इच्छाएँ हज़ार

छोटा-सा मन इच्छाएँ हज़ार

पग-पग पर रुकावटें हज़ार

ठोकरों से हम घबराए नहीं

नहीं बदलते राहें हम बार-बार

एक मुस्कान का आदान-प्रदान

क्या आपके साथ

हुआ है कभी ऐसा,

राह चलते-चलते,  

सामने से आते

किसी अजनबी का चेहरा,

अपना-सा लगा हो।

बस यूं ही,

एक मुस्कान का आदान-प्रदान।

फिर पीछे मुड़कर देखना ,

कहीं देखा-सा लगता है चेहरा।

दोनों के चेहरे पर एक-से भाव।

फिर,  

एक हिचकिचाहट-भरी मुस्कान।

और अपनी-अपनी राह बढ़ जाना।

-

सालों-साल,  

याद रहती है यह मुस्कान,

और अकारण ही

चेहरे पर मुस्कान ले आती है।

 

पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी

प्यार मनुहार धार-धार से संवरती है जिन्दगी

मन ही क्या पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी

यूं तो  ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर जाता है

यही तो भाव हैं कि सिर पर सूरज उगा लेती है जिन्दगी

दुनिया मेरी मुट्ठी में

बहुत बड़ा है जगत,

फिर भी कुछ सीढ़ियां चढ़कर

एक गुरूर में

अक्सर कह बैठते हैं हम

दुनिया मेरी मुट्ठी में।

सम्बन्ध रिस रहे हैं,

भाव बिखर रहे हैं,

सांसे थम रही हैं,

दूरियां बढ़ रही हैं।

अक्सर विपदाओं में

साथ खड़े होते हैं,

किन्तु यहां सब मुंह फेर पड़े हैं।

सच कहें तो लगता है,

न तेरे वश में, न मेरे वश में,

समझ से बाहर की बात हो गई है।

समय पर चेतते नहीं।

अब हाथ जोड़ें,

या प्रार्थनाएं करें,

बस देखते रहने भर की बात हो गई है।

बस बातें करने में उलझे हैं हम

किस विवशता में कौन है, कहां है, कब समझे हैं हम।

दिखता कुछ और, अर्थ कुछ और, नहीं समझे हैं हम।

मां-बेटे-से लगते हैं, जीवनगत समस्याओं में उलझे,

नहीं इनका मददगार, बस बातें करने में उलझे हैं हम।

 

नेह का बस एक फूल

जीवन की इस आपाधापी में,

इस उलझी-बिखरी-जि़न्‍दगी में,

भाग-दौड़ में बहकी जि़न्‍दगी में,

नेह का बस कोई एक फूल खिल जाये।

मन संवर संवर जाता है।

पत्‍ती-पत्‍ती , फूल-फूल,

परिमल के संग चली एक बयार,

मन बहक बहक जाता है।

देखएि  कैसे सब संवर संवर जाता है।

 

बाल-मजदूरी का एक श्रेष्ठि रूप

समाज, सरकार, समाजसेवी संस्थाएं बहुत चिन्तन-मनन करती हैं इस बाल-मजदूरी को रोकने के लिए। शिक्षा, रोटी की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं इनके लिए। ढाबों, होटलों, बस-अड्डों, रेलवे-स्टेशन, घरों एवं ऐसे ही अनेक स्थानों पर कार्य करते छोटे-छोटे बच्चों को देखा जा सकता है। वे किसके बच्चे हैं, क्यों कार्य कर रहे हैं, वे किन अभावों में जीवन व्यतीत कर रहे हैं हम में से कोई नहीं जानता। लेकिन वे भीख नहीं मांगते, मेहनत करते हैं। शायद कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को इस तरह के कामों में नहीं डालना चाहते होंगे जब तक कि सामाजिक-आर्थिक विवशता न हो। सम्भव है कुछ बच्चे किसी गिरोह के शिकार बन कर ऐसे कार्य करते हों।

