मन की बगिया महक रही देखो मैं बहक रही
फुलवारी में फूल खिले हैं मन की बगिया भी महक रही
पेड़ों पर बूर पड़े,कलियों ने करवट ली,देखो महक रहीं
तितली ने पंख पसारे,फूलों से देखो तो गुपचुप बात हुई
अन्तर्मन में चाहत की हूक उठी, देखो तो मैं बहक रही
आई आंधी टूटे पल्लव पल भर में सब अनजाने
जीवन बीत गया बुनने में रिश्तों के ताने बाने।
दिल बहला था सबके सब हैं अपने जाने पहचाने।
पलट गए कब सारे पन्ने और मिट गए सारे लेख
आई आंधी, टूटे पल्लव,पल भर में सब अनजाने !!
गलती से मिस्टेक हो गई
जब फ़ेसबुक पर नया-नया खाता खोला तब बड़ा शौक था तरह तरह की फ़ोटो पोस्ट करने का। गूगल से उठाये गये सूक्ति वाक्य, कोई चित्र आदि। बड़ा आनन्द आता था। जब भी कोई मैत्री संदेश मिलता, मन यूं खिल उठता जैसे पता नहीं कौन-सी निधि मिल गई। निधि की वास्तविकता का तो तब पता लगता जब महोदय अथवा महोदया संदेश बाक्स में आकर अपने मन की बातें कहने लगते और हम ब्लाॅक की ओर भागते। किन्तु एक बार की लत कहां छूटती है। लग गई तो लग गई।
फिर मिले कुछ साहित्यिक मंच। और हम लगे कविताएं लिखने। यहां तक तो ठीक था किन्तु जब कविताएं लिख रहे हैं तो सराहनात्मक प्रतिक्रियाएं भी आने लगीं और हम भी औरों की रचनाओं पर प्रतिक्रियाएं लिखने लगे।
आप कहेंगे इसमें नया क्या, सबके साथ ही ऐसा ही तो हुआ होगा।
किन्तु हमारे साथ कुछ अलग और नया हुआ।
हमें अपने हिन्दी टंकण बड़ा गुरूर था। 1970 से रैमिंगटन टाईपराईटर पर सीखी हिन्दी टाईपिंग अब तक जीवन्त थी अंगुलियों में, और कम्प्यूटर के अंग्रेज़ी के की बोर्ड पर आराम से हिन्दी टाईपिंग कर लेते थे।
किन्तु हुआ यूं कि हमारे हिन्दी फॅ़ांट ने हमें दे दिया धोखा। सीधे टंकण हो नहीं पा रहा था, इसलिए हम आ गये काॅपी-पेस्ट पर। अब काॅपी-पेस्ट तो आप सब जानते ही हैं। इधर से उठाया, उधर लगा दिया, उधर से उठाया इधर लगा दिया। वल्र्ड की फ़ाईल में लिखा, कन्वर्टर में पेस्ट किया, और फिर उठा कर फ़ेसबुक पर पेस्ट। किन्तु पेस्ट करते समय बहुत बार धोखा भी होता है और देखिए ऐसे ही धोखे जो मेरे साथ हुए।
बस, यहीं हम उलझे।
मैंने लिखा ‘‘मेरी रचना की आत्मीय सराहना के लिए आपका आभार। ’’
किन्तु काॅपी-पेस्ट में रह गया ‘‘मरी रचना के लिए’’
एक बार लिखा ‘‘रचना पर आपकी प्रतिक्रिया’’
बाद में देखा तो पेस्ट था ‘‘ चना पर आपकी प्रतिक्रिया’’
एक बार प्रतिक्रिया की ‘‘ आपकी रचना से मन आनन्दित हुआ’’
और काॅपी -पेस्ट हो गया ‘‘ पकी रचना से मन आनन्दित हुआ ’’
लिखा मैंने ‘‘ आभार , नमन’’, पेस्ट हुआ: ‘‘ भार, नमन’’
मैंने लिखा ‘‘ आपका हार्दिक आभार’’ पेस्ट हुआ ‘‘ पका हार्दिक आभार’’
स्वभाव में तो हडबडी है एक बार लिखना था Hello Sir लिख दिया Hell Sir
यदि कभी आप सभी मित्रों को मेरी ऐसी प्रतिक्रियाएं मिलें तो कृपया पहला अक्षर जोड़ लीजिएगा।
जीवन में यह उलट-पलट होती है
बहुत छोटी हूं मैं
कुछ समझने के लिए।
पर
इतनी छोटी भी तो नहीं
कि कुछ भी समझ न आये।
मेरे आस-पास लोग कहते हैं
हर औरत मां होती है
बहन होती है,पत्नी होती है
बेटी और सखा होती है।
फिर मुझे देखकर कहते हैं
देखो,कष्टों में भी मुस्कुरा लेती है
ममतामयी, देवी है देवी।
मुझे नहीं पता
औरत क्या, मां क्या,
बेटी क्या, बहन क्या, देवी क्या
और ममता क्या होती है।
