कोरोना ने नहीं छोड़ा कोई कोना

कोरोना ने नहीं छोड़ा कोई कोना, अब क्या-क्या रोना, और क्या कोरो-ना और क्या न कोरो-ना। किसी न किसी रूप में सबके घर में, मन में, वस्तुओं में पसर ही गया है।

खांसी, बुखार, गले में खराश। बस इनसे बचकर रहना होगा।

 पहले कहते थे, खांसी आ रही है, जा बाहर हवा में जा।

अब कहते हैं बाहर मत जाना कोई खांसी की आवाज़ न सुन ले।

प्रत्येक वर्ष अप्रैल में घूमने जाने का कार्यक्रम बनाते हैं, बच्चों की छुट्टियां होती हैं चार-पांच दिन की। अभी सोच ही रहे थे कि बुकिंग करवा ले, कि कोरोना की आहट होने लगी। बच गये, पैसे भी और हम भी।

एकदम से एक भय व्याप्त हुआ, राशन है क्या, दूध का कैसे होगा, सब्ज़ियां मिलेंगी क्या, छोटी-सी पोती के दूध का कैसे करेंगे?

भाग्यवश बच्चे तो पहले ही वर्क फ्राम होम थे, पति सेवा-निवृत्त, अब हम भी हो गये घर में ही।

लगभग दो महीने विद्यालय बन्द हो गये। 23 मार्च से लेकर पूरा अप्रैल और मई घर में ही बन्द होकर निकल गया, एक महीना तो सील बन्द रहे। 5 दिन सब्जी, फल, दूध कुछ नहीं। किन्तु समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं लगा।

जून में धीरे-धीरे विद्यालय के द्वार उन्मुक्त होने लगे। एक-एक करके गैरशैक्षणिक कर्मचारियों को बुलाया जाने लगा। अब मै। 65 वर्ष की, 66वें प्रवेश कर चुकी। इसलिए मुझे ज़रा देर से आवाज़ लगी। 2 जून को विद्यालय जाने लगी, सप्ताह में पांच दिन कार्यदिवस, मात्र चार घंटे के लिए। किन्तु मन नहीं मान रहा था। न तो दूरी का ध्यान रखा जा रहा था और न ही सैनिटाईज़ेशन का, एक लापरवाही दिख रही थी मुझे। जिसे कहो वही रूष्ट। अब संस्थाएं वेतन का एक हिस्सा तो दे रही थीं, तो काम भी लेना था।

सरकार ने कहा आप 66 के हो अतः घर बैठो, घर से काम करो। अब घर से तो काम नहीं हो सकते सारे। विद्यालय के कम्पयूटर पर, साफ्टवेयर और डाटा तो वहीं रहेगा, पुस्तकें तो घर नहीं आयेंगी। कहना अलग बात है किन्तु कार्यालयों में 6 फ़ीट की दूरी से काम चल ही नहीं सकता।

अब जुलाई में किये जाने काम वाले हावी होने लगे थे, परीक्षा परिणाम, नये विद्यार्थियों का प्रवेश, वार्षिक मिलान और पता नहीं क्या-क्या।

हमारे सैक्टर में कोरोना के मामले फिर बढ़ने लगे, हम सब डरने लगे।

तो क्या पलायन करना होगा अथवा इसे सावधानी और एक सही निर्णय कहा जायेगा, पता नहीं।

किन्तु निर्णय लिया और भारी मन से 18 वर्ष की नौकरी सकारण या अकारण अनायास ही छोड़ दी।

सब कहते हैं मैं तो भवन से निकल आई, भवन मेरे भीतर से कभी नहीं निकलेगा।