कौन देता है आज मान

सादगी, सच्चाई, सीधेपन को कौन देता है आज मान

झूठी चमक, बनावट के पीछे भागे जग, यह ले मान

इस आपा धापी से बचकर रहना रे मन, सुख पायेगा

अमावस हो या ग्रहण लगे, तू ले, सुर में, लम्बी तान

प्यार के इज़हार के लिए

आ जा,

आज ज़रा

ताज के साये में

कुछ देर बैठ कर देखें।

क्या एहसास होता है

ज़रा सोच कर देखें।

किसी के प्रेम के प्रतीक को

अपने मन में उतार कर देखें।

क्या सोचकर बनाया होगा

अपनी महबूबा के लिए

इसे किसी ने,

ज़रा हम भी आजमां कर तो देखें।

न ज़मीं पर रहता है

न आसमां पर,

किस के दिल में कौन रहता है

ज़रा जांच कर देखें।

प्यार के इज़हार के लिए

इन पत्थरों की क्या ज़रूरत थी,

बस एक बार

हमारे दिल में उतर कर तो देखें।
एक अनछुए एहसास-सी,

तरल-तरल भाव-सी,

प्रेम की कही-अनकही कहानी

नहीं कह सकता यह ताज जी।

जो रीत गया वह बीत गया

चेहरे की रेखाओं की गिनती मत करना यारो
जरा,अनुभव,पतझड़ की बातें मत करना यारो
यहां मदमस्त मौमस की मस्ती हम लूट रहे हैं
जो रीत गया उसका क्यों है दु:ख करना यारो   

बचाकर रखी है भीतर तरलता

कितना भी काट लो, कुछ है, जो जड़ें  जमाये रखता है

न भीतर से टूटने देता है, मन में इक आस बनाये रखता है

बचाकर रखी है भीतर तरलता, नयी पौध तो पनपेगी ही,

धरा से जुड़े हैं तो कदम संभलेंगे, यह विश्वास जगाये रखता है

 

ठहरा-सा लगता है  जीवन

नदिया की धाराओं में टकराव नहीं है

हवाओं के रुख वह में झनकार नहीं है

ठहरा-ठहरा-सा लगता है अब जीवन

जब मन में ही अब कोई भाव नहीं हैं

इच्छाएँ हज़ार

छोटा-सा मन इच्छाएँ हज़ार

पग-पग पर रुकावटें हज़ार

ठोकरों से हम घबराए नहीं

नहीं बदलते राहें हम बार-बार

सूरज गुनगुनाया आज

सूरज गुनगुनाया आज

मेरी हथेली में आकर,

कहने लगा

चल आज

इस तपिश को

अपने भीतर महसूस कर।

मैं न कहता कि आग उगल।

पर इतना तो कर

कि अपने भीतर के भावों को

आकाश दे,

प्रभात और रंगीनियां दे।

उत्सर्जित कर

अपने भीतर की आग

जिससे दुनिया चलती है।

मैं न कहता कि आग उगल

पर अपने भीतर की

तपिश को बाहर ला,

नहीं तो

भीतर-भीतर जलती यह आग

तुझे भस्म कर देगी किसी दिन,

देखे दुनिया

कि तेरे भीतर भी

इक रोशनी है

आस है, विश्वास है

अंधेरे को चीर कर

जीने की ललक है

गहराती परछाईयों को चीरकर

सामने आ,

अपने भीतर इक आग जला।

 

 

 

 

कर्मनिष्ठ जीवन तो जीना होगा

 

ये कैसा रंगरूप अब तुम ओढ़कर चले हो,

क्यों तुम दुनिया से यूं मुंह मोड़कर चले हो,

कर्मनिष्ठ-जीवन में विपदाओं से जूझना होगा,

त्याग के नाम पर कौन से सफ़र पर चले हो।

ख़ुद में कमियाँ निकालते रहना

मेरा अपना मन है।

बताने की बात तो नहीं,

फिर भी मैंने सोचा

आपको बता दूं

कि मेरा अपना मन है।

आपको अच्छा लगे

या बुरा,

आज,

मैंने आपको बताना

ज़रूरी समझा कि

मेरा अपना मन है।

 

