फिर अभी
चाहतों को जोड़,
मन को न मोड़।
उड़ान भर।
न डर, बस
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
कवियत्रियों की मारक पुकार
आज मेरा मन गद्गद् है। मेरा मन कभी भी इतनी देशीय, देश-भक्त नहीं हुआ जितना कल रात हुआ।
रात के 11 बजे यह हादसा हुआ।
अब कोई मुझसे पूछे कि इतनी रात मैं फ़ेसबुक पर क्या कर रही थी।
वही कर रही थी जो आप सब करते हैं। किन्तु आजकल किसी भी समय फ़ेसबुक पर जाईये आॅन लाईन काव्य पाठ सुनने को मिल जायेगा और जब मिलेगा तो सुनना भी चाहिए, इस आशा में कि शायद कभी मुझे भी इस मंच से काव्य पाठ का अवसर मिल जाये, इसी आशा में सुनना पड़ता है।
अब सीधे-सीधे मुद्दे की बात करती हूं।
रात्रि 11 बजे एक महान कवियत्री आॅन लाइन काव्य पाठ के माध्यम से चीन को सीधे-सीधे चेतावनी दे रही थी, ललकार रही थी, पुकार रही थी, चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी, अरे बाहर निकल, तुझे तो मैं देख लूंगी। उनकी हुंकार से बड़े-बड़े डर जाते, चीन की तो बात ही क्या। तू बाहर निकल कर तो दिखा, इधर नज़र उठाकर तो दिखा। इस देश की अनेक वीरांगनाओं को भी उन्होंने निमन्त्रण दिया। मुझे पहली बार ज्ञात हुआ कि मेरा देश इतनी वीरांगनाओं से प्लावित और ग्रसित है। मेरा तो ज्ञान ही अल्प मात्रा में है, मुझे तो बस एक झांसी की रानी का ही नाम स्मरण था, किन्तु उनका ज्ञान अद्भुत था। वे तो पता नहीं कितनी ही वीरांगनाओं को बुलाकर मंच पर ले आईं। यहां तक कि पद्मिनी जिसने जौहर किया था, उसे भी तलवार के साथ बुला लिया और पांच सौ और महिलाओं को भी आग से बाहर निकाल कर अपने साथ सेना बना ली, आओ, चीन वालो, तुम्हें तो हम ही देख लेंगे। अब रात्रि 11 बजे का समय था, मुझे डर लगने लगा , नींद के झोंके भी थे। किन्तु बीच-बीच में मुझे द्रौपदी, कुंती, राधा, मीरा, उर्वशी तक के भी नाम सुनाई दिये। मैंने जल्दी से पी सी बन्द किया, एक चादर ली और मुंह ढककर सोने का प्रयास करने लगी, कि कवियत्री महोदया ने आॅन-लाईन में मेरा नाम पढ़ लिया होगा, कहीं मुझे न पुकार ले। इस महोदया को तीन लोग सुन रहे थे, जिनमें एक मैं थी।
किन्तु जाने से पहले एक और बात बताना चाहूंगी कि मैंने सुना है कि इधर सीमाओं पर कवियत्रियों की नियुक्ति की जाने वाली है, कवि सम्मेलन आयोजित किये जाने की बात चल रही है, वे सीमाओं पर अपनी ओजपूर्ण, दहाड़पूर्ण, ललकारपूर्ण, हुंकारपूर्ण कविताएं सुनाएंगी, वे भी गा-गाकर, चीनी सेना तो यूं ही भाग लेगी।
सोचती हूं कुछ दिन के लिए कविताएं लिखना बन्द कर दूं।
दिखाने को अक्सर मन हंसता है
चोट कहां लगी थी,
कब लगी थी,
कौन बतलाए किसको।
दिल छोटा-सा है
पर दर्द बड़ा है,
कौन बतलाए किसको।
गिरता है बार-बार,
और बार-बार सम्हलता है।
बहते रक्त को देखकर
दिखाने को अक्सर मन हंसता है।
मन की बात कह ले पगले,
कौन समझाए उसको।
न डर कि कोई हंसेगा,
या साथ न देगा कोई।
ऐसे ही दुनिया चलती है,
जीवन ऐसे ही चलता है,
कौन समझाए उसको।
आंसू भीतर-भीतर तिरते हैं,
आंखों में मोती बनते हैं,
तिनका अटका है आंख में,
कहकर,
दिखाने को अक्सर मन हंसता है।
कहां समझ पाता है कोई
न आकाश की समझ
न धरा की,
अक्सर नहीं दिखाई देता
किनारा कोई।
हर साल,बार-बार,
जिन्दगी यूं भी तिरती है,
कहां समझ पाता है कोई।
सुना है दुनिया बहुत बड़ी है,
देखते हैं, पानी पर रेंगती
हमारी इस दुनिया को,
कहां मिल पाता है किनारा कोई।
सुना है,
आकाश से निहारते हैं हमें,
अट्टालिकाओं से जांचते हैं
इस जल- प्रलय को।
जब पानी उतर जाता है
तब बताता है कोई।
विमानों में उड़ते
देख लेते हैं गहराई तक
कितने डूबे, कितने तिर रहे,
फिर वहीं से घोषणाएं करते हैं
नहीं मरेगा
भूखा या डूबकर कोई।
पानी में रहकर
तरसते हैं दो घूंट पानी के लिए,
कब तक
हमारा तमाशा बनाएगा हर कोई।
अब न दिखाना किसी घर का सपना,
न फेंकना आकाश से
रोटियों के टुकड़े,
जी रहे हैं, अपने हाल में
आप ही जी लेंगे हम
न दिखाना अब
दया हम पर आप में से कोई।
अपनी कमज़ोरियों को बिखेरना मत
ज़रा सम्हलकर रहना,
अपनी पकड़ बनाकर रखना।
मन की सीमाओं पर
प्रहरी बिठाकर रखना।
मुट्ठियां बांधकर रखना।
भौंहें तानकर रखना।
अपनी कमज़ोरियों को
मंच पर
बिखेरकर मत रखना।
मित्र हो या शत्रु
नहीं पहचान पाते,
जब तक
ठोकर नहीं लगती।
फिर आंसू मत बहाना,
कि किसी ने धोखा दिया,
या किया विश्वासघात।
तितली को तितली मिली
तितली को तितली मिली,
मुस्कुराहट खिली।
कुछ गीत गुनगुनाएं,
कुछ हंसे, कुछ मुस्कुराएं,
कहीं फूल खिले,
कहीं शाम हंसाए,
रोशनी की चमक,
रंगों की दमक,
हवाओं की लहक,
फूलों की महक,
मन को रिझाए।
सुन्दर है,
सुहानी है ज़िन्दगी।
बस यूं ही खुशनुमा
बितानी है ज़िन्दगी।