बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

इधर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

अभियान ज़ोरों पर है।

विज्ञापनों में भरपूर छाया है

जिसे देखो वही आगे आया है।

भ्रूण हत्याओं के विरूद्ध नारे लग रहे हैं

लोग इस हेतु

घरों से निकलकर सड़कों पर आ रहे हैं,

मोमबत्तियां जला रहे हैं।

लेकिन क्या सच में ही

बदली है हमारी मानसिकता !

प्रत्येक नवजात के चेहरे पर

बालक की ही छवि दिखाई देती है

बालिका तो कहीं

दूर दूर तक नज़र नहीं आती है।

इस चित्र में एक मासूम की यह छवि

किसी की दृष्टि में चमकता सितारा है

तो कहीं मसीहा और जग का तारणहार।

कहीं आंखों का तारा है तो कहीं राजदुलारा।

एक साधारण बालिका की चाह तो

हमने कब की त्याग दी है

अब हम लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा

की भी बात नहीं करते।

कभी लक्ष्मीबाई की चर्चा हुआ करती थी

अब तो हम उसको भी याद नहीं करते।

पी. टी. उषा, मैरी काम, सान्या, बिछेन्द्री पाल

को तो हम जानते ही नहीं

कि कहें

कि ईश्वर इन जैसी संतान देना।

कोई उपमाएं, प्रतीक नहीं हैं हमारे पास

अपनी बेटियों के जन्म की खुशी मनाने के लिए।

शायद आपको लग रहा होगा

मैं विषय-भ्रम में हूं।

जी नहीं,

इस नवजात को मैं भी देख रही हूं

एक चमकते सितारे की तरह

रोशनी से भरपूर।

किन्तु मैं यह नहीं समझ पा रही हूं

कि इस चित्र में सबको

एक नवजात बालक की ही प्रतीति

क्यों है

बालिका की क्यों नहीं।