सच बोलने की आदत है बुरी

सच बोलने की आदत है बुरी

इसीलिए

सभी लोग रहने लगे हैं किनारे

पीठ पर वार करना मुझे भाता नहीं

चुप रहना मुझे आता नहीं

भाती नहीं मुझे झूठी मिठास

मन मसोस कर मैं जीती नहीं

खरी-खरी कहने से मैं रूकती नहीं

इसीलिए

सभी लोग रहने लगे हैं किनारे

-

हालात क्‍या बदले,

वक्‍त ने क्‍या चोट दी,

सब लोग रहने लगे हैं किनारे

काश !

कोई तो हमारी डूबती कश्‍ती में

सवार होता संग हमारे

कहीं तो हम नाव खेते

किसी के सहारे।

-

किन्‍तु हालात यूं बदले

न पता लगा, कब टूटे किनारे

सब लोग जो बैठे थे किनारे

डूबते-उतरते वे अब ढूंढने लगे सहारे

तैर कर निकल आये हम तो किनारे

उसी कश्‍ती को थाम ,

अब वे भी ढूंढने में लगे हैं किनारे

 

नदिया से मैंने पूछा

नदिया से मैंने पूछा

कल-कल कर क्‍यों बहती हो।

बहते-बहते

कभी सिमट-सिमट कर

कभी बिखर-बिखर जाती हो।

कभी मधुर संगीत छेड़ती

कभी विकराल रूप दिखाती हो।

कभी सूखी,

कभी लहर-लहर लहराती हो।

नदिया बोली,

मुझसे क्‍या पूछ रहे

तुम भी तो ऐसे ही हो मानव।   

पर मैं आज तुम्‍हें चेताती हूं। 

इसीलिए,

कल-कल की बातें कहती हूं।

समझ सको तो, सम्‍हल सको तो

रूक कर, ठहर-ठहर कर

सोचो तुम।

बहते-बहते, सिमट-सिमट कर

अक्‍सर क्‍यों बिखर-बिखर जाती हूं ।

मधुर संगीत छेड़ती

क्‍यों विकराल रूप दिखाती हूं।

जब सूखी,

फिर कहां लहर-लहर लहराती हूं।

मैं आज तुम्‍हें चेताती हूं। 

 

 

कृष्ण की पुकार

न कर वन्‍दन मेंरा

न कर चन्‍दन मेरा

अपने भीतर खोज

देख क्रंदन मेरा।

हर युग में

हर मानव के भीतर जन्‍मा हूं।

न महाभारत रचा

न गीता पढ़ी मैंने

सब तेरे ही भीतर हैं

तू ही रचता है।

ग्‍वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया

तेरी अभिलाषाएं

नाम मेरे मढ़ता है।

बस राह दिखाई थी मैंने  

न आयुध बांटे

न चक्रव्‍यूह रचे मैंने

लाक्षाग्रह, चीर-वीर,

भीष्‍म-प्रतिज्ञाएं

सब तू ही करता है

और अपराध छुपाने को अपना

नाम मेरा रटता है।

पर इस धोखे में मत रहना

तेरी यह चतुराई

कभी तुझे बचा पायेगी।

कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है

देख ज़रा जाकर

तू भी वहीं कहीं पड़ा है।

 