मुझे नहीं पता
मेरी गोद यह में कौन है
बेटा है, भाई है
पति है, या कोई और।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
लोग कहते हैं, देखो
भाई की देख-भाल करती है।
बड़ा होकर यही तो है
इसकी रक्षा करेगा
राखी बंधवायेगा, हाथ पीले करेगा,
अपने घर भेजेगा।
कोई समझायेगा मुझे
जीवन में यह उलट-पलट कैसे होती है।
बहुत सी बातें
नहीं समझ पाती हूं
और जो समझ जाती हूं
वह भी कहां समझ पाती हूं।
रोज़ की ही कहानी है
जब जब कोई घटना घटती है,
हमारी क्रोधाग्नि जगती है।
हमारी कलम
एक नये विषय को पाकर
लिखने के लिए
उतावली होने लगती है।
समाचारों से हम
रचनाएं रचाते हैं।
आंसू शब्द तो सम्मानजनक है,
लिखना चाहिए
टसुए बहाते हैं।
दर्द बिखेरते हैं।
आधी-अधूरी जानकारियों को
राजनीतिज्ञों की तरह
भुनाते हैं।
वे ही चुने शब्द
वे ही मुहावरे
देवी-देवताओं का आख्यान
नारी की महानता का गुणगान।
नारी की बेचारगी,
या फिर
उसकी शक्तियों का आख्यान।
पूछती हूं आप सबसे,
कभी अपने आस-पास देखा है,
एक नज़र,
कितना करते हैं हम नारी का सम्मान।
कितना दिया है उसे खुला आसमान।
उसकी वाणी की धार को तराशते हैं,
उसकी आन-बान-शान को संवारते हैं,
या फिर
ऐसे किस्सों से बाहर निकलने के बाद
कुछ अच्छे उपहासात्मक
चुटकुले लिख डालते हैं।
आपसे क्या कहूं,
मैं भी शायद
यहीं कहीं खड़ी हूं।
चलो, आज बेभाव अपनापन बांटते हैं
किसी की प्यास बुझा सकें तो क्या बात है।
किसी को बस यूं ही अपना बना सकें तो क्या बात है।
जब रह रह कर मन उदास होता है,
तब बिना वजह खिलखिला सकें तो क्या बात है।
चलो आज उड़ती चिड़िया के पंख गिने,
जो काम कोई न कर सकता हो,
वही आज कर लें तो क्या बात है।
चलो, आज बेभाव अपनापन बांटते हैं,
किसी अपने को सच में अपना बना सकें तो क्या बात है।
नारी स्वाधीनता की बात
मैं अक्सर
नारी स्वाधीनता की
बहुत बात करती हूँ।
रूढ़ियों के विरुद्ध
बहुत आलेख लिखती हूँ।
पर अक्सर
यह भी सोचती हूँ
कि समाज और जीवन की
सच्चाई से
हम मुँह तो मोड़ नहीं सकते।
जीवन तो जीवन है
उसकी धार के विपरीत
तो जा नहीं सकते।
वैवाहिक संस्था को हम
नकार तो नहीं सकते।
मानती हूँ मैं
कि नारी-हित में
शिक्षा से बड़ी कोई बात नहीं।
किन्तु परिवार को हम
बेड़ियाँ क्यों मानने लगे हैं
रिश्तों में हम
जकड़न क्यों महसूस करने लगे हैं।
पर्व-त्यौहार
क्यों हमें चुभने लगे हैं,
रीति-रिवाज़ों से क्यों हम
कतराने लगे हैं।
परिवार और शिक्षा
कोई समानान्तर रेखाएँ नहीं।
जीवन का आधार हैं ये
भरा-पूरा संसार हैं ये।
रूढ़ियों को हटायें
हाथ थाम आगे बढ़ाएँ।
जीवन को सरल-सुगम बनाएँ।
राम से मैंने कहा
राम से मैंने कहा, लौटकर न आना कभी इस धरा पर किसी रूप में।
सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान, उर्मिला नहीं मिलेंगें किसी रूप में।
किसने अपकर्म किया, किसे दण्ड मिला, कुछ तो था जो सालता है,
वही पुरानी लीक पीट रहे, सोच-समझ पर भारी धर्मान्धता हर रूप में
किसकी टोपी किसका सिर
बचपन में कथा पढ़ी है,
टोपी वाला टोपी बेचे,
पेड़ के नीचे सो जाये।
बन्दर उसकी टोपी ले गये,
पेड़ पर बैठे उसे चिड़ायें।
टोपी पहने भागे जायें।
बन्दर थे पर नकल उतारें।
टोपी वाले ने आजमाया
अपनी टोपी फेंक दिखलाया।
बन्दरों ने भी टोपी फेंकी,
टोपी वाला ले उठाये।
.
