कुछ कह रही ओस की बूंदे
रंग-बिरंगी आभाओं से सजकर रवि हुआ उदित
चिड़ियां चहकीं, फूल खिले, पल्लव हुए मुदित
देखो भाग-भागकर कुछ कह रही ओस की बूंदे
इस मधुर भाव में मन क्यों न हो जाये प्रफुल्लित
कांटों की चुभन
बात पुरानी हो गई जब कांटों से हमें मुहब्बत न थी
एक कहानी हो गई जब फूलों की हमें चाहत तो थी
काल के साथ फूल खिल-खिल बिखर गये बदरंग
कांटों की चुभन आज भी हमारे दिल में बसी क्यों थी
कलश तेरी माया अद्भुत है
कलश तेरी माया अद्भुत है, अद्भुत है तेरी कहानी।
माटी से निर्मित, हमें बताता जीवन की पूरी कहानी।
जल भरकर प्यास बुझाता, पूजा-विधि तेरे बिना अधूरी,
पर, अंतकाल में कलश फूटता, बस यही मेरी कहानी।
एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने
उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।
मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।
न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।
एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।
कहां सीख पाये हैं हम
नयनों की एक बूंद
सागर के जल से गहरी होती है
ढूंढोगे तो किन्तु
जलराशि जब अपने तटबन्धों को
तोड़ती है
तब भी विप्लव होता है
और जब भीतर ही भीतर
सिमटती है तब भी।
कहां सीख पाये हैं हम
सीमाओं में रहना।
प्यार का संदेश
कक्षा 4 का विद्यार्थी सहज, छोटा-सा, मात्र 7-8 वर्ष का। स्कूल से अनायास उसके माता-पिता को फोन जाता है, तत्काल स्कूल पहुंचने का। दोनों घबराये कहीं बच्चे के साथ कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई।
गेट से ही उन्हें लगा कोई गम्भीर घटना घटी है, प्रधानाचार्या के कार्यालय तक पहुंचते-पहुंचते पता नहीं कितने चेहरे क्या-क्या कह रहे थे। वहीं पर सहज खड़ा था रूंआसा-सा, उसकी दो-तीन अध्यापिकाएं पूरे गुस्से में।
सहज असमंसज-भाव में सबके चेहरे देख रहा था कि वह यहां क्यों खड़ा है और क्या हुआ है। उसे तो यही पता था कि प्रधानाचार्या के कमरे में तो बच्चों को पुरस्कार देने के लिए ही बुलाया जाता है।
“ देखिए , आपके आठ साल के बच्चे के हाल! क्या सिखाते हैं आप अपने बच्चे को। आज ही यह हाल है तो बड़ा होकर क्या करेगा? ऐेसे बच्चों को हम स्कूल में नहीं रख सकते।’’
लेकिन मैडम हुआ क्या’’
“ ये लीजिए, आपके होनहार बेटे ने अपनी क्लास की एक लड़की को ये प्यार का संदेश दिया। पढ़िए आप ही। और पूछिए इससे।’’
माता-पिता के हाथ में अपने बेटे सहज के हाथ की लिखी एक छोट-सी पर्ची थी जिस पर लिखा था ‘‘आई लव यू आभा’’।
‘‘आपने बात की क्या इससे।’’
“ जी, नहीं बात क्या करनी, दिखाई नहीं दे रहा कि आपके बच्चे की कैसी सोच है? “
माता-पिता हतप्रभ। कभी एक-दूसरे का चेहरा देखें तो कभी सहज का, जो उत्सुक-सा सबको देख रहा था।
‘‘पूछना चाहिए था आपको, इतनी-सी बात को इतना बड़ा बना देने से पहले। हम तो डर ही गये थे।’’
‘‘लीजिए, आपके सामने मैं ही पूछती हूं ।’’
‘‘सहज, तुम आभा से प्यार करते हो’’
यैस, मम्मी।
क्यों?
मम्मी, आभा बहुत अच्छी है, हर समय हंसती रहती है, अपना लंच भी मुझे देती है, हम साथ ही बैठते हैं, और आप और मैडम भी तो कहते हैं लव आॅल। आप मुझे कितनी बार कहती हैं लव यू बेटू। पापा भी कहते हैं। मेरी मैडम भी कहती है, आई लव यू आॅल।
स्कूल में और आप भी तो यही कहते हैं सबसे प्यार करो, आप मेरा बैग देखो, मैंने तो बहुत से दोस्तों के लिए भी लिख कर रखा है लव यू।
मम्मी मैंने कुछ गलत कर दिया क्या?