बीहड़ वन आकर्षित करते हैं मुझे

कभी भीतर तक जाकर

देखे तो नहीं मैंने बीहड़ वन,

किन्तु ,

आकर्षित करते हैं मुझे।

कितना कुछ समेटकर रहते हैं

अपने भीतर।

गगन को झुकते देखा है मैंने यहां।

पल भर में धरा पर

उतर आता है।

रवि मुस्कुराता है,

छन-छनकर आती है धूप।

निखरती है, कण-कण को छूती है।

इधर-उधर भटकती है,

न जाने किसकी खोज में।

वृक्ष निःशंक सर उठाये,

रवि को राह दिखाते हैं,

धरा तक लेकर आते हैं।

धाराओं को

यहां कोई रोकता नहीं,

बेरोक-टोक बहती हैं।

एक नन्हें जीव से लेकर

विशाल व्याघ्र तक रहते हैं यहां।

मौसम बदलने से

यहां कुछ नहीं बदलता।

जैसा कल था

वैसा ही आज है,

जब तक वहां  मानव का

प्रवेश नहीं होता।

अपनी इच्छाओं के कसीदे

चोरी-चोरी, चुपके-चुपके

अपनी इच्छाओं के

कसीदे बुना करती थी।

पहले-पहल गुड्डे-गुड़िया

कुछ खेल-खिलौने, कंचे-गोटी

छुपन-छुपाई, कट्टी-मिट्टा,

इमली खट्टी, सब बुनती थी।

फिर सुना, गुड्डे-गुड़िया बड़े हो गये

और उनका विवाह हो गया।

अनायास एक दिन

सब कहीं खो गये।

-

और मुझे भी पता लगा

कि मैं भी बड़ी हो गई।

-

मेरी कसीदे की चादर

अब उधड़ने लगी थी,

एक हाथ से दूसरे हाथ

घूमने लगी थी।

जिसका जो जी चाहा

उस पर काढ़ने में लगा था,

मैं जी-जान से उस सबको

संवारने में लगी थी।

पर, हर धागा कहां संवरता है,

हर कसीदा कहां कुछ बोल पाता है।

-

और मैं

आज भी उस उधड़ी-अधबुनी चादर को

बांहों में लपेटे घूम रही हूं,

एक आस में।

लोग कहते है बुढ़िया सठिया गई है।

कृष्ण ने किया था शंखनाद

महाभारत की कथा

पढ़कर ज्ञात हुआ था,

शंखनाद से कृष्ण ने किया था

एक ऐसे युद्ध का उद्घोष,

जिसमें करोड़ों लोग मरे थे,

एक पूरा युग उजड़ गया था।

अपनों ने अपनों को मारा था,

उजाड़े थे अपने ही घर,

लालसा, मोह, घृणा, द्वेष, षड्यन्त्र,

चाहत थी एक राजसत्ता की।

पूरी कथा

बार-बार पढ़ने के बाद भी

कभी समझ नहीं पाई

कि इस शंखनाद से

किसे क्या उपलब्धि हुई।

-

यह भी पढ़ा है,

कि शंखनाद की ध्वनि से,

ऐसे अदृश्य

जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं

जो यूं

कभी नष्ट नहीं किये जा सकते।

इसी कारण

मृत देह के साथ भी

किया जाता है शंखनाद।

-

शुभ अवसर पर भी

होता है शंखनाद

क्योंकि

जीवाणु तो

हर जगह पाये जाते हैं।

फिर यह तो

काल की गति बताती है,

कि वह शुभ रहा अथवा अशुभ।

-

एक शंखनाद

हमारे भीतर भी होता है।

नहीं सुनते हम उसकी ध्वनियां।

एक आर्तनाद गूंजता है और

बढ़ते हैं एक नये महाभारत की ओेर।

 

 

क्या होगा वक्त के उस पार

वक्त के इस पार ज़िन्दगी है,

खुशियां हैं वक्त के इस पार।

दुख-सुख हैं, आंसू, हंसी है,

आवागमन है वक्त के इस पार।

कल किसने देखा है,

कौन जाने क्या होगा,

क्यों सोच में डूबे,

आज को जी लेते हैं,

क्यों डरें,

क्या होगा वक्त के उस पार।

 

सांझ-सवेरे

 रंगों से आकाश सजा है सांझ-सवेरे।

मन में इक आस बनी है सांझ-सवेरे।

सूरज जाता है,चंदा आता है, संग तारे]

भावों का ऐसा ही संगम है सांझ-सवेरे।

छोटा हूं पर समझ बड़ी है

छोटा हूं पर समझ बड़ी है।

मुझको छोटा न जानो।

बड़के भैया, छुटके भैया,

बहना मेरी और बाबा

सब अच्छे-अच्छे कपड़े पहनें।

सज-धजकर रोज़ जाते,

मैं और अम्मां घर रह जाते।

जब मैं कहता अम्मां से

मुझको भी अच्छे कपड़े दिलवा दे,

मुझको भी बाहर जाना है।

तब-तब मां से पड़ती डांट

तू अभी छोटा छौना है।

यह छौना क्या होता है,

न बतलाती मां।

न नहलाती, न कपड़े पहनाती,

बस कहती, ठहर-ठहर।

भैया जाते बड़की साईकिल पर

बहना जाती छोटी साईकिल पर।

बाबा के पास कार बड़ी।

मैं भी मांगू ,

मां मुझको घोड़ा ला दे रे।

मां के पीछे-पीछे घूम रहा,

चुनरी पकड़कर झूम रहा।

मां मुझको कपड़े पहना दे,

मां मुझको घोड़ा ला दे।

मां ने मुझको गैया पर बिठलाया।

यह तेरा घोड़ा है, बतलाया।

मां बड़ी सीधी है,

न जाने गैया और घोड़ा क्या होता है।

पर मैंने मां को न समझाया,

न मैंने सच बतलाया,

कि मां यह तो गैया है, मैया है।

संध्या बाबा आयेंगे।

उनको बतलाउंगा,

मां गैया को घोड़ा कहती है,

मां को इतना भी नहीं पता।

 

 

 

जीवन की पुस्तकें

कुछ बुढ़ा-सी गई हैं पुस्तकें।

भीतर-बाहर

बिखरी-बिखरी-सी लगती हैं,

बेतरतीब।

.