हर पांच साल में आती हैं,
टोपी पहनाकर जाती हैं।
समझ आये तो ठीक
नहीं तो जाकर माथा पीट।
भावनाएं पत्थर हो गईं
सड़कों पर आदमी भूख से मरता रहा।
मंदिरों में स्वर्ण, रजत, हीरा चढ़ता रहा।
भावनाएं पत्थर हो गईं, कौन समझा यहां
बेबस इंसान भगवान की मूतियां गढ़ता रहा।
समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
जि़न्दगी बिना जोड़-जोड़ के कहां चली है
करता सब उपर वाला हमारी कहां चली है
समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
इसी मैं-मैं के चक्कर में सबकी अड़ी पड़ी है
बालपन को जी लें
अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें
यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें
कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते
वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें
नाप-तोल के माप बदल गये
नाप-तोल के माप बदल गये, सवा सेर अब रहे नहीं
किसको नापें किसको तोलें, यह समझ तो रही नहीं
मील पत्थर सब टूट गये, तभी तो राहों से भटक रहे
किसको परखें किसको छोड़ें, अपना ही जब पता नहीं
और हम हल नहीं खोजते
बाधाएं-वर्जनाएं
यूं ही बहुत हैं जीवन में।
पहले तो राहों में
कांटे बिछाये जाते थे
और अब देखो
जाल बिछाये जा रहे हैं
मकड़जाल बुने जा रहे हैं
दीवारें चुनी जा रही हैं
बाढ़ बांधी जा रही है
कांटों में कांटे उलझाये जा रहे हैं।
कहीं हाथ न बढ़ा लें
कोई आस न बुन लें
कोई विश्वास न बांध लें
कहीं दिल न लगा लें
कहीं राहों में फूल न बिछा दें
ये दीवारें, बाधाएं, बाढ़, मकड़जाल,
कांटों के नहीं अविश्वास के है
हमारे, आपके, सबके भीतर।
चुभते हैं,टीस देते हैं,नासूर बनते हैं
खून रिसता है
अपना या किसी और का।
और हम
चिन्तित नहीं होते
हल नहीं खोजते,
आनन्दित होते हैं।
पीड़ा की भी
एक आदत हो जाती है
फिर वह
अपनी हो अथवा परायी।
क्या था मेरा सपना
हा हा !!
वे सपने ही क्या
जो पूरे हो जायें।
कुछ सपने हम
जागते में देखते हैं
और कुछ सोते हुए।
जागते हुए देखे सपने
सुबह-शाम
अपना रूप बदलते रहते हैं
और हम उलझ कर रह जाते हैं
क्या यही था मेरा सपना
और जब तक उस राह पर
बढ़ने लगते हैं
सपना फिर बदल जाता है।
सोचती हूं
इससे तो
न ही देखा होता सपना।
सच्चाई की कंकरीट पर
चल लेती चाहे नंगे पांव ही]
पर बार-बार
सपने बदलने की
तकलीफ़ से तो न गुज़रना पड़ता।
और सोते हुए देखे सपने !!
यूं ही आधे-अधूरे होते हैं
कभी नींद टूटती है,
कभी प्यास लगती है,
कभी डरकर उठ बैठते हैं,
फिर टुकड़ों में आती है नींद
और अपने साथ
सपनों के भी टुकड़े
करने लगती है,
दिन बिखर जाता है
उन अधूरे सपनों को जोड़ने की
नाकाम कोशिश में।
गूंगी,बहरी, अंधी दुनिया
कान तो हम
पहले ही बन्द किये बैठे थे,
चलो आज आंख भी मूंद लेते हैं।
वैसे भी हमने अपने दिमाग से तो
कब का
काम लेना बन्द कर दिया है
और दिल से सोचना-समझना।
हर बात के लिए
दूसरों की ओर ताकते हैं।
दायित्वों से बचते हैं
एक ने कहा
तो किसी दूसरे से सुना।
किसी तीसरे ने देखा
और किसी चौथे ने दिखाया।
बस इतने से ही
अब हम
अपनी दुनिया चलाने लगे हैं।
अपने डर को
औरों के कंधों पर रखकर
बंहगी बनाने लगे हैं।
कोई हमें आईना न दिखाने लग जाये
इसलिए
काला चश्मा चढ़ा लिया है
जिससे दुनिया रंगीन दिखती है,
और हमारी आंखों में झांककर
कोई हमारी वास्तविकता
परख नहीं सकता।
या कहीं कान में कोई फूंक न मार दे
इसलिए “हैड फोन” लगा लिए हैं।
अब हम चैन की नींद सोते हैं,
नये ज़माने के गीत गुनगुनाते हैं।
हां , इतना ज़रूर है
कि सब बोल-सुन चुकें