सब निरूत्तर थे ।
मैं नहीं जानती कि उसके बाद सहज के साथ क्या हुआ, किन्तु इतना जानती हूं कि जब तक कोई नया गाॅसिप नहीं आ गया, दिनों तक स्कूल में इसी घटना की चर्चा रही कि आजकल इतने छोटे बच्चों के ये हाल हैं तो बड़े होकर क्या करेंगे।
मन टटोलता है प्रस्तर का अंतस
प्रस्तर के अंतस में
सुप्त हैं न जाने कितने जल प्रपात।
कल कल करती नदियां,
झर झर करते झरने,
लहराती बलखाती नहरें,
मन की बहारें, और कितने ही सपने।
जहां अंकुरित होते हैं
नव पुष्प,
पुष्पित पल्लवित होती हैं कामनाएं
जिंदगी महकती है, गाती है,
गुनगुनाती है, कुछ समझाती है।
इन्द्रधनुषी रंगों से
आकाश सराबोर होता है
और मन टटोलता है
प्रस्तर का अंतस।
संधान करें अपने भीतर के शत्रुओं का
ऐसा क्यों होता है
कि जब भी कोई गम्भीर घटना
घटती है कहीं,
देश आहत होता है,
तब हमारे भीतर
देशभक्ति की लहर
हिलोरें लेने लगती है,
याद आने लगते हैं
हमें वीर सैनिक
उनका बलिदान
देश के प्रति उनकी जीवनाहुति।
हुंकार भरने लगते हैं हम
देश के शत्रुओं के विरूद्ध,
बलिदान, आहुति, वीरता
शहीद, खून, माटी, भारत माता
जैसे शब्द हमारे भीतर खंगालने लगते हैं
पर बस कुछ ही दिन।
दूध की तरह
उबाल उठता है हमारे भीतर
फिर हम कुछ नया ढूंढने लगते हैं।
और मैं
जब भी लिखना चाहती हूं
कुछ ऐसा,
नमन करना चाहती हूं
देश के वीरों को
बवंडर उठ खड़ा होता है
मेरे चारों ओर
आवाज़ें गूंजती हैं,
पूछती हैं मुझसे
तूने क्या किया आज तक
देश हित में ।
वे देश की सीमाओं पर
अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं
और तुम यहां मुंह ढककर सो रहे हो।
तुम संधान करो उन शत्रुओं का
जो तुम्हारे भीतर हैं।
शत्रु और भी हैं देश के
जिन्हें पाल-पोस रहे हैं हम
अपने ही भीतर।
झूठ, अन्याय के विरूद्ध
एक छोटी-सी आवाज़ उठाने से डरते हैं हम
भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी अनैतिकता
के विरूद्ध बोलने का
हमें अभ्यास नहीं।
काश ! हम अपने भीतर बसे
इन शत्रुओं का दमन कर लें
फिर कोई बाहरी शत्रु
इस देश की ओर
आंख उठाकर नहीं देख पायेगा।
बस ऐसे ही
पलक और विधान दोनों ही अपने माता-पिता से बहुत निराश थे। पलक ने दसवीं उत्तीर्ण की थी और विधान ने बारहवीं। दोनों ही बहुत उदास थे। माता-पिता चिन्तित। इतने अच्छे अंक आये हैं फिर भी उदासी। कहीं कुछ कर न बैठें।
बार-बार पूछने पर पहले पलक बोली, मां आप बैंक में क्यों नौकरी करती हो, इतनी बड़ी पोस्ट पर? क्या कोई छोटा काम नहीं कर सकती थीं? जैसे किसी के घर झाड़ू-पोचा या कोई बहुत छोटी नौकरी?
साथ ही विधान बोल बैठा, पापा आपको आई. ए. एस. होने की क्या ज़रूरत थी ? क्या आप रिक्शा नहीं चला सकते थे अथवा कोई रेढ़ी, सब्जी-भाजी की छोटी-मोटी दुकान?
जैसे आप हतप्रभ, वैसे ही मैं और वैसे ही पलक और विधान के माता-पिता!
माता-पिता और मैं भी चकित, अचम्भित!
