बिखरती है ज़िन्दगी

अपनों के बीच

निकलती है ज़िन्दगी,

न जाने कैसे-कैसे

बिखरती है ज़िन्दगी।

बहुत बार रोता है मन

कहने को कहता है मन।

किससे कहें

कैसे कहें

कौन समझेगा यहां

अपनों के बीच

जब बीतती है ज़िन्दगी।

शब्दों को शब्द नहीं दे पाते

आंखों से आंसू नहीं बहते

किसी को समझा नहीं पाते।

लेकिन

जीवन के कुछ

अनमोल संयोग भी होते हैं

जब बिन बोले ही

मन की बातों को

कुछ गैर समझ लेते हैं

सान्त्वना के वे पल

जीवन को

मधुर-मधुर भाव दे जाते हैं।

अपनों से बढ़कर

अपनापन दे जाते हैं।