हाय! मेरी चाय
जब-जब
चाय का कप उठाती हूं
कोई न कोई टोक ही देता है मुझे
कम पीया करो चाय।
कभी-कभी तो मन करता है
पूछ ही लूं
तुम्हारे पैसे से पी रही हूं क्या?
मेरे चेहरे पर नाराज़गी के भाव देखकर
सफ़ाई देने लगते हैं
अरे हम तो
तुम्हारी ही सेहत की सोचकर
बोल दिये थे,
वैसे, जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।
आहा, क्या बात कह दी
मेरा हित सोचते हो तुम।
पता नहीं क्या हो गया है मुझे
मीठी चाय की बात करने बैठी थी
और फिर कहीं से
कड़वाहट आ गई बीच में।
आज
चाय पर बहुत बातें हो रही हैं
सोचा, ज़रा-सा मैं भी कर लूं।
अभी कहीं पढ़ा
चाय से हमारे शरीर को
बहुत नुकसान होते हैं।
गल जाती हैं हड्डियां
बनती है गैस,
खाया-पीया पचता नहीं
चाय में कैफ़ीन के कारण
नींद नहीं आती रातों को।
चिड़चिड़े हो जाते हैं हम
हृदयगति बढ़ जाती है
दांत पीले होकर
सड़ जाते हैं
गुर्दे में पथरी और
शरीर में सूजन हो जाती है।
चीनी से शूगर बढ़ जाती है।
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इतना सब पढ़ने के बाद
मैं लौट-लौटकर
देख रही हूं
अपने आपको
जिसके रक्त में बहती है चाय
पिछले 70 वर्षों से
अबाध।
और यह चाय-संचार
अभी भी जारी है।
मुझे विश्वास है
कि हमें तो जन्म-घुट्टी भी
चाय की ही मिली होगी।
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चाय के साथ ही
उठना होता है
चाय के साथ ही खाना और सोना।
कुछ अच्छा लगे तो चाय
कुछ चुभे तो चाय
मूड खराब है तो चाय
कोई अच्छी खबर है तो चाय
कुछ काटे तो चाय
पढ़ना है तो चाय
सोने से पहले चाय ।
महफ़िल जमानी है तो चाय
लिखने बैठी हूं तो चाय ।
थके तो चाय।
कोई आए तो चाय
कोई जाए तो चैन की सांस और चाय,
जल्दी भगाना हो तो चाय।
सबसे बड़ी बात
चाय ज्यादा बन गई
फालतू पड़ी है पियेंगी।
आइए पी लीजिए।
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हाय! मेरी चाय बनी रहे।
नज़र न लगे।