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सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का रचनाकार
यह विधाता,
जगत-नियन्ता
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का रचनाकार।
इसकी कुछ बातें मुझे
समझ ही नहीं आतीं।
इतने बड़े ब्रह्माण्ड का निर्माण किया
करोड़ों जीव-जन्तु बनाये
कितना श्रम किया होगा
कितना तो समय लगा होगा
शायद अरबों-खरबों वर्ष।
फिर उनकी देख-भाल
नवीनीकरण, और पता नहीं क्या-क्या।
किन्तु इतनी बड़़ी भूल
कैसे हो सकती है।
विज्ञान कहता है
जब बच्चा जन्म लेता है
तो उसके शरीर में
300 हड्डियाँ होती हैं
जो कालान्तर में 206 में
बदल जाती हैं।
और 300 हड्डियों को
लगाते-लगाते
जिह्वा में हड्डी लगाना ही भूल गये।
.
शायद, इसीलिए
अकेली जिह्वा ही
ज़रा-सा हिलकर
206 हड्डियों वाले
किसी भी ढांचे की
चूर-चूर, चकनाचूर
करने की क्षमता रखती है।
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किसी के मन न भाती है
पुस्तकों पर सिर रखकर नींद बहुत अच्छी आती है
सपनों में परीक्षा देती, परिणाम की चिन्ता जाती है
सब कहते हैं पढ़-पढ़ ले, जीवन में कुछ अच्छा कर ले
कुछ भी कर लें, बन लें, तो भी किसी के मन न भाती है
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जब प्रेम कहीं से मिलता है
अनबोले शब्दों की चोटें
भावों को ठूंठ बना जाती हैं।
कब रस-पल्लव झड़ गये
जान नहीं पाते हैं।
जब प्रेम कहीं से मिलता है,
तब मन कोमल कोंपल हो जाता है।
रूखे-रूखे भावों से आहत,
मन तरल-तरल हो जाता है।
बिखरे सम्बन्धों के तार कहीं जुड़ते हैं।
जीवन हरा-भरा हो जाता है।
मुस्काते हैं कुछ नव-पल्ल्व,
कुछ कलियां करवट लेती हैं,
जीवन इक खिली-खिली
बगिया-सा हो जाता है।
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और कितना सच कहूं
सच कहूं तो
अब सच बोलने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब मन किसी काम में नहीं लगता।
सच कहूं तो
अब कुछ भी यहां अच्छा नहीं लगता।
सच कहूं तो
अब कुछ लिखने में मन नहीं लगता।
सच कहूं तो
अब विश्वास लायक कोई नहीं दिखता।
सच कहूं तो
अब रफ्फू सीने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब रिश्ते सुलझाने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब अपनों से ही बात करने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब हंसने या रोने का भी मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब सपनों में जीने का मन नहीं करता।
सच कहूं तो
अब तुमसे भी बात करने का मन नहीं करता।
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कुछ तो बदल गया है
आजकल
लिखते-लिखते
अक्सर हाथ रुक जाते हैं,
भाव बहक जाते हैं।
शब्द वही हैं
भाषा वही है
पर पता नहीं क्यों
अर्थ बदल जाते हैं।
मीठा बोलते-बोलते
वाणी में न जाने कैसे
कटुता आ जाती है
और शब्द
कहीं दूर भाग जाते हैं।
मैं बदल गई हूॅं या तुम
या यह दुनिया
समझ नहीं पाई,
सब बदले-बदले-से लगते हैं।
प्यार कहो
तो तिरस्कार का एहसास होता है।
अपनापन जताओ तो
दूरियों का भाव आता है,
सम्मान की बात सुनकर
अपमान का एहसास
क्यों आता है।
शब्द वही हैं, भाषा वही है
पर कुछ तो बदल गया है।
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रिश्तों का असमंजस
कुछ रिश्ते
फूलों की तरह होते हैं
और कुछ कांटों की तरह।
फूलों को सहेज लीजिए
कांटों को उखाड़ फेंकिए।
नहीं तो, बहुत
असमंजस की स्थिति
बनी रहती है।
किन्तु, कुछ कांटे
फूलों के रूप में आते हैं ,
और कुछ फूल
कांटों की तरह
दिखाई देते हैं।
और कभी कभी,
दोनों
साथ-साथ उलझे भी रहते हैं।
बड़ा मुश्किल होता है परखना।
पर परखना तो पड़ता ही है।
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राख पर किसी का नाम नहीं होता
युद्ध की विभीषिका
देश, शहर
दुनिया या इंसान नहीं पूछती
बस पीढ़ियों को
बरबादी की राह दिखाती है।
हम समझते हैं
कि हमने सामने वाले को
बरबाद कर दिया
किन्तु युद्ध में
इंसान मारने से
पहले भी मरता है
और मारने के बाद भी।
बच्चों की किलकारियाँ
कब रुदन में बदल जाती हैं
अपनों को अपनों से दूर ले जाती हैं
हम समझ ही नहीं पाते।
और जब तक समझ आता है
तब तक
इंसानियत
राख के ढेर में बदल चुकी होती है
किन्तु हम पहचान नहीं पाते
कि यह राख हमारी है
या किसी और की।
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कांटों की चुभन
बात पुरानी हो गई जब कांटों से हमें मुहब्बत न थी
एक कहानी हो गई जब फूलों की हमें चाहत तो थी
काल के साथ फूल खिल-खिल बिखर गये बदरंग
कांटों की चुभन आज भी हमारे दिल में बसी क्यों थी
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अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता
मां का कोई नाम नहीं होता, मां का कोई दाम नहीं होता
मां तो बस मां होती है उसका कोई अलग पता नहीं होता
घर के कण-कण में, सहज-सहज अनदेखी-अनबोली मां
अधूरा लगता है जीवन जब सिर पर मां का हाथ नहीं होता
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हिन्दी के प्रति
शिक्षा
अब ज्ञान के लिये नहीं
लाभ के लिए
अर्जित की जाती है,
और हिन्दी में
न तो ज्ञान दिखाई देता है
और न ही लाभ।
बस बोलचाल की
भाषा बनकर रह गई है,
कहीं अंग्रेज़ी हिन्दी में
और कहीं हिन्दी
अंग्रेज़ी में ढल गई है।
कुछ पुरस्कारों, दिवसों,
कार्यक्रमों की मोहताज
बन कर रह गई है।
बात तो बहुत करते हैं हम
हिन्दी चाहिए, हिन्दी चाहिए
किन्तु
कभी आन्दोलन नहीं करते
दसवीं के बाद
क्यों नहीं
अनिवार्य पढ़ाई जाती है हिन्दी।
प्रदूषित भाषा को
चुपचाप पचा जाते हैं हम।
सरलता के नाम पर
कुछ भी डकार जाते हैं हम।
गूगल अनुवादक लगाकर
हिन्दी लेखक होने का
गर्व पालते हैं हम।
प्रचार करते हैं
वैज्ञानिक भाषा होने का,
किन्तु लेखन और उच्चारण के
बीच के सम्बन्ध को
तोड़ जाते हैं हम।
कंधों पर उठाये घूम रहे हैं
अवधूत की तरह।
दफ़ना देते हैं
अपराधी की तरह।
और बेताल की तरह,
हर बार
वृक्ष पर लटक जाते हैं
कुछ प्रश्न अनुत्तरित।
हर वर्ष, इसी दिन
चादर बिछाकर
जितनी उगाही हो सके
कर लेते हैं
फिर वृक्ष पर टंग जाता है बेताल
अगली उगाही की प्रतीक्षा में।