किन्तु जब ऐसे बाल-मजदूरों को उनके काम से हटा दिया जाता है तब वे कैसे जीवन-यापन करते हैं, नहीं पता। क्या उनका पुर्नवास होता है, क्या वे शिक्षा प्राप्त करने लगते हैं, क्या उन्हें भरपेट भोजन मिलने लगता है, नहीं पता। हां, इतना तो हम जानते ही हैं कि जिन पुनर्वास संस्थानों में उन्हें रखा जाता है वहां भी उनसे काम ही लिया जाता है। अनाथालयों में भी इनका शोषण ही होता है।

यह बाल-मजदूरी का वह रूप है जिस पर खूब चर्चाएं, गोष्ठियां होती हैं, चिन्तन होता है और लिखा-पढ़ा जाता है।

किन्तु बाल-मजदूरी का एक श्रेष्ठि रूप भी है जिस पर कभी कोई बात, चर्चा, विरोध नहीं होता।

जो बच्चे फिल्मों, धारावाहिकों, विज्ञापनों, टी.वी. कार्यक्रमों, विभिन्न प्रतियोगिताओं में दिनों, महीनों, सालों काम करते हैं क्या वह केवल कला है, अथवा बाल-मज़दूरी का दूसरा रूप ?यहां की चमक-दमक, प्रलोभन, नाम, प्रचार, आकर्षण में बांधते हैं, विशेषकर निर्धन परिवारों को। इन बाल- प्रतियोगिताओं में निर्धन परिवारों से आये बच्चों की बेचारगी का खूब प्रदर्शन और प्रचार होता है, टी.आर.पी. बढ़ती है। उनकी आर्थिक मदद का भी प्रचार होता है, बढ़िया खरीदारी करवाई जाती है, उनके घर की बदलती आर्थिक स्थिति का भी प्रदर्शन होता है।

 

लाखों में एक बच्चा तो आगे निकल जाता है किन्तु जो पिछड़ जाते हैं उनका क्या होता है, कौन जाने। बहुत पहले इन कार्यक्रमों में पराजित बच्चों की आत्महत्या के समाचार भी पढ़ने में आये थे। इन कार्यक्रमों में विजित बच्चों को इतना महिमा-मण्डित किया जाता है कि कोई भी आकर्षित हो जाये और पराजित बच्चे इतना निरादर अनुभव करते हैं कि वे और उनका परिवार इस तरह रोते-बिलखते हैं मानों कोई बड़ा हादसा हो गया हो। इस चकाचैंध से निकले बच्चे क्या लौटकर अपने सामान्य मध्यवर्गीय जीवन से जुड़ पाते हैं अथवा बिखर कर रह जाते हैं। दिन -प्रति-दिन यह कार्यक्रम, प्रतियोगिताएं न रहकर, कला का मंच न रहकर, केवल धन ही नहीं विलासिता का रूप ले चुके हैं।