यह बताना

इसलिए भी ज़रूरी समझा

कि मैं जैसी भी हूॅं,

अच्छी या बुरी,

अपने लिए हूॅं

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

यह बताना

इसलिए भी

ज़रूरी हो गया था

कि मेरा अपना मन है,

कि मैं अपनी कमियाॅं

जानती हूॅं

नहीं जानना चाहती आपसे

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

जैसी भी हूॅं, जो भी हूॅं

अपने जैसी हूॅं,

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

चाहती हू

किसी की कमियाॅं न देखूॅं

बस अपनी कमियाॅं निकालती रहूॅं

क्योंकि मेरा अपना मन है।

 

सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी

जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी

कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे

आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।

तरल-तरल भाव सी

बहकती है ज़िन्दगी

राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी

चलें हिल-मिल

कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी

किसी और से क्या लेना

जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी

आज भीग ले अन्तर्मन,

कदम-दर-कदम

मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी

राहें सूनी हैं तो क्या,

तुम साथ हो

तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।

आगे बढ़ते रहें

तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी

    

न जाने अब क्या हो

बस शैल्टर में बैठे दो

सोच रहे हैं न जाने क्या हो।

‘गर बस न आई तो क्या हो।

दोनों सोचे दूजा बोले

तो कुछ तो साहस हो।

बारिश शुरु होने को है

‘गर हो गई तो

भीग जायेंगे

कहीं बुखार हो गया तो।

कोरोना का डर लागे है

पास  होकर पूछें तो।

घर भी मेरा दूर है

क्या इससे बात करुँ

साथ चलेगा ‘गर जो

बस न आई अगर

कैसे जाउंगी मैं घर को।

यह अनजान आदमी

अगर बोल ले बोल दो।

तो कुछ साहस होगा जो

सांझ ढल रही,

लाॅक डाउन का समय हो गया

अंधेरा घिर रहा

न जाने अब क्या हो।

 

निकम्मे कर्मचारी

एक छोटा-सी हास्य रचना

एक पुरानी और बड़ी आई. टी. कम्पनी। वे दोनों मित्र घर से दूर, एक इस एक अच्छी आई. टी. कम्पनी में कार्यरत । वैसे तो शनिवार और रविवार को छुट्टी रहती थी, किन्तु नया-नया शौक, पैसे कमाने की ललक, और सोचते घर रहकर भी क्या करेंगे, चलो आफ़िस चलते हैं। पहली नौकरी थी । शौक भी था कि काम ज्यादा करेंगे तो आगे बढ़ेंगें।  और यदि कोई कर्मचारी ज्.यादा काम करना चाहता है तो प्रबन्धक क्यों मना करेंगे। आईये, आपको कोई अतिरिक्त भत्ता तो देना नहीं था।

सो अब शनिवार और रविवार को प्रायः आफ़िस खुलता। पहले ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि  कि छुट्टी के दिन कभी आफिस खुलता हो। फिर जब कर्मचारी आयेंगे, तो सहायक कर्मचारियों को भी आना पड़ता है, उन्हें चाहे ओवर-टाईम मिलता हो, किन्तु छुट्टी तो खराब हो जाती है।

नई भर्तियों के बाद अब कुछ ज्यादा ही होने लगा था।

एक दिन उनके बॉस ने उन दोनों नये कर्मचारियों को बुलाया और कहा कि तुम्हारे विरूद्ध शिकायत आई है कि तुम दोनों बहुत निकम्मे हो।

दोनों घबरा गये कि क्या हुआ।

बॉस ने कहा कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों ने शिकायत की है कि कैसे निकम्मे नये कर्मचारी भर्ती किये हैं, कि छुट्टी के दिन भी काम करने आना पड़ता है।

  

हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है

हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है 

हिन्दी मेरा मान है,

मेरा भारत महान है।

घूमता जहान है।

किसकी भाषा,

कौन सी भाषा,

किसको कितना ज्ञान है।

जबसे जागे

तब से सुनते,

हिन्दी को अपनाना है।

समझ नहीं पाई आज तक

कहां से इसको लाना है।

जब है ही अपनी

तो फिर से क्यों अपनाना है।

कहां गई थी चली

कि इसको

फिर से अपना मनवाना है।

’’’’’’’’’.’’’’’’

कुछ बातें

समय के साथ

समझ से बाहर हो जाती हैं,

उनमें हिन्दी भी एक है।

काश! कविताएं लिखने से,

एक दिन मना लेने से,

महत्व बताने से,

किसी का कोई भला हो पाता।

मिल जाती किसी को सत्ता,

खोया हुआ सिंहासन,

जिसकी नींव

पिछले 72 वर्षों से

कुरेद रहे हैं।

अपनी ही

भाषाओं और बोलियों के बीच

सत्ता युद्ध करवा रहे हैं।

कबूतर के आंख बंद करने मात्र से

बिल्ली नहीं भाग जाती।

काश!