यह है एक काल्पनिक कथा।
अब आते हैं वास्तविकता पर
दसवीं और बाहरवीं के परिणाम घोषित हुए। यदि किसी श्रमिक, दलित, पिछड़े वर्ग अथवा साधन हीन व्यक्ति का बच्चा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण होता है तो उसे मीडिया में बहुत उछाला जाता है। समाचार पत्रों में उनकी, उनके परिवार की खूब चर्चा होती है। नेता-वेत्ता उन्हें सम्मानित करते हैं। पता नहीं कितनी घोषणाएँ की जाती हैं। यह और बात है कि वे कितनी फलित होती हैं कौन देखने जाता है।
देखिए एक सब्जी बेचने वाले के बच्चे ने लिए 95 प्रतिशत अंक।
एक किसान का बेटा पहुंचा यू एस। करोड़ों का वेतन।
रिक्शा चलाने वाले का बेटा बना आई. ए. एस.।
फिर उनके जन्म से लेकर 95 प्रतिशत अंकों तक की पूरी कहानी। सब्जी वाले के बच्चे ने ढेले में बैठकर पढ़ाई की, किसान का बच्चा बैलों के साथ भी पुस्तक लेकर घूमता था और रिक्शा चालक के बेटा रिक्शा भी चलाता था। मोमबत्ती की रोशनी में पढ़ते थे और न जाने क्या-क्या। कई दिन तक उनकी फ़ोटो और साक्षात्कार मीडिया में , समाचार-पत्रों में छाये रहते हैं। फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर पर सब जगह छाये रहते हैं वे। और पलक और विधान को सब भूल जाते हैं।
हम यह बात समझ सकते हैं कि कम सुविधाओं में भी जो बच्चे गुणी, प्रतिभावान निकलते हैं वे निश्चित ही सम्मान-योग्य हैं किन्तु हमें यह समझना होगा कि मीडिया उन्हें उनकी योग्यता के लिए नहीं अपने प्रचार के लिए प्रयोग करता है, हल्की विज्ञापनबाजी के लिए और कभी-कभी अत्याधिक प्रचार-प्रसार ऐसे बच्चों का भविष्य बरबाद भी कर जाता है। वे एक ऐसे मोह से घिर जाते हैं जिसके बारे में वे जानते ही नहीं और अपना वास्तविक लक्ष्य भूल बैठते हैं और जिन बच्चों के माता-पिता शिक्षित, सुविधा-सम्पन्न हैं उन बच्चों का क्या दोष?
ऐसी स्थितियों में अनेक बार निर्धन परिवारों के बच्चे चकाचैंध में भटक जाते हैं और अच्छे परिवारों के बच्चे हीनभावना से ग्रस्त होने लगते हैं।
लाठी का अब ज़ोर चले
रंग फीके पड़ गये
सत्य अहिंसा
और आदर्शों के
पंछी देखो उड़ गये
कालिमा गहरी छा गई।
आज़ादी तो मिली बापू
पर लगता है
फिर रात अंधेरी आ गई।
निकल पड़े थे तुम अकेले,
साथ लोग आये थे।
समय बहुत बदल गया
लहर तुम्हारी छूट गई।
चित्र तुम्हारे बिक रहे,
ले-देकर उनको बात बने
लाठी का अब ज़ोर चले
चित्रों पर हैं फूल चढ़े
राहें बहुत बदल गईं
सब अपनी-अपनी राह चले
अर्थ-अनर्थ यहां हुआ
समझ तुम्हारे आये न।
कैसा दुर्भाग्य है मेरा
कैसा दुर्भाग्य है मेरा
कि जब तक
मेरे साथ दो बैल
और ग़रीबी की रेखा न हो
मुझे कोई पहचानता ही नहीं।
जब तक
मैं असहाय, शोषित न दिखूँ
मुझे कोई किसान
मानता ही नहीं।
मेरी
इस हरी-भरी दुनियाँ में
एक सुख भरा संसार भी है
लहलहाती कृषि
और भरा-पूरा
परिवार भी है।
गुरूर नहीं है मुझे
पर गर्व करता हूँ
कि अन्न उपजाता हूँ
ग्रीष्म-शिशिर सब झेलता हूँ,
आशाओं में जीता हूँ