किन्तु जैसे

बूढ़ी हड्डियों में

बड़ा दम होता है,

एक वट-वृक्ष की तरह

छत्रछाया रहती है

पूरे परिवार के सुख-दुख पर।

उनकी एक आवाज़ से

हिलती हैं घर की दीवारें,

थरथरा जाते हैं

बुरी नज़र वाले।

देखने में तो लगते हैं

क्षीण काया,

जर्जर होते भवन-से।

किन्तु उनके रहते

द्वार कभी सूना नहीं लगता।

हर दीवार के पीछे होती है

जीवन की पूरी कहानी,

अध्ययन-मनन

और गहन अनुभवों की छाया।

.

जीवन की इन पुस्तकों को

चिनते, सम्हालते, सजाते

और समझते,

जीवन बीत जाता है।

दिखने में बुढ़उ सी लगती हैं,

किन्तु दम-खम इनमें भी होता है।

 

जीवन की कहानियां बुलबुलों-सी नहीं होतीं

 कहते हैं

जीवन पानी का बुलबुला है।

किन्तु कभी लगा नहीं मुझे,

कि जीवन

कोई छोटी कहानी है,

बुलबुले-सी।

सागर की गहराई से भी

उठते हैं बुलबुले।

और खौलते पानी में भी

बनते हैं बुलबुले।

जीवन में गहराई

और जलन का अनुभव

अद्भुत है,

या तो डूबते हैं,

या जल-भुनकर रह जाते हैं।

जीवन की कहानियां

बुलबुलों-सी नहीं होतीं

बड़े गहरे होते हैं उनके निशान।

वैसे ही जैसे

किसी के पद-चिन्हों पर,

सारी दुनिया

चलना चाहती है।

और किसी के पद-चिन्ह

पानी के बुलबुले से

हवाओं में उड़ जाते हैं,

अनदेखे, अनजाने,

अनपहचाने।

 

ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है

कितना अच्छा लगता है,

और कितना सम्मानजनक,

जब कोई कहता है,

चलो आज शाम

मिलते हैं कहीं बाहर।

-

बाहर !

बाहर कोई पब,

शराबखाना, ठेका

या कोई मंहगा होटल,

ये आपकी और उनकी

जेब पर निर्भर करता है,

और निर्भर करता है,

सरकार से मिली सुविधाओं पर।

.

एक सौ गज़ पर

न अस्पताल मिलेंगे,

न विद्यालय, न शौचालय,

न विश्रामालय।

किन्तु मेरे शहर में

खुले मिलेंगे ठेके, आहाते, पब, होटल,

और हुक्का बार।

सरकार समझती है,

आम आदमी की पहली ज़रूरत,

शराब है न कि राशन।

इसीलिए,

राशन से पहले खुले थे ठेके।

और शायद ठेके की लाईन में

लगने से

कोरोना नहीं होता था,

कोरोना होता था,

ठेला चलाने से,

सब्ज़ी-भाजी बेचने से,

छोटे-छोटे श्रम-साधन करके

पेट भरने वालों से।

इसीलिए सुरक्षा के तौर पर

पहले ठेके पर जाईये,

बाद में घर की सोचिए।

-

ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है

कौन लेगा यह निर्णय।

 

 

हाथों से मिले नेह-स्पर्श

 पत्थरों में भाव गढ़ते हैं,

जीवन में संवाद मरते हैं।

हाथों से मिले नेह-स्पर्श,

बस यही आस रखते है।

 

आंसू और हंसी के बीच

यूं तो राहें समतल लगती हैं, अवरोध नहीं दिखते।

चलते-चलते कंकड़ चुभते हैं, घाव कहीं रिसते।

कभी तो बारिश की बूंदें भी चुभ जाया करती हैं,

आंसू और हंसी के बीच ही इन्द्रधनुष देखे खिलते।

 

दिन-रात

दिन-रात जीवन के आवागमन का भाव बताता है।

दिन-रात जीवन के दुख-सुख का हाल बताता है।

सूरज-चंदा-तारे सब इस चक्र में बौखलाए देखे,

दिन-रात जीवन के तम-प्रकाश की चाल बताता है।

 

