बचपन में कथा पढ़ी है,
टोपी वाला टोपी बेचे,
पेड़ के नीचे सो जाये।
बन्दर उसकी टोपी ले गये,
पेड़ पर बैठे उसे चिड़ायें।
टोपी पहने भागे जायें।
बन्दर थे पर नकल उतारें।
टोपी वाले ने आजमाया
अपनी टोपी फेंक दिखलाया।
बन्दरों ने भी टोपी फेंकी,
टोपी वाला ले उठाये।
.
हर पांच साल में आती हैं,
टोपी पहनाकर जाती हैं।
समझ आये तो ठीक
नहीं तो जाकर माथा पीट।
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कर्मनिष्ठ जीवन तो जीना होगा
ये कैसा रंगरूप अब तुम ओढ़कर चले हो,
क्यों तुम दुनिया से यूं मुंह मोड़कर चले हो,
कर्मनिष्ठ-जीवन में विपदाओं से जूझना होगा,
त्याग के नाम पर कौन से सफ़र पर चले हो।
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पानी के बुलबुलों सी ज़िन्दगी
जल के चिन्ह
कभी ठहरते नहीं
पलभर में
अपना रूप बदलकर
भाग जाते हैं
बिखर जाते हैं
तो कभी कुछ
नया बना जाते हैं।
छलक-छलक कर
बहुत कुछ कह जाते हैं
हाथों से छूने पर
बुलबुलों से
भाग जाते हैं।
लेकिन कभी-कभी
जल की बूंदें भी
बहुत गहरे
निशान बना जाती हैं
जीवन में,
बस हम अर्थ
ढूंढते रह जाते हैं।
और ज़िन्दगी
जब
कदम-ताल करती है,
तब हमारी समझ भी
पानी के बुलबुलों-सी
बिखर-बिखर जाती है।
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एक किरण लेकर चला हूँ
रोशनियों को चुराकर चला हूँ,
सिर पर उठाकर चला हूँ।
जब जहां अवसर मिलेगा
रोश्नियां बिखेरने का
वादा करके चला हूँ।
अंधेरों की आदत बनने लगी है,
उनसे दो-दो हाथ करने चला हूँ।
जानता हूं, है कठिन मार्ग
पर अकेल ही अकेले चला हूँ।
दूर-दूर तक
न राहें हैं, न आसमां, न जमीं,
सब तलाशने चला हूं।
ठोकरों की तो आदत हो गई है,
राहों को समतल बनाने चला हूँ।
कोई तो मिलेगा राहों में,
जो संग-संग चलेगा,
साथ उम्मीद की, हौंसलों की भी
एक किरण लेकर चला हूँ।
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आदरणीय शिव जी पर एक रचना
कुछ कथाएं
मुझे कपोल-कल्पित लगती हैं
एक आख्यान
किसी कवि-कहानीकार की कल्पना
किसी बीते युग का
इतिहास का पुर्नआख्यन,
कहानी में कहानी
कहानी में कहानी और
फिर कहानी में कहानी।
जाने-अनजाने
घर कर गई हैं हमारे भीतर
इतने गहरे तक
कि समझ-बूझ से परे हो जाती हैं।
** ** ** **
भूत-पिचाश हमारे भीतर
बुद्धि पर भभूत चढ़ी है,
विषधर पाले अपने मन में
नर-मुण्डों-सा भावहीन मन है।
वैरागी की बातें करते
लूट-खसोट मची हुई है।
आंख-कान सब बंद किये हैं
गौरी, सुता सब डरी हुई हैं।
त्रिपुरारी, त्रिशूलधारी की बातें करते
हाथों में खंजर बने हुए हैं।
गंगा की तो बात न करना
भागीरथी रो रही है।
डमरू पर ताण्डव करते
यहां सब डरे हुए हैं।
** ** ** **
फिर कहते
शिव-शिव, शिव-शिव,
शिव-शिव, शिव-शिव।
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मौन को मुखर कीजिए
बस अब बहुत हो चुका,
अब मौन को मुखर कीजिए
कुछ तो बोलिए
न मुंह बन्द कीजिए।
संकेतों की भाषा
कोई समझता नहीं
बोलकर ही भाव दीजिए।
खामोशियां घुटती हैं कहीं
ज़रा ज़ोर से बोलकर
आवाज़ दीजिए।
जो मन न भाए
उसका
खुलकर विरोध कीजिए।
यह सोचकर
