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सुना और पढ़ा है मैंने
कि कोई
पाप का घड़ा हुआ करता था
और सब
हाथ पर हाथ धरे
प्रतीक्षा में बैठे रहते थे
कि एक दिन तो भरेगा
और फूटेगा] तब देखेंगे।
मैं समझ नहीं पाई
आज तक
कि हम प्रतीक्षा क्यों करते हैं
कि पहले तो घड़ा भरे
फिर फूटे, फिर देखेंगे,
बतायेगा कोई मुझे
कि क्या देखेंगे ?
और यह भी
कि अगर घड़ा भरकर
फूटता है
तो उसका क्या किया जाता था।
और अगर घड़ा भरता ही जाता था
भरता ही जाता था
और फूटता नहीं था
तब क्या करते थे ?
पलायन का यह स्वर
मुझे भाता नहीं
इंतज़ार करना मुझे आता नहीं
आह्वान करती हूं,
घरों से बाहर निकलिए
घड़ों की शवयात्रा निकालिए।
श्मशान घाट में जाकर
सारे घड़े फोड़ डालिए।
बस पाप को नापना नहीं।
छोटा-बड़ा जांचना नहीं।
बस एक शुरूआत की ज़रूरत है।
बस एक से शुरूआत की ज़रूरत है।।।
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मुहब्बतों की कहानियां
मुझे इश्तहार सी लगती हैं
ये मुहब्बतों की कहानियां
कृत्रिम सजावट के साथ
बनठन कर खिंचे चित्र
आँखों तक खिंची
लम्बी मुस्कान
हाथों में यूँ हाथ
मानों
कहीं छोड़कर न भाग जाये।
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सरकारी कुर्सी
आज मैं
कुर्सी लेने बाज़ार गई।
विक्रेता से कुर्सी दिखाने के लिए कहा।
वह बोला,
कैसी कुर्सी चाहिए आपको ?
मेरा सीधा-सा उत्तर था ।
सुविधाजनक,
जिस पर बैठकर काम किया जा सके
जैसी कि सरकारी कार्यालयों में होती है।
उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कुराहट आ गई
तो ऐसे बोलिए न मैडम
आप घर में सरकारी कुर्सी जैसी
कुर्सी चाहती है।
लगता है किसी सरकारी दफ़्तर से
सेवानिवृत्त होकर आई हैं
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ईर्ष्या होती है चाँद से
ईर्ष्या होती है चाँद से
जब देखो
मनचाहा घूमता है
इधर-उधर डोलता
घर-घर झांकता
साथ चाँदनी लिए।
चांँदनी को देखो
निरखती है दूर गगन से
धरा तक आते-आते
बिखर-बिखर जाती है।
हाथ बढ़ाकर
थामना चाहती हूँ
चाँदनी या चाँद को।
दोनों ही चंचल
अपना रूप बदल
इधर-उधर हो जाते हैं
झुरमुट में उलझे
झांक-झांक मुस्काते हैं
मुझको पास बुलाते हैं
और फिर
यहीं-कहीं छिप जाते हैं।
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आस नहीं छोड़ी मैंने
प्रकृति के नियमों को
हम बदल नहीं सकते।
जीवन का आवागमन
तो जारी है।
मुझको जाना है,
नव-अंकुरण को आना है।
आस नहीं छोड़ी मैंने।
विश्वास नहीं छोड़ा मैंने।
धरा का आसरा लेकर,
आकाश ताकता हूं।
अपनी जड़ों को
फिर से आजमाता हूं।
अंकुरण तो होना ही है,
बनना और मिटना
नियम प्रकृति का,
मुझको भी जाना है।
न उदास हो,
नव-अंकुरण फूटेंगे,
यह क्रम जारी रहेगा,
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कांटों को थाम लीजिए
रूकिये ज़रा, मुहब्बत की बात करनी है तो कांटों को थाम लीजिए
छोड़िये गुलाब की चाहत को, अनश्वर कांटों को अपने साथ लीजिए