आशाएँ बांटता हूँ।
दुख-सुख तो
आने-जाने हैं।
अरबों-खरबों के बड़े-बड़े महल
अक्सर भरभराकर गिर जाते हैं,
तो कृषि की
असामयिक आपदा के लिए
हम सदैव तैयार रहते हैं,
हमारे लिए
दान-दया की बात कौन करता है
हम नहीं जानते।
अपने बल पर जीते हैं
श्रम ही हमारा धर्म है
बस इतना ही हम मानते।
एक संस्मरण आम का अचार
आम का अचार डालना भी
एक पर्व हुआ करता था परिवार में।
आम पर बूर पड़ने से पहले ही
घर भर में चर्चा शुरू हो जाती थी।
इतनी चर्चा, इतनी बात
कि होली दीपावली पर्व भी फीके पड़ जायें।
परिवार में एक शगुन हुआ करता था
आम का अचार।
इस बार कितने किलो डालना है अचार
कितनी तरह का।
कुतरा भी डलेगा, और गुठली वाला भी
कतौंरा किससे लायेंगे
फिर थोड़ी-सी सी चटनी भी बनायेंगे।
तेल अलग से लाना होगा
मसाले मंगवाने हैं, धूप लगवानी है
पिछली बार मर्तबान टूट गया था
नया मंगवाना है।
तनाव में रहती थी मां
गर्मी खत्म होने से पहले
और बरसात शुरू होने से पहले
डालना है अचार।
और हम प्रतीक्षा करते थे
कब आयेंगे घर में अचार के आम।
और जब आम आ जाते थे घर में
सुच्चेपन का कर्फ्यू लग जाता था।
और हम आंख बचाकर
दो एक आम चुरा ही लिया करते थे
और चाहते थे कि दो एक आम
तो पके हुए निकल आयें
और हमारे हवाले कर दिये जायें।
लाल मिर्च और नमक लगाकर
धूप में बैठकर दांतों से गुठलियां रगड़ते
और मां चिल्लाती
“ओ मरी जाणयो दंद टुटी जाणे तुहाड़े”।
और जब नया अचार डल जाता था
तो पूरा घर एक आनन्द की सांस लेता था
और दिनों तक महकता था घर
और जब नया अचार डल जाता था
तब दिनों दिनों तक महकता था घर
उस खुशनुमा एहसास और खुशबू से
और जब नया अचार डल जाता था
मानों कोई किला फ़तह कर लिया जाता था।
और उस रात बड़ी गहरी नींद सोती थी मां।
अब चिन्ता शुरू हो जाती थी
खराब न हो जाये
रोज़ धूप लगवानी है
सीलन से बचाना है
तेल डलवाना है।
फिर पता नहीं किस जादुई कोने से
पिछले साल के अचार का एक मर्तबान
बाहर निकल आता था।
मां खूब हंसती तब
छिपा कर रख छोड़ा था
आने जाने वालों के लिए
तुम तो एक गुठली नहीं छोड़ते।
निद्रा पर एक झलकी
जब खरी–खरी कह लेते हैं,नींद भली-सी आती है
ज़्यादा चिकनी-चुपड़ी ठीक नहीं,चर्बी बढ़ जाती है
हृदयाघात का डर नहीं, औरों की नींद उड़ाते हैं
हमको तो जीने की बस ऐसी ही शैली आती है
दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
मैं भाषण देता हूं
मैं राशन देता हूं
मैं झाड़ू देता हूं
मैं पैसे देता हूं
रोटी दी मैंने
मैंने गैस दिया
पहले कर्ज़ दिये
फिर सब माफ़ किया
टैक्स माफ़ किये मैंने
फिर टैक्स लगाये
मैंने दुनिया देखी
मैंने ढोल बजाये
नये नोट बनाये
अच्छे दिन मैं लाया
सारी दुनिया को बताया
ये बेईमानों का देश था,
चोर-उचक्कों का हर वेश था
मैंने सब बदल दिया
बेटी-बेटी करते-करते
लाखों-लाखों लुट गये
पर बेटी वहीं पड़ी है।
सूची बहुत लम्बी है
यहीं विराम लेते हैं
और अगले पड़ाव पर चलते हैं।
*-*-*-*-*-*-*-**-
चुनावों का अब बिगुल बजा
