और जब टूटती है तन्द्रा

चलती हुई घड़ी

जब अचानक ठहर-जी जाती है,

लगता है

जीवन ही ठहर गया।

सूईयाँ अटकी-सी,

सहमी-सी,

कण-कण

खिसकने का प्रयास करती हैं,

अनमनी-सी,

किन्तु फिर वहीं आकर रुक जाती हैं।

हमारी लापरवाही, आलस्य

और काल के महत्व की उपेक्षा,

कभी-कभी भारी पड़ने लगती है

जब हम भूल जाते हैं

कि घड़ी ठहरी हुई,

चुपचाप, उपेक्षित,

हमें निरन्तर देख रही है।

और हम उनींदे-से,

उसकी चुप्पी से प्रभावित

उसके ठहरे समय को ही

सच मान लेते हैं।

और जब टूटती है तन्द्रा

तब तक न जाने कितना कुछ

छूट जाता है

बहुत कुछ बोलती है घड़ी

बस हम सुनना ही नहीं चाहते

इतना बोलने लगे हैं

कि किसी की क्या

अपनी ही आवाज़ से

उकता गये हैं ।