यह बात हमारी समझ में आ जाती,

चलने दो यारो

जैसा चल रहा है।

हां, हर वर्ष

दो-चार कविताएं लिखने का मौका

ज़रूर हथिया ले लेना

और कोई पुरस्कार मिले

इसका भी जुगाड़ बना लेना।

फिर कहना

हिन्दी मेरा मान है,

मेरा भारत महान है।

हम नित मूरख बन जायें

ज्ञानी-ध्यानी

पंडित-पंडे

भारी-भरकम।

पोथी बांचे

ज्ञान बांटें

हरदम।

गद्दी छोटी

पोटली मोटी

हम जैसे

अनपढ़।

डर का पाठ

हमें पढ़ाएं,

ईश्वर से डरना

हमें सिखाएं,

झूठ-सच से

हमें डराएं।

दान-दक्षिणा

से भरमाएं।

जेब हमारी खाली

हम नित

मूरख बन जायें।

 

 

 

अन्तर्मन की आवाजें

 

अन्तर्मन की आवाजें अब कानों तक पहुंचती नहीं

सन्नाटे को चीरकर आती आवाजें अन्तर्मन को भेदती नहीं

यूं तो पत्ता भी खड़के, तो हम तलवार उठा लिया करते हैं

पर बडे़-बडे़ झंझावातों में उजडे़ चमन की बातें झकझोरती नहीं

शब्दों की झोली खाली पाती हूं

जब भावों का ज्वार उमड़ता है, तब सोच-समझ उड़ जाती है

लिखने बैठें तो अपने ही मन की बात कहां समझ में आती है

कलम को क्यों दोष दूं, क्यों स्याही फैली, सूखी या मिट गई

भावों को किन शब्दों में ढालूं, शब्दों की झोली खाली पाती हूं

मन की बातें न बताएं

पन्नों पर लिखी हैं मन की वे सारी गाथाएं

जो दुनिया तो  जाने थी पर मन था छुपाए

पर इन फूलों के अन्तस में हैं वे सारी बातें

न कभी हम उन्हें बताएं न वो हमें जताएं

बहके हैं रंग

रंगों की आहट से खिली खिली है जिन्दगी

अपनों की चाहत से मिली मिली है जिन्दगी

बहके हैं रंग, चहके हैं रंग, महके हैं रंग,

 रंगों की रंगीनियों से हंसी हंसी है जिन्दगी

पीतल है या सोना

 सोना वही सोना है, जिस पर अब हाॅलमार्क होगा।

मां, दादी से मिले आभूषण, मिट्टी का मोल होगा।

वैसे भी लाॅकर में बन्द पड़े हैं, पीतल है या सोना,

सोने के भाव राशन मिले, तब सोने का क्या होगा।

निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

कुछ शहरों की हैं दूरियां, कुछ काम-काज की दूरियां

मेल-मिलाप कैसे बने, निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

परिवार निरन्तर छिटक रहे, दूर-पार सब जा रहे,

तकनीक आज मिटा रही हम सबके बीच की दूरियां

 

अपने-आप से मिलना

 

मन के भीतर

एक संसार है

जो केवल मेरा है।

उससे मिलने के लिए

मुझे

अपने-आप से मिलना होता है

बुरा मत मानना

तुमसे विलग होना होता है।

 

प्रेम-प्यार के मधुर गीत

मौसम बदला, फूल खिले, भंवरे गुनगुनाते हैं।

सूरज ने धूप बिखेरी, पंछी मधुर राग सुनाते हैं।

जी चाहता है भूल जायें दुनियादारी के किस्से,

चलो मिलकर प्रेम-प्यार के मधुर गीत गाते हैं।

नौ दिन बीतते ही

वर्ष में

बस दो बार

तेरे अवतरण की

प्रतीक्षा करते हैं

तेरे रूप-गुण की

चिन्ता करते हैं

सजाते हैं तेरा दरबार

तेरे मोहक रूप से

आंखें नम करते हैं

गुणगान करते हैं

तेरी शक्ति, तेरी आभा से

मन शान्त करते हैं।

दुराचारी

प्रवृत्तियों का

दमन करते हैं।

किन्तु

नौ दिन बीतते ही

तिरोहित कर

भूल जाते हैं

और लौट आते हैं

अपने चिर-स्वभाव में।