चल न मन,पतंग बन

आकाश छूने की तमन्ना है

पतंग में।

एक पतली सी डोर के सहारे

यह जानते हुए भी

कि कट सकती है,

फट सकती है,

लूट ली जा सकती है

तारों में उलझकर रह सकती है

टूटकर धरा पर मिट्टी में मिल सकती है।

किन्तु उन्मुक्त गगन

जीवन का उत्साह

खुली उड़ान,

उत्सव का आनन्द

उल्लास और उमंग।

पवन की गति,

कुछ हाथों की यति

रंगों की मति

राहें नहीं रोकते।

  *    *    *    *

चल न मन,

पतंग बन।

मानव के धोखे में मत आ जाना

समझाया था न तुझको

जब तक मैं न लौटूं

नीड़ से बाहर मत जाना

मानव के 

धोखे में मत आ जाना।

फैला चारों ओर प्रदूषण

कहीं चोट मत खा जाना।

कहां गये सब संगी साथी

कहां ढूंढे अब उनको।

समझाकर गई थी न

सब साथ-साथ ही रहना।

इस मानव के धोखे में मत आ जाना।

उजाड़ दिये हैं रैन बसेरे

कहां बनाएं नीड़।

न फल मिलता है

न जल मिलता है

न कोई डाले चुग्गा।

हाथों में पिंजरे है

पकड़ पकड़ कर हमको

इनमें डाल रहे हैं

कोई अभयारण्य बना रहे हैं,

परिवारों से नाता टूटे

अपने जैसा मान लिया है।

फिर कहते हैं, देखो देखो

हम जीवों की रक्षा करते हैं।

चलो चलो

कहीं और चलें

इन शहरों से दूर।

करो उड़ान की तैयारी

हमने अब यह ठान लिया है।

कहते हैं जब जागो तभी सवेरा

कहते हैं जब जागो तभी सवेरा, पर ऐसा कहां हो पाता है

आधे टूटे-छूटे सपनों से जीवन-भर न पीछा छूट पाता है

रात और दिन के अंधेरे-उजियारे में उलझा रहता है मन

सपनों की गठरी रिसती है यह मन कभी समझ न पाता

समझाने की बात नहीं

आजकल न जाने क्यों

यूं ही 

आंख में पानी भर आता है।

कहीं कुछ रिसता है,

जो न दिखता है,

न मन टिकता है।

कहीं कुछ जैसे

छूटता जा रहा है पीछे कहीं।

कुछ दूरियों का एहसास,

कुछ शब्दों का अभाव।

न कोई चोट, न घाव।

जैसे मिट्टी दरकने लगी है।

नींव सरकने लगी है।

कहां कमी रह गई,

कहां नमी रह गई।

कई कुछ बदल गया।

सब अपना,

अब पराया-सा लगता है।

समझाने की बात नहीं,

जब भीतर ही भीतर

कुछ टूटता है,

जो न सिमटता है

न दिखता है,

बस यूं ही बिखरता है।

एक एहसास है

न शब्द हैं, न अर्थ, न ध्वनि।

फूलों संग महक रही धरा

पत्तों पर भंवरे, कभी तितली बैठी देखो पंख पसारे।

धूप सेंकती, भोजन करती, चिड़िया देखो कैसे पुकारे।

सूखे पत्ते झर जायेंगे, फिर नव किसलय आयेंगें,

फूलों संग महक रही धरा, बरसीं बूंदें कण-कण निखारे।

टांके लगा नहीं रही हूं काट रही हूं

अपनी उलझनों को सिलते-सिलते

निहारती हूं अपना जीवन।

मिट्टी लिपा चूल्हा,

इस लोटे, गागर, थाली

गिलास-सा,

किसी पुरातन युग के

संग्रहालय की वस्तुएं हों मानों

हम सब।

और मैं वही पचास वर्ष पुरानी

आेढ़नी लिये,

बैठी रहती हूं

तुम्हारे आदेश की प्रतीक्षा में।

कभी भी आ सकते हो तुम।

चांद से उतरते हुए,

देश-विदेश घूमकर लौटे,

पंचतारा सुविधाएं भोगकर,

अपने सुशिक्षित,

देशी-विदेशी मित्रों के साथ।

मेरे माध्यम से

भारतीय संस्कृति-परम्पराओं का प्रदर्शन करने।

कैसा होता था हमारा देश।

कैसे रहते थे हम लोग,

किसी प्राचीन युग में।

कैसे हमारे देश की नारी

आज भी निभा रही है वही परम्परा,

सिर पर आेढ़नी लिये।

सिलती है अपने भीतर के टांके

जो दिखते नहीं किसी को।

 

लेकिन, ध्यान से देखो ज़रा।

आज टांके लगा नहीं रही हूं,

काट रही हूं।

 