कि बुरा लगेगा किसी को
अपना मन मत उदास कीजिए।
बुरे को बुरा कहकर
स्पष्ट भाव दीजिए,
और यही सुनने की
हिम्मत भी
अपने अन्दर पैदा कीजिए।
चुप्पी को सब समझते हैं कमज़ोरी
चिल्लाकर जवाब दीजिए।
कलम की नोक तीखी कीजिए
शब्दों को आवाज़ कीजिए।
मौन को मुखर कीजिए।
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राम से मैंने कहा
राम से मैंने कहा, लौटकर न आना कभी इस धरा पर किसी रूप में।
सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव, हनुमान, उर्मिला नहीं मिलेंगें किसी रूप में।
किसने अपकर्म किया, किसे दण्ड मिला, कुछ तो था जो सालता है,
वही पुरानी लीक पीट रहे, सोच-समझ पर भारी धर्मान्धता हर रूप में
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दूध-घी की नदियाॅं
कहते हैं
भारत में कभी
दूध-घी की
नदियाॅं बहती थीं
और किसी युग में
दूध-दहीं की
मटकियाॅं फोड़ने की
परम्परा थी
और उस युग की महिलाएॅं
इसका खूब आनन्द लिया करती थीं।
ये सब
शायद मेरे जन्म से
पहले की बातें रही होगी।
क्योंकि हमने तो
दूध को
जब भी देखा
प्लास्टिक की थैलियों में देखा।
इतना ज़रूर है
कि जब कभी थैली फ़टी है
तो दूध की नदियाॅं और
माॅं की डांट साथ बही है।
वैसे सुना है
दूध बड़ा उपयोगी पेय है
बहुत कुछ देता है
बस, ज़रा ध्यान से
उसे मथना पड़ता है
फिर बहुत कुछ निकलकर आता है।
वैसे दूध के
और भी
बड़े उपयोग हुआ करते हैं
इंसान को मिले न मिले,
हम सांपों को दूध पिलाते हैं
यह और बात है
कि पता नहीं लगता
कि वे कब
आस्तीन के साॅंप बन जाते हैं
और हम
कुछ भी समझ नहीं पाते हैं।
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साहस है मेरा
साहस है मेरा, इच्छा है मेरी, पर क्यों लोग हस्तक्षेप करने चले आते हैं
जीवन है मेरा, राहें हैं मेरी, पर क्यों लोग “कंधा” देने चले आते हैं
अपने हैं, सपने हैं, कुछ जुड़ते हैं बनते हैं, कुछ मिटते हैं, तुमको क्या
जीती हूं अपनी शर्तों पर, पर पता नहीं क्यों लोग आग लगाने चले आते हैं
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भावों की छप-छपाक
यूं ही जीवन जीना है।
नयनों से छलकी एक बूंद
कभी-कभी
सागर के जल-सी गहरी होती है,
भावों की छप-छपाक
न जाने क्या-क्या कह जाती है।
और कभी ओस की बूंद-सी
झट-से ओझल हो जाती है।
हो सकता है
माणिक-मोती मिल जायें,
या फिर
किसी नागफ़नी में उलझे-से रह जायें।
कौन जाने, कब
फूलों की सुगंध से मन महक उठे,
तरल-तरल से भाव छलक उठें।
इसी निराश-आस-विश्वास में
ज़िन्दगी बीतती चली जाती है।
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अच्छा लगता है भूलना
ज़िन्दगी
कोई छपी हुई
चित्र-कथा तो नहीं
कि जब चाहा
स्मृतियों के पृष्ठ
उलट-पुलट लिए
और पढ़ते रहे
अगला-पिछला।
समस्या यह
कि जो भूलना चाहते हैं
वह तो
स्मृति-पटल पर
पत्थरों पर कुरेदी गई
लिपि-सा रह जाता है
और जो याद रहना चाहिए
वह रेत पर फैले शब्दों-सा
बिखर-बिखर जाता है।
लेकिन फिर भी
अच्छा लगता है भूलना
ज़िन्दगी मे बहुत कुछ,
चाहे सारी दुनिया कहे
बुढ़ा गये हैं ये
इन्हें
अब कुछ याद नहीं रहता।