तो जिसका पलड़ा भारी हो
उसकी ओर हम हाथ बढ़ा देते हैं।
और फिर चश्मा उतारकर
हैडफोन निकालकर
ज़माने के विरूद्ध
एक लम्बी तकरीर देते हैं
फिर एक लम्बी जम्हाई लेकर
फिर अपनी पुरानी
मुद्रा में आ जाते हैं।
यह मेरा शिमला है
बस एक छोटी सी सूचना मात्र है
तुम्हारे लिए,
कि यह शहर
जहां तुम आये हो,
इंसानों का शहर है।
इसमें इतना चकित होने की
कौन बात है।
कि यह कैसा अद्भुत शहर है।
जहां अभी भी इंसान बसते हैं।
पर तुम्हारा चकित होना,
कहीं उचित भी लगता है ।
क्योंकि ,जिस शहर से तुम आये हो,
वहां सड़कों पर,
पत्थरों को चलते देखा है मैंने,
बातें गाड़ियां और मोटरें करती हैं हवा से।
हंसते और खिलखिलाते हैं
भोंपू और बाजे।
सिक्का रोटी बन गया है।
पर यह शहर जहां तुम अब आये हो,
यहां अभी भी इंसान ही बसते हैं।
स्वागत है तुम्हारा।
विश्वगुरू बनने की बात करें
विश्वगुरू बनने की बात करें, विज्ञान की प्राचीन कथाएं पढ़े हम शान से।
सवा सौ करोड़ में सवा लाख सम्हलते नहीं, रहें न जाने किस मान में।
अपने ही नागरिक प्रवासी कहलाते, विश्व-पर्यटन का कीर्तिमान बना
अब लोकल-वोकल की बात करें, यही कथाएं चल रहीं हिन्दुस्तान में।
विचलित करती है यह बात
मां को जब भी लाड़ आता है
तो कहती है
तू तो मेरा कमाउ पूत है।
पिता के हाथ में जब
अपनी मेहनत की कमाई रखती हूं
तो एक बार तो शर्म और संकोच से
उनकी आंखें डबडबा जाती हैं
फिर सिर पर हाथ फेरकर
दुलारते हुए कहते हैं
मुझे बड़ा नाज़ है
अपने इस होनहार बेटे पर।
किन्तु
मुझे विचलित करती है यह बात
कि मेरे माता पिता को जब भी
मुझ पर गर्व होता है
तो वे मुझे
बेटा कहकर सम्बोधित क्यों करते हैं
बेटी मानकर गर्व क्यों नहीं कर पाते।
किस युग में जी रहे हो तुम
मेरा रूप तुमने रचा,
सौन्दर्य, श्रृंगार
सब तुमने ही तो दिया।
मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व
मेरे गुण, या मेरी चमत्कारिता
सब तुम्हारी ही तो देन है।
मुझे तो ठीक से स्मरण भी नहीं
किस युग में, कब-कब
अवतरित हुआ था मैं।
क्यों आया था मैं।
क्या रचा था मैंने इतिहास।
कौन सी कथा, कौन सा युद्ध
और कौन सी लीला।
हां, इतना अवश्य स्मरण है
कि मैंने रचा था एक युग
किन्तु समाप्त भी किया था एक युग।
तब से अब तक
हज़ारों-लाखों वर्ष बीत गये।
चकित हूं, यह देखकर
कि तुम अभी भी
उसी युग में जी रहे हो।
वही कल्पनाएं, कपोल-कथाएं
वही माटी, वही बाल-गोपाल
राधा और गोपियां, यशोदा और माखन,
लीला और रास-लीलाएं।
सोचा कभी तुमने
मैंने जब भी
पुन:-पुन: अवतार लिया है
एक नये रूप में, एक नये भाव में
एक नये अर्थ में लिया है।
काल के साथ बदला हूं मैं।
हर बार नये रूप में, नये भाव में
या तुम्हारे शब्दों में कहूं तो
युगानुरूप
नये अवतार में ढाला है मैंने
अपने-आपको।
किन्तु, तुम
आज भी, वहीं के वहीं खड़े हो।
तो इतना जान लो
कि तुम
मेरी आराधना तो करते हो
किन्तु मेरे साथ नहीं हो।
पछताते लोग
झूठी शान जताते लोग
बातें खूब बनाते लोग
खुलती पोल सिर झुकता
तब देखो पछताते लोग
सूखी धरती करे पुकार
वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं
खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं
बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे
सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं
विरोध से डरते हैं
सहनशीलता के दिखावे की आदत-सी हो गई है
शालीनता के नाम पर चुप्पी की बात-सी हो गई है
विरोध से डरते हैं, मुस्कुराहट छाप ली है चेहरों पर
सूखे फूलों में खुशबू ढूंढने की आदत-सी हो गई है।