अंधविश्वास अथवा विश्वास

अंधविश्वास पर बात करना एक बहुत ही विशद, गम्भीर एवं मनन का विषय है जिसे कुछ शब्दों में नहीं समेटा जा सकता। कल तक जो विश्वास था, परम्पराएँ थीं, रीति-नीति थे, सिद्धान्त थे, काल परिवर्तन के साथ रूढ़ियाँ और अंधविश्वास बन जाते हैं। तो क्या हमारे पूर्वज रूढ़िवादी, अंधविश्वासी थे अथवा हम कुछ ज़्यादा ही आधुनिक हो रहे हैं और अपनी परम्पराओं की उपेक्षा करने लगे हैं?

मेरी ओर से दोनों ही का उत्तर नहीं में हैं।

 

अंधविश्वास और विश्वास में कितना अन्तर है? केवल एक महीन-सी रेखा का। विश्वास और अंधविश्वास दोनों को ही किसी तराजू में तोलकर अथवा किसी मापनी द्वारा सही-गलत नहीं सिद्ध किया जा सकता। यदि हम अंधविश्वास पर बात करते हैं तो विश्वास पर तो बात करनी ही होगी। वास्तव में मेरे विचार में विश्वास एवं अंधविश्वास एक मनोभाव हैं, स्वचिन्तन हैं, अनुभूत सत्य है और कुछ सुनी-सुनाई, जिनके कारण हमारे विचारों एवं चिन्तन का विकास होता है।

विश्वास और अंधविश्वास दोनों ही काल, आवश्यकता, विकास, प्रगति, एवं जीवनचर्या के अनुसार बदलते हैं। इनके साथ एक सामान्य ज्ञान, अनुभूत सत्य बहुत महत्व रखते हैं।

एक-दो उदाहरणों द्वारा अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूँगी।

जैसे हमारी माँ रात्रि में झाड़ू लगाने के लिए मना करती थी, कारण कि अपशकुन होता है। कभी सफ़ाई करनी ही पड़े तो कपड़े से कचरा समेटा जाता था और बाहर नहीं फ़ेंका जाता था। हमारे लिए यह अंधविश्वास था। किन्तु इसके पीछे उस समय एक ठोस कारण था कि बिजली नहीं होती थी और अंधेरे में कोई काम की वस्तु जा सकती है इसलिए या तो झाड़ू ही न लगाया जाये और यदि सफ़ाई करनी ही पड़े तो एक कोने में कचरा समेट दें, सुबह फ़ेंके।

उस समय अनेक गम्भीर रोगों की चिकित्सा उपलब्ध नहीं थी, घरेलू उपचार ही होते थे। रोग संक्रामक होते थे। तब लोग इन रोगों से बचने के लिए हवन करवाते थे जो हमें आज अंधविश्वास लगते हैं। किन्तु वास्तव में हवन-सामग्री में ऐसी वस्तुएँ एवं समिधा में ऐसे गुण रहते थे जो कीटाणुनाशक होते थे और घर में कीटाणुओं का नाश होने से परिवार के अन्य सदस्यों को उस संक्रामक रोग से बचाने का प्रयास होता था। आज ऐसी शुद्ध सामग्री ही उपलब्ध नहीं है और चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध हैं अतः यह आज हमारी दृष्टि में अंधविश्वास है।

शंख-ध्वनि से अदृश्य जीवाणुओं का भी नाश होता है, इसी कारण हवन में एवं शव के साथ शंख बजाया जाता है क्योंकि यह माना जाता है कि शव के साथ अदृश्य जीवाणु उत्पन्न होने लगते हैं जिनका अन्यथा नाश सम्भव ही नहीं है। आज हमारी दृष्टि में यह अंधविश्वास हो सकता है किन्तु यह वैज्ञानिक सत्य भी है।

अंगूठियाँ, धागे, तावीज़, कान, नाक, पैरों में आभूषण: यह सब हमारे रक्त प्रवाह एवं नाड़ी तंत्र को प्रभावित करते हैं जिस कारण रोग-प्रतिरोधक क्षमता बनती है किन्तु वर्तमान में हमें यह अंधविश्वास ही लगते हैं क्योंकि हम इनके नियमों का पालन नहीं करते इस कारण ये अप्रभावी रहते हैं एवं शुद्ध रूप में उपलब्ध भी नहीं होते।

अतः कह सकते हैं कि अंधविश्वास भी एक विश्वास ही है बस जैसा हम मान लें, न कुछ गलत न ठीक। बस हमारे विश्वास अथवा अंधविश्वास से किसी की हानि न हो।