किसका-किसका ढोल बजा
किसको चुन लें, किसको छोड़ें
हर बार यही कहानी है
कभी ज़्यादा कभी कम पानी है
दिमाग़ की बत्ती गुल पड़ी है
आंखों पर पट्टी बंधी है
बस बातें करके सो जायेंगे
और सुबह फिर वही राग गायेंगे।
कितने सबक देती है ज़िन्दगी
भाग-दौड़ में लगी है ज़िन्दगी।
खेल-खेल में रमी है ज़िन्दगी।
धूल-मिट्टी में आनन्द देती
मज़े-मजे़ से बीतती है ज़िन्दगी।
तू हाथ बढ़ा, मैं हाथ थामूँ,
धक्का-मुक्की, उठन-उठाई
नाम तेरा यही है ज़िन्दगी।
आगे-पीछे देखकर चलना
बायें-दायें, सीधे-सीधे
या पलट-पलटकर,
सम्हल-सम्हलकर।
तब भी न जाने
कितने सबक देती है ज़िन्दगी।
तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा
तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा
तेरी मूंछे मेरी मूंछे
पग्गड़ बांध बने हम लाला
तू भी कालू मैं भी काला
चलता है या खींचू गाल
दो बीड़ी लाया हूं
गुमटी पर बैठेंगे
खायेंगे चाट-पकौड़ी
सब कहते बुड्ढा- बुड्ढा
चटोर कहीं का।
कहने दो हमको क्या ।
घर जाकर कह देंगे
पेट ठीक न है
फिर बीबी बोलेगी
बुड्ढा- बुड्ढा ।
बहू गैस की गोली लायेगी,
बेटा पानी देगा,
बीबी चिल्ला़येगी,
बुड्ढा- बुड्ढा ।
बड़ा मज़ा आयेगा।
तू भी बुड्ढा मैं भी बुड्ढा- बुड्ढा
चलता है या खींचू गाल
कृष्ण ने किया था शंखनाद
महाभारत की कथा
पढ़कर ज्ञात हुआ था,
शंखनाद से कृष्ण ने किया था
एक ऐसे युद्ध का उद्घोष,
जिसमें करोड़ों लोग मरे थे,
एक पूरा युग उजड़ गया था।
अपनों ने अपनों को मारा था,
उजाड़े थे अपने ही घर,
लालसा, मोह, घृणा, द्वेष, षड्यन्त्र,
चाहत थी एक राजसत्ता की।
पूरी कथा
बार-बार पढ़ने के बाद भी
कभी समझ नहीं पाई
कि इस शंखनाद से
किसे क्या उपलब्धि हुई।
-
यह भी पढ़ा है,
कि शंखनाद की ध्वनि से,
ऐसे अदृश्य
जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं
जो यूं
कभी नष्ट नहीं किये जा सकते।
इसी कारण
मृत देह के साथ भी
किया जाता है शंखनाद।
-
शुभ अवसर पर भी
होता है शंखनाद
क्योंकि
जीवाणु तो
हर जगह पाये जाते हैं।
फिर यह तो
काल की गति बताती है,
कि वह शुभ रहा अथवा अशुभ।
-
एक शंखनाद
हमारे भीतर भी होता है।
नहीं सुनते हम उसकी ध्वनियां।
एक आर्तनाद गूंजता है और
बढ़ते हैं एक नये महाभारत की ओेर।
दैवीय सौन्दर्य
रंगों की शोखियों से
मन चंचल हुआ।
रक्त वर्ण संग
बासन्तिका,
मानों हवा में लहरें
किलोल कर रहीं।
आंखें अपलक
निहारतीं।
काश!
यहीं,
इसी सौन्दर्य में
ठहर जाये सब।
कहते हैं
क्षणभंगुर है जीवन।
स्वीकार है
यह क्षणभंगुर जीवन,
इस दैवीय सौन्दर्य के साथ।
मेरा प्रवचन है
इस छोटी सी उम्र में ही
जान ले ली है मेरी।
बड़ी बड़ी बातें सिखाते हैं
जीवन की राहें बताते हैं
मुझे क्या बनना है जीवन में
सब अपनी-अपनी राय दे जाते हैं।
और न जाने क्या क्या बताते-समझाते हैं।
इस छोटी सी उम्र में ही
एक नियमावली है मेरे लिए
उठने , बैठने, सोने, खाने-पीने की
पढ़ने और अनेक कलाओं में
पारंगत होने की।
अरे !