पुष्प निःस्वार्थ भाव से

पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते।

पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते।

चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हरपल,

हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते।

 

लीक पीटना छोड़ दें

 

युग बदलते हैं भाव कहां बदलते हैं

राम-रावण तो हर युग में पनपते हैं

कथाओं को घोट-घोट कर पी रहे हम]

लीक पीटना छोड़ दें तब जीवन संवरते हैं

निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

कुछ शहरों की हैं दूरियां, कुछ काम-काज की दूरियां

मेल-मिलाप कैसे बने, निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

परिवार निरन्तर छिटक रहे, दूर-पार सब जा रहे,

तकनीक आज मिटा रही हम सबके बीच की दूरियां

 

बचाकर रखी है भीतर तरलता

कितना भी काट लो, कुछ है, जो जड़ें  जमाये रखता है

न भीतर से टूटने देता है, मन में इक आस बनाये रखता है

बचाकर रखी है भीतर तरलता, नयी पौध तो पनपेगी ही,

धरा से जुड़े हैं तो कदम संभलेंगे, यह विश्वास जगाये रखता है

 

जलने-बुझने के बीच

न इस तरह जलाओ कि सिलसिला बन जाये।

न इस तरह बुझाओ कि राख ही नज़र जाये।

जलने-बुझने के बीच बहुत कुछ घट जाता है,

न इस तरह तम हटाओ कि आंख ही धुंधला जाये।

 

हे घन ! कब बरसोगे

अब तो चले आओ प्रियतम कब से आस लगाये बैठे हैं

चांद-तारे-सूरज सब चुभते हैं, आंख टिकाये बैठे हैं

इस विचलित मन को कब राहत दोगे बतला दो,

हे घन ! कब बरसोगे, गर्मी से आहत हुए बैठे हैं

 

ज़िन्दगी कोई गणित नहीं

ज़िन्दगी

जब कभी कोई

प्रश्नचिन्ह लगाती है,

उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।

यह बात

हम समझ ही नहीं पाते।

किसी न किसी गणित में उलझे

अपने-आपको महारथी समझते हैं।

 

हम क्यों आलोचक बनते जायें

खबरों की हम खबर बनाएं,

उलट-पलटकर बात सुझाएं,

काम किसी का, बात किसी की,

हम यूं ही आलोचक बनते जाएं।

एकान्त के स्वर

मन के भाव रेखाओं में ढलते हैं।

कलश को नेह-नीर से भरते हैं।

रंगों में जीवन की गति रहती है,

एकान्त के स्वर गीत मधुर रचते हैं।

कलश तेरी माया अद्भुत है

 

कलश तेरी माया अद्भुत है, अद्भुत है तेरी कहानी।

माटी से निर्मित, हमें बताता जीवन की पूरी कहानी।

जल भरकर प्यास बुझाता, पूजा-विधि तेरे बिना अधूरी,

पर, अंतकाल में कलश फूटता, बस यही मेरी कहानी।

आई दुल्हन

 

पायल पहले रूनझुन करती आई दुल्हन।

कंगन बजते, हार खनकते, आई दुल्हन।

श्रृंगार किये, सबके मन में रस बरसाती]

घर में खुशियों के रंग बिखेरे आई दुल्हन।

किसान क्यों है परेशान

कहते हैं मिट्टी से सोना उगाता है किसान।

पर उसकी मेहनत की कौन करता पहचान।

कैसे कोई समझे उसकी मांगों की सच्चाई,

खुले आकाश तले बैठा आज क्यों परेशान।

मदमाता शरमाता अम्बर

रंगों की पोटली लेकर देखो आया मदमाता अम्बर

भोर के साथ रंगों की पोटली बिखरी, शरमाता अम्बर

रवि को देख श्वेताभा के अवगुंठन में छिपता, भागता

सांझ ढले चांद-तारों संग अठखेलियां कर भरमाता अम्बर

 

दर्दे दिल के निशान

 

काश! मेरा मन रेत का कोई बसेरा होता।

सागर तट पर बिखरे कणों का घनेरा होता।

दर्दे दिल के निशान मिटा देतीं लहरें, हवाएं,

सागर तल से उगता हर नया सवेरा होता।

भावनाएं पत्थर हो गईं

सड़कों पर आदमी भूख से मरता रहा।

मंदिरों में स्वर्ण, रजत, हीरा चढ़ता रहा।

भावनाएं पत्थर हो गईं, कौन समझा यहां

बेबस इंसान भगवान की मूतियां गढ़ता रहा।