ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई

किसी ने कहा

ज़िन्दगी पर

एक उपन्यास लिखो।

सालों-साल का

हिसाब-बेहिसाब लिखो।

स्मृतियों को

उलटने-पलटने लगी।

समेटने लगी

सालों, महीनों, दिनों

और घंटों का,

पल-पल का गणित।

बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।

न जाने कितने झंझावात,

कितने विप्लव,

कितने भूचाल बिखर गये।

कहीं आंसू, कहीं हर्ष,

कहीं आहों के,

सुख-दुख के सागर उफ़न गये।

 

न जाने

कितने दिन-महीने, साल लग गये

कथाओं का समेटने में।

और जब

अन्तिम रूप देने का समय आया

तो देखा

एक क्षणिका भी न बन पाई।