अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी

 

अक्सर लगता है,

कुछ

निठ्ठलापन आ गया है।

वे ही सारे काम

जो खेल-खेल में

हो जाया करते थे,

पल भर में,

अब, दिनों-दिन

बहकने लगे हैं।

सुबह कब आती है,

शाम कब ढल जाती है,

आभास चला गया है।

अंधेरे -उजाले

एक-से लगने लगे हैं।

घर बंधन तो नहीं लगता,

किन्तु बंधे से रहते हैं,

फिर भी वे सारे काम,

जो खेल-खेल में

हो जाया करते थे,

अब, दिनों तक

टहलने लगे हैं।

समय बहुत है,

शायद यही एहसास

समय के महत्व को

समझने से रोकता है।

घड़ी के घंटों से

नहीं बंधे हैं अब।

न विलम्ब की चिन्ता,

न लम्बित कार्यों की।

मैं नहीं तो

कोई और कर लेगा,

मुझे चिन्ता नहीं।

खेल-खेल में

क्या समय का महत्व

घटने लगा है।

कहीं एक तकलीफ़ तो है,

बस शब्द नहीं हैं।

घड़ियां बन्द पड़ी हैं,

अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी,

पर पता नहीं

समय कैसे कटने लगा है।