क्रोध कोई विकार नहीं

अनैतिकता, अन्याय, अनाचार पर क्या क्रोध नहीं आता, जो बोलते नहीं

केवल विनम्रता, दया, विलाप से यह दुनिया चलती नहीं, क्यों सोचते नहीं

नवरसों में क्रोध कोई विकार नहीं मन की सहज सरल अभिव्यक्ति है

एक सुखद परिवर्तन के लिए खुलकर बोलिए, अपने आप को रोकिए नहीं

सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी

साईकिल, हाथी, पंखा, छाता, लिए हाथ  में खड़े  रहे

जब  से आया झाड़ूवाला सब इधर-उधर हैं दौड़ रहे

छूट न जाये,रूठ न जाये, सत्ता की चाहत है बहुत बड़ी

देखेंगे गिनती के बाद कौन-कौन कहां-कहां हैं गढ़े रहे

हम खाली हाथ रह जाते हैं

नदी

अपनी त्वरित गति में

मुहाने पर

अक्सर

छोड़ जाती है

कुछ निशान।

जब तक हम

समझ सकें,

फिर लौटती है

और ले जाती है

अपने साथ

उन चिन्हों को

जो धाराओं से

बिखरे थे

और हम

फिर खाली हाथ

रह जाते हैं

देखते ।

 

रस और गंध और पराग

 

ज़्यादा उंची नहीं उड़ती तितली।

बस फूलों के आस पास
रस और गंध और पराग
बस इतना ही।

समेट लिया मैंने 
अपनी हथेलियों में
दिल से।

समय आत्ममंथन का

पता नहीं यह कैसे हो गया ?

मुझे, अपने पैरों के नीचे की ज़मीन की

फ़िसलन का पता ही न लगा

और आकाश की उंचाई का अनुमान।

बस एक कल्पना भर थी

एक आकांक्षा, एक चाहत।

और मैंने छलांग लगा दी ।

आकाश कुछ ज़्यादा ही उंचा निकला

और ज़मीन कुछ ज़्यादा ही चिकनी।

मैं थी बेखबर, आकाश पकड़ न सकी

और पैर ज़मीन पर टिके नहीं।

 

दु:ख गिरने का नहीं

क्षोभ चोट लगने का नहीं।

पीड़ा हारने की नहीं।

ये सब तो सहज परिणाम हैं,

अनुभव की खान हैं

किसी की हिम्मत के।

समय आत्ममंथन का।

कितना कठिन होता है

अपने आप से पूछना।

और कितना सहज होता है

किसी को गिरते देखना

उस पर खिलखिलाना

और ताली बजाना।

 

कितना आसान होता है

चारों ओर भीड़ का मजमा लगाना।

ढोल बजा बजा कर दुनिया को बताना।

जख़्मों को कुरेद कुरेद कर दिखाना।

 

और कितना मुश्किल होता है

किसी के जख़्मों की तह तक जाना

उसकी राह में पड़े पत्थरों को हटाना

और सही मौके पर सही राह बताना।

 

 

 

झूठ के बल पर

सत्य सदैव प्रमाण मांगता है,
और हम इस डर से, 
कि पता नहीं 
सत्य प्रमाणित हो पायेगा 
या नहीं,
झूठ के बल पर
बेझिझक जीते हैं।
तब हमें 
न सत्य की आंच सहनी पड़ती है,
न किसी के सामने
हाथ फैलाने पड़ते हैं।

पीढ़ी-दर-पीढ़ी
नहीं ढोने पड़ते हैं
आरोपप्रत्‍यारोप,  
न कोई आहुति , न बलिदान,
न अग्नि-परीक्षाएं 

न पाषाण होने का भय।
नि:शंक जीते हैं हम । 

और न अकेलेपन की समस्‍या । 
एक ढूंढो
हज़ारों मिलेंगे साथ चलने के लिए। 

 

हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या

इस जग में एक सुन्दर जीवन मिला है, मर्त्यन लोक है इससे क्या

सुख-दुख तो आने जाने हैं,पतझड़-सावन, प्रकाश-तम है हमको क्या

जब तक जीवन है, भूलकर मृत्यु के डर को जीत लें तो क्या बात है

कोई कुछ भी उपदेश देता रहे, हम तो आनन्दित हैं, तुमको क्या

सुना है कोई भाग्य विधाता है

सुना है

कोई भाग्य विधाता है

जो सब जानता है।

हमारी होनी-अनहोनी

सब वही लिखता है ,

हम तो बस

उसके हाथ की कठपुतली हैं

जब जैसा चाहे वैसा नचाता है।

 

और यह भी सुना है

कि लेन-देन भी सब

इसी ऊपर वाले के हाथ में है।

जो चाहेगा वह, वही तुम्हें देगा।

बस आस लगाये रखना।

हाथ फैलाये रखना।

कटोरा उठाये रखना।

मुंह बाये रखना।

लेकिन मिलेगा तुम्हें वही

जो तुम्‍हारे  भाग्य में होगा।

 

और यह भी सुना है

कर्म किये जा,

फल की चिन्ता मत कर।

ऊपर वाला सब देगा

जो तुम्हारे भाग्य में लिखा होगा।

और भाग्य उसके हाथ में है

जब चाहे बदल भी सकता है।

बस ध्यान लगाये रखना।

 

और यह भी सुना है

कि जो अपनी सहायता आप करता है

उसका भाग्य ऊपर वाला बनाता है।

इसलिए अपनी भी कमर कस कर रखना

उसके ही भरोसे मत बैठे रहना।

 

और यह भी सुना है

हाथ धोकर

इस ऊपर वाले के पीछे लगे रहना।

तन मन धन सब न्योछावर करना।

मन्दिर, मस्जिद, गुरूद्वारा कुछ न छोड़ना।

नाक कान आंख मुंह

सब उसके द्वार पर रगड़ना।

और फिर कुछ बचे

तो अपने लिए जी लेना

यदि भाग्य में होगा तो।

 

आपको नहीं लगता

हमने कुछ ज़्यादा ही सुन लिया है।

 

अरे यार !

अपनी मस्ती में जिये जा।

जो सामने आये अपना कर्म किये जा।

जो मिलना है मिले

और जो नहीं मिलना है न मिले

बस हंस बोलकर आनन्द में जिये जा।

और मुंह ढककर अच्छी नींद लिये जा।

 

आत्मश्लाघा का आनन्द

अच्छा लगता है

जब

किसी-किसी एक दिन

पूरे साल में

बड़े सम्मान से

स्मरण करते हो मुझे।

मुझे ज्ञात होता है

कितनी महत्वपूर्ण हूं मैं

कितनी गुणी, जगद्जननी

मां, सुता, देवी, त्याग की मूर्ति,

इतने शब्द, इतनी सराहना

लबालब भर जाता है मेरा मन

और उलीचने लगते हैं भाव।

 

फिर

सालती हैं 

यह स्मृतियां पूरे साल।

सम्मान पत्र

व्यंग्योक्तियों से

महिमा-मण्डित होने लगते हैं।

रसोई में टांग देती हूं

सम्मान-पत्रों को

हल्दी-नमक से

तिलक करती हूं सारा साल]

कभी-कभी

बर्तनों की धुलाई में

मिट जाती है लिखाई

निकल बह जाते हैं

नाली से

लुगदी बन फंसतीं है कहीं

और फिर पूरा वर्ष

निकल जाता है

सफ़ाई अभियान में।

 

वर्ष में कई बार याद आता है

नारी तू नारायणी।

और हम चहक उठते हैं

मिले इस कुछ दिवसीय सम्मान से।

अपना गुणगान

आप ही करने लगते हैं।

आत्मश्लाघा का भी तो

एक अपना ही आनन्द होता है।

 

 

 

 

झूठ के आवरण चढ़े हैं

चेहरों पर चेहरे चढ़े हैं

असली तो नीचे गढ़े हैं

कैसे जानें हम किसी को

झूठ के आवरण चढ़े हैं