न रंग बदलेंगे, न बिखरेंगे, न दिल तोड़ेंगे, दूर तक साथ निभायेंगे,
फूल भी अक्सर गहरा घाव कर जाते हैं, बस इतना जान लीजिए
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ये दो दिन
कहते हैं
दुनिया
दो दिन का मेला,
कहाँ लगा
कबसे लगा,
मिला नहीं।
-
वैसे भी
69 वर्ष हो गये
ये दो दिन
बीत ही नहीं रहे।
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अन्तर्मन की आग जला ले
अन्तर्मन की आग जला ले
उन लपटों को बाहर दिखला दे।
रोना-धोना बन्द कर अब
क्यों जिसका जी चाहे कर ले तब।
सबको अपना संसार दिखा ले
अपनी दुनिया आप बसा ले।
ठोक-बजाकर जीना सीख
कर ले अपने मन की रीत।
कोई नहीं तुझे जलाता
तेरी निर्बलता तुझ पर हावी
अपनी रीत आप बना ले।
पाखण्डों की बीन बजा देे
मनचाही तू रीत कर ले।
इसकी-उसकी सुनना बन्द कर
बेचारगी का ढोंग बन्द कर।
दया-दया की मांग मतकर
बेबस बन कर जीना बन्द कर।
अपने मन के गीत बजा ले।
घुटते-घुटते रोना बन्द कर
रो-रोकर दिखलाना बन्द कर
इसकी-उसकी सुनना बन्द कर।
अपने मन से जीना सीख।
अन्तर्मन की आग जला ले।
उन लपटों को बाहर दिखला दे।
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अन्त होता है ज़िन्दगी की चालों का
स्याह-सफ़ेद
प्यादों की चालें
छोटी-छोटी होती हैं।
कदम-दर-कदम बढ़ते,
राजा और वज़ीर को
अपने पीछे छुपाये,
बढ़ते रहते हैं,
कदम-दर-कदम,
मानों सहमे-सहमे।
राजा और वज़ीर
रहते हैं सदा पीछे,
लेकिन सब कहते हैं,
बलशाली, शक्तिशाली
होता है राजा,
और वजीर होता है
सबसे ज़्यादा चालबाज़।
फिर भी ये दोनों,
प्यादों में घिरे
घूमते, बचते रहते हैं।
किन्तु, एक समय आता है
प्यादे चुक जाते हैं,
तब दो-रंगे,
राजा और वज़ीर,
आ खड़े होते हैं
आमने-सामने।
ऐसे ही अन्त होता है
किसी खेल का,
किसी युद्ध का,
या किसी राजनीति का।
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मां के आंचल की छांव
प्रकृति का नियम है
विशाल वट वृक्ष तले
नहीं पनपते छोटे पेड़ पौधे।
नहीं पुष्पित पल्लवित होतीं यूं ही लताएं।
और यदि कुछ पनप भी जाये
तो उसे नाम नहीं मिलता।
पहचान नहीं मिलती।
बस, वट वृक्ष की विशालता के सामने
खो जाते हैं सब।
लेकिन, एक ऐसा वट वृक्ष भी है
जिसका अपना कोई नाम नहीं होता
कोई पहचान नहीं होती।
बस एक दीर्घ आंचल होता है
जिसके साये तले, पलती बढ़ती है
एक पूरी की पूरी पीढ़ी,
एक पूरा का पूरा युग।
अपनी जड़ों से पोषण करती है उनका।
नये पौधों का रोपण करती है
अपने आपको खोकर।
उन्हें नाम देती है, पहचान देती है
आंचल की छांव देती है।
पूरी ज़मीन और पूरा आकाश देती है।
युग बदलते हैं, पर नहीं बदलती
नहीं छूटती आंचल की छांव।
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सूखी धरती करे पुकार
वातानुकूलित भवनों में बैठकर जल की योजनाएं बनाते हैं
खेल के मैदानों पर अपने मनोरंजन के लिए पानी बहाते हैं
बोतलों में बन्द पानी पी पीकर, सूखी धरती को तर करेंगे
सबको समान सुविधाएं मिलेंगी, सुनते हैं कुछ ऐसा कहते हैं