ज़रा मेरी उम्र तो देखो
मेरा कद, मेरा वजूद तो देखो
मेरा मजमून तो देखो।
किसे किसे समझाउं
मेरे खेलने खाने के दिन हैं।
देख रहे हैं न आप
अभी से मेरे सिर के बाल उड़ गये
आंखों पर चश्मा चढ़ गया।
तो
मैंने भी अपना मार्ग चुन लिया है।
पोथी उठा ली है
धूनी रमा ली है
शाम पांच बजे
मेरा प्रवचन है
आप सब निमंत्रित हैं।
मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है
मेरे देश को रावणों की ज़रूरत है।
चौराहे पर रीता, बैठक में मीता
दफ्तर में नीता, मन्दिर में गीता
वन वन सीता,
कहती है
रावण आओ, मुझे बचाओ
अपहरण कर लो मेरा
अशोक वाटिका बनवाओ।
ऋषि मुनियों की, विद्वानों की
बलशाली बाहुबलियों की
पितृभक्तों-मातृभक्तों की
सत्यवादी, मर्यादावादी, वचनबद्धों की
अगणित गाथाएं हैं।
वेद-ज्ञाता, जन-जन के हितकारी
धर्मों के नायक और गायक
भीष्म प्रतिज्ञाधारी, राजाज्ञा के अनुचारी
धर्मों के गायक और नायक
वचनों से भारी।
कर्म बड़े हैं, धर्म बड़े हैं
नियम बड़े हैं, कर्म बड़े हैं।
नाक काट लो, देह बांट लो
संदेह करो और त्याग करो।
वस्त्र उतार लो, वस्त्र चढ़ा दो।
श्रापित कर दो, शिला बना दो।
मुक्ति दिला दो। परीक्षा ले लो।
कथा बना लो।चरित्र गिरा दो।
देवी बना दो, पूजा कर लो
विसर्जित कर दो।
हरम सजा लो, भोग लगा लो।
नाच नचा लो, दुकान सजा लो।
भाव लगा लो। बेचो-बेचो और खरीदो।
बलात् बिठा लो, बलात् भगा लो।
मूर्ख बहुत था रावण।
जीत चुका था जीवन ,हार चुकी थी मौत।
विश्व-विजेता, ज्ञानी-ध्यानी
ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी।
न चेहरा देखा, न स्पर्श किया।
पत्नी बना लूं, हरम सजा लूं
दासी बना लूं
बिना स्वीकृति कैसे छू लूं
सोचा करता था रावण।
मूर्ख बहुत था रावण।
सुरक्षा दी, सुविधाएं दी
इच्छा पूछी, विनम्र बना था रावण।
दूर दूर रहता था रावण।
मूर्ख बहुत था रावण।
धर्म-विरोधी, काण्ड-विरोधी
निर्मम, निर्दयी, हत्यारा,
असुर बुद्धि था रावण।
पर औरत को औरत माना
मूर्ख बहुत था रावण।
अपमान हुआ था एक बहन का
था लगाया दांव पर सिहांसन।
राजा था, बलशाली था
पर याचक बन बैठा था रावण
मूर्ख बहुत था रावण।
यह जिजीविषा की विवशता है
यह जिजीविषा की विवशता है
या त्याग-तपस्या, ज्ञान की सीढ़ी
जीवन से विरक्तता है
अथवा जीवित रहने के लिए
दुर्भाग्य की सीढ़ी।
ज्ञान-ध्यान, धर्म, साधना संस्कृति,
साधना का मार्ग है
अथवा ढकोसलों, अज्ञान, अंधविश्वासों को
व्यापती एक पाखंड की पीढ़ी।
या एकाकी जीवन की
विडम्बानाओं को झेलते
भिक्षा-वृत्ति के दंश से आहत
एक निरूपाय पीढ़ी।
लाखों-करोड़ों की मूर्तियां बनाने की जगह
इनके लिए एक रैन-बसेरा बनवा दें
हर मन्दिर के किसी कोने में
इनके लिए भी एक आसन लगवा दें।
कोई न कोई काम तो यह भी कर ही देंगे
वहां कोई काम इनको भी दिलवा दें,
इस आयु में एक सम्मानजनक जीवन जी लें
बस इतनी सी एक आस दिलवा दें।
लिखने के लिए
कविता लिखने के लिए
शब्दों की एक सीमा है
मेरे भीतर,
जो कट जाती है उस समय ,
जब मुझे कविता नहीं लिखनी होती।
त्रिवेणी विधा में रचना २
चेहरे अब अपने ही चेहरे पहचानते नहीं
मोहरे अब चालें चलना जानते ही नहीं
रीति बदल गई है यहां